तीसरे लॉकडाउन में कई तरह की राहत तो मिली, लेकिन नई समस्या ने बढ़ाई मुश्किल
नई दिल्ली- सोमवार से शुरू हो रहे तीसरे लॉकडाउन में केंद्र सरकार ने कई तरह की रियायतें दी हैं। इसमें कई इलाकों में निर्माण कार्य शुरू करने को भी हरी झंडी मिल गई है, बशर्ते मजदूर साइट पर उपलब्ध हों। लेकिन, अब ये प्रवासी मजदूर फिलहाल किसी भी सूरत में काम पर नहीं लौटना चाहते। वो तो हर हाल में अपने घर लौटने के लिए उतावले हो रहे हैं, क्योंकि सरकार ने लॉकडाउन में रियायत और प्रवासियों को गृहराज्यों में भेजने की व्यवस्था भी साथ-साथ शुरू की है। ठेकेदारों को मजदूरों को मनाने के लिए नाको चबाने पड़ रहे हैं, लेकिन वो किसी की सुनने को तैयार नहीं हैं। वह सारे प्रलोभनों, धमकियों को छोड़कर सिर्फ घर जाने की रट लगाए हुए हैं। ये कहानी कोई एक शहर की नहीं है। शहर-दर-शहर यही समस्या पैदा हो रही है कि जब काम शुरू होने का वक्त आया है तो मजदूरों ने घर वापसी का मन बना लिया है। असल में पिछले करीब 40 दिनों की दिक्कतों ने उन्हें हिलाकर रख दिया है।
काम शुरू होना है, लेकिन मजदूर घर लौटना चाहते हैं
1 मई को केंद्र सरकार ने तीसरे लॉकडाउन की गाइडलाइंस जैसे ही जारी की मजदूरों के ठेकेदार अचानक ऐक्शन में आ गए। उन्होंने करीब 40 दिनों से घर वापसी के इंतजार में बैठे प्रवासी मजदूरों से संपर्क करना शुरू कर दिया। इसी कड़ी में अहमदाबाद में एक ठेकेदार एक नामी कंस्ट्रक्शन साइट के पास रिहायशी इलाकों में बने मजदूरों के ठिकाने पर पहुंचा। वहां करीब 250 से 300 प्रवासी मजदूर रहते हैं। उसने उन्हें केंद्र सरकार की नई गाइडलाइंस की जानकारी दी और सोमवार से काम शुरू करने के लिए तैयार रहने को कहा। लेकिन, ज्यादातर मजदूरों ने उसे यह कहकर इनकार कर दिया कि वो तो पहले अपने गांव वापस जाएंगे। बिजनेस स्टैंडर्ड से बिहार के अहरार आलम नाम के एक ऐसे ही प्रवासी मजदूर ने कहा, 'जब हमने ठेकेदार से कहा कि ट्रेन सेवा शुरू हो गई है, इसलिए हम घर जाना चाहते हैं तो उसने हमें ये कहकर धमकाया कि अगर काम पर नहीं जाएंगे तो न तो वह ठेकेदार अपनी हाउसिंग कॉलोनी में रहने देगा और न ही बची हुई मजदूरी ही देगा।'
'प्रवासी मजदूरों में एक डर का माहौल'
यह सिर्फ एक मजदूर की कहानी नहीं है। उसी कॉलोनी में यूपी, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कई मजदूरों ने कहा कि चाहे उनकी रोजी-रोटी ही क्यों न छिन जाय वह अभी काम पर लौटने के बजाय घर लौटना चाहते हैं। 33 साल के आलम ने बताया, 'एक डर का माहौल है। मध्य अप्रैल में ठेकेदार ने हम सबका तीन बार कोरोना वायरस का टेस्ट करवाया है। उसने अभी तक रिपोर्ट हमें नहीं दिखाई है। पहले हम घर जाना चाहते हैं, तब हम काम पर लौटने के बारे में सोचेंगे।' जानकारों के मुताबिक छोटे उद्योगों के मजदूरों की आय बहुत कम है और उन उद्योंगों को मजदूरों को रोकना आसान नहीं होगा। अगर ये मजदूर एक बार घर चले गए तो तीन महीने से पहले तब तक वापस नहीं लौटेंगे, जब तक चीजें सामान्य नहीं हो जातीं। ट्रेड यूनियनों का अनुमान है कि गुजरात में करीब 10 लाख प्रवासी मजदूर हैं।
मजदूरों के मन में कई सवाल
दरअसल, 40 दिनों की दिक्कतों और चुनौतियों ने प्रवासी मजदूरों को घर वापसी को मजबूर कर दिया है। वह इस वक्त काम शुरू होने की स्थिति देखते हुए भी किसी भी कीमत पर रुकने के मूड में नहीं है। घर वापसी की इनकी बेचैनी कैसी है, यह शनिवार को इंदौर में सीमेंट मिक्सर में छिपकर महाराष्ट्र से यूपी जा रहे लोगों को देखकर ही अंदाजा लग जाता है। यही वजह है कि राजधानी दिल्ली के करोल बाग इलाके में एक कैंप में ठहराए गए प्रवासी मजदूरों ने सिर्फ एक ही इच्छा जाहिर की है कि उन्हें अभी घर जाना है। इसी कैंप में बिहार के कटिहार जिले के रहने वाले एक कंस्ट्रक्शन मजदूर अनवर ने कहा कि, 'हम में से ज्यादातर ने ठेकेदार से कह दिया है कि हम घर वापस जाना चाहते हैं। दिक्कत ये है कि अगर काम शुरू भी हो जाता है मान लीजिए कि मंगलवार से, हम नहीं जानते कि हमारा कंस्ट्रक्शन साइट कब कंटेंमेंट जोन में आ जाएगा और काम फिर से रुक जाएगा। हम इस अनिश्चितता के माहौल में नहीं रहना चाहते।' मजदूरों को यह भी चिंता है कि 33% को ही एकसाथ काम पर रहना होगा, यानि बहुतों को बैठे भी रहना पड़ सकता है।
घर लौटने के बाद भी मुश्किलें कम होना आसान नहीं
हालांकि, घर वापसी के बावजूद इन प्रवासी मजदूरों की दिक्कतें फिलहाल एक झटके में खत्म होने वाली नहीं हैं। नई गाइडलाइंस के मुताबिक उन्हें अपने गृहराज्य जाकर भी अनिवार्य रूप से 14 दिन क्वारंटीन में रहना होगा। वैसे कुछ मजूदर जो बड़े शहरों से अपने घर वापस पहुंच भी चुके हैं और वहां क्वारंटीन का वक्त गुजार भी लिया है, लेकिन उन्हें विशेष कौशल न होने की वजह से वहां काम मिलना भी आसान नहीं हो रहा। मसलन, पश्चिम बंगाल के चाय के बागानों में कई शिफ्ट में काम हो रहे हैं। लेकिन, जो बड़े शहरों से लौटे मजदूर हैं, उन्हें वह काम नहीं आता, इसलिए स्थानीय स्तर काम रहते हुए भी वो बेरोजगार बैठें हैं और उन्हें पूरी तरह से बाहरी सहायता पर ही निर्भर रहना पड़ रहा है।
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