क्विक अलर्ट के लिए
नोटिफिकेशन ऑन करें  
For Daily Alerts
Oneindia App Download

इंदिरा गांधी के जमाने में ही कांग्रेस में शुरू हो गई थी "जी हुजूर" परंपरा

Google Oneindia News

नई दिल्ली, 01 अक्टूबर। क्या कांग्रेस में चमचा संस्कृति अब चरम पर है ? क्या सोनिया गांधी केवल 'जी हुजूर' नेताओं को पसंद करती हैं ? वाजिब सवाल पूछने वाले नेताओं से उन्हें परहेज है ?

these tradition had started in the Congress during the time of Indira Gandhi

कपिल सिब्बल और नटवर सिंह के बयान के बाद सोनिया गांधी और उनके करीबी सवालों के घेर में हैं। कांग्रेस में जी हुजूरी की परम्परा इंदिरा गांधी के समय शुरू हुई थी जो अब गहरी जड़ जमा चुकी है। इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं, "नेहरू के समय अफसरशाही और न्यायपालिका में राजनीतिक दखल नहीं था। नियुक्ति, चयन और प्रोन्नति का आधार सिर्फ योग्यता थी। लेकिन इंदिरा गांधी ने एक गलत परम्परा शुरू कर दी। वे मंत्री, मुख्यमंत्री या अधिकारियों की तैनाती रिश्तेदारी या वफादारी के आधार पर करने लगीं। इस तर्ज पर जिन संस्थाओं को बर्बाद किया गया उसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी एक थी।"

‘जी हुजूरी’ की शुरुआत

‘जी हुजूरी’ की शुरुआत

इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री थीं तब सरकार और पार्टी पर उनका एकाधिकार था। उनसे सवाल पूछना अनुशासनहीनता थी। इंदिरा गांधी के प्रति निजी वफादारी ही सच्चे कांग्रेसी की निशानी मानी जाती थी। इसकी वजह से कांग्रेस में चापलूसों की फौज खड़ा हो गयी। अयोग्य नेता इंदिरा गांधी की खुशामद कर तरक्की पाने लगे। जमीर वाले नेता या तो पिछड़ गये या बाहर निकल गये। इंदिरा गांधी का गुणगान, कांग्रेस के नेताओं का परम कर्तव्य बन गया। इसी दौर में देवकांत बरुआ जैसे नेता हुए जिसने चापलूसी की सारी हदें पार कर दीं। उन्होंनो 1974 में कहा था, इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा। बरुआ के इस बयान पर कांग्रेस की खूब किरकिरी हुई। लेकिन इस बात का एक असर यह पड़ा कि इंदिरा गांधी कांग्रेस का पर्याय बन गयीं। इंदिरा इज कांग्रेस एंड कांग्रेस इज इंदिरा। यानी कांग्रेस का मतलब इंदिरा गांधी और इंदिर गांधी का मतलब कांग्रेस। यह कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी के लिए शर्मनाक बात था। गांधी नेहरू की परम्परा का अपमान था। लेकिन जनता ने भी इंदिरा गांधी का ही समर्थन किया। 1971 और 1980 की जीत ने इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी प्रवृति को और बढ़ा दिया था। कांग्रेस में कई विभाजन हुए लेकिन इंदिरा गांधी वाले गुट को ही असली कांग्रेस माना गया। इसके बाद एक अघोषित सिद्धांत गढ़ दिया गया,"कांग्रेस पार्टी को केवल नेहरू -गांधी परिवार ही चला सकता है। जो इस परिवार का वफादार होगा उसे ही सच्चा कांग्रेसी माना जाएगा।"

फलते फूलते रहे ‘जी हुजूर’

फलते फूलते रहे ‘जी हुजूर’

राजीव गांधी के समय भी यह परम्परा कायम रही। राजीव गांधी और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहे थे। इस लिहाज से सोनिया गांधी का राजनीति अनुभव कम है। सोनिया गांधी के दौर में सलाहकारों की भूमिका बढ़ गयी है। इस लिहाज से 'जी हुजूरों' के फलने फूलने का मौका अधिक मिला है।1996 में बिहार के रहने वाले सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। वे इंदिरा गांधी के अंधभक्त थे। राजीव गांधी के नहीं रहने के बाद तब तक सोनिया गांधी के प्रमुख वफादार तैयार हो चुके थे। प्रणब मुखर्जी, अर्जुन सिंह, शरद पवार, गुलाम नबी आजाद, ए के एंटनी जैसे नेता इसमें शामिल थे। (कितनी हैरानी की बात है कि यही गुलाम नबी आजाद आज जी-23 के जरिये सोनिया-राहुल के नेतृत्व का विरोध कर रहे हैं।) इन नेताओं की तब सोनिया गांधी के प्रति निजी वफादारी थी। सोनिया समर्थक नेताओं ने 1998 में सीताराम केसरी को बहुत ही अपमानजनक स्थिति में अध्यक्ष पद से हटा दिया था। इसमें शरद पवार भी थे। बाद में कुछ चापलूस नेताओं ने सोनिया गांधी के ऐसे कान भरे कि वे शरद पवार के खिलाफ हो गयीं। शरद पवार की भी अपनी निजी महत्वाकांक्षा थी। तेज तर्रार शरद पवार का सोनिया गांधी की कोर टीम में शामिल होना कुछ नेताओं को रास नहीं आ रहा था। इंद्र कुमार गुजराल सरकार से कांग्रेस के समर्थन वापस लेने से 1998 में मध्यावधि चुनाव करना पड़ा था। जीत की उम्मीद में कांग्रेस ने ऐसा किया था। लेकिन उसकी हार हुई। कांग्रेस को केवल 141 सीटें मिलीं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में मिली जुली सरकार बनी। तब कांग्रेस के जीतने वाले नेताओं में शरद पवार भी थे। 1998 की हार का ठीकरा सीताराम केसरी के माथे पर फोड़ कर उन्हें किनारे लगा दिया गया था। सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बन चुकी थीं।

चापलूस कैसे कर रहे कांग्रेस को कमजोर ?

चापलूस कैसे कर रहे कांग्रेस को कमजोर ?

मुम्बई के पत्रकार जीतेन्द्र दीक्षित के मुताबिक, 1998 में कुछ नेता सोनिया गांधी को समझाने लगे कि वे शरद पवार से सावधान रहें। उन्होंने अपनी बात को स्थापित करने के लिए 1978 की घटना का जिक्र किया। 1978 में वसंतदादा पाटिल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस की इस सरकार में शरद पवार मंत्री थे। उन्होंने अपनी ही पार्टी से बगवात कर दी और पाटिल सरकार से अलग हो गये। उन्होंने इंदिरा गांधी की भी बात नहीं सुनी। शरद पवार डेमोक्रेटिक फ्रंट बना कर खुद मुख्यमंत्री बन गये। सोनिया को यह समझाने की कोशिश जारी रही कि शरद पवार भरोसे के काबिल नहीं। सोनिया गांधी ने ये बात मान भी ली। शरद पवार को अपने राजनीतिक अनुभव के आधार पर यह उम्मीद थी कि उन्हें ही कांग्रेस संसदीय दल का नेता बनाया जाएगा। लेकिन इस बीच एक खेल हो गया। कांग्रेस ने अचानक अपने संसदीय दल के संविधान में संशोधन कर लिया। सोनिया गांधी को संसदीय दल का नेता चुन लिया। जब कि वे न तो लोकसभा की सदस्य थीं और न ही राज्यसभा की।

पार्टी नहीं एक व्यक्ति के लिए वफादारी

पार्टी नहीं एक व्यक्ति के लिए वफादारी

बिना किसी सदन का सदस्य होते हुए भी सोनिया का कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुना जाना आश्चर्यजनक था। लेकिन संविधान संशोधन के चलते यह मुमकिन हो गया। कांग्रेस के इतिहास में पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। कुछ नेता सोनिया गांधी के प्रति स्वामीभक्ति दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे। कांग्रेस ने प्रेस वार्ता में यह भी कह दिया कि सोनिया को सीपीपी चेयरपर्सन बनाने का प्रस्ताव सीताराम केसरी और शरद पवार ने रखा था। इस बात ने शरद पवार को और खफा कर दिया। शरद पवार और सोनिया गांधी के बीच दूरी बढ़ती गयी। एक साल बाद ही सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर ऐसी तकरार हुई कि शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ दी। आज अगर शरद पवार कांग्रेस में रहते तो पार्टी को इस तरह नेतृत्व संकट नहीं जूझना पड़ता। क्या कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार से इतर किसी दूसरे योग्य व्यक्ति को नहीं दी जा सकती ? जब ये सवाल शिद्दत से उठा है तो अब सोनिया के निशाने पर जी-23 के नेता हैं जिनमें कपिल सिब्बल भी एक हैं।

Comments
English summary
these tradition had started in the Congress during the time of Indira Gandhi
देश-दुनिया की ताज़ा ख़बरों से अपडेट रहने के लिए Oneindia Hindi के फेसबुक पेज को लाइक करें
For Daily Alerts
तुरंत पाएं न्यूज अपडेट
Enable
x
Notification Settings X
Time Settings
Done
Clear Notification X
Do you want to clear all the notifications from your inbox?
Settings X
X