नज़रिया: मुस्लिम वोट बैंक जैसी कोई चीज़ है ही नहीं
सीएसडीएस के सर्वे में ये बात सामने आई कि दोनों पार्टियों को यूपी के मुसलमानों के बराबर वोट मिले हैं.
मुसलमान किसको वोट देंगे. कुछ लोग ये चाहते थे कि इस पर बात हो. मीडिया भी इस गेम में आ गया. मुस्लिम वोट बैंक जैसी कोई चीज दरअसल होती नहीं है.
ये एक मिथक ही है. मुसलमान भी दूसरे सामाजिक समूहों की तरह ही होते हैं. उनके वोट भी अलग-अलग जगहों पर गिरते हैं जैसे दूसरे समूहों के साथ होता है.
मुसलमानों को लेकर ये मिथक ही गढ़ा गया कि उनका कोई एकमुश्त वोटबैंक है. यूपी में उनकी आबादी 17.5 फीसदी है और वे जिधर चले जाएंगे वो जीत जाएगा.
लेकिन इस मिथक को गढ़ने से कुछ राजनीतिक समूहों को फायदा हो जाता है. मुसलमान जिधर जाएंगे, उनकी सरकार बन जाएगी.
मुस्लिम वोट
इस वजह से बहुमत वाले तबके के एक विपरीत ध्रुवीकरण शुरू हो जाता है. मुसलमान वोटों का कितना हिस्सा किसके पक्ष में गया, इसे लेकर फिलहाल कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं.
ज़ाहिर सी बात है कि मुसलमानों का वोट अलग-अलग समूहों को गया होगा. हमारे पहले के सर्वे ये कहते हैं कि मुसलमानों का काफ़ी वोट समाजवादी पार्टी के पक्ष में गया होगा.
कुछ बहुजन समाज पार्टी के साथ गया होगा और कुछ दूसरे छोटे-मोटे राजनीतिक दलों के साथ और कुछ भारतीय जनता पार्टी के साथ.
बड़ी ताकत
जो लोग ये कहते हैं कि बिना मुसलमान वोटों के, बीजेपी को इतनी बड़ी ताकत यूपी में नहीं मिलती तो ये कहने की बुनियाद भी है.
2014 के चुनाव में भी सीएसडीएस के सर्वे में ये बात सामने आई कि 10 फीसदी मुसलमानों ने बीजेपी को वोट किया था और उतने ही मुसलमानों ने कांग्रेस को चुना.
हालांकि पारंपरिक रूप से कहा जाता है कि मुसलमान वोट कांग्रेस के पक्ष में जाते हैं लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही मुसलमानों के तक़रीबन बराबर वोट मिले थे.
निर्वाचन क्षेत्र
इस बार भी कुछ वैसा ही हुआ होगा. इसके कारण भी हैं. वोटिंग के दौरान कई स्थानीय कारक भी काम करते हैं.
कई बार उम्मीदवार के साथ सामाजिक संबंध भी वोट देने का आधार बनते हैं और इसमें पार्टी का नाम अहमियत नहीं रखता.
व्यापक स्तर पर ये कहना सही हो सकता है कि फलाना जाति या फलाना मज़हब के लोग इस पार्टी को वोट करेंगे लेकिन हक़ीकत में निर्वाचन क्षेत्र के स्तर पर ऐसा नहीं होता.
मुस्लिम जनप्रतिनिधि
राजनीति में मुसलमानों की कम होती नुमाइंदगी को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जबरदस्त जीत हासिल हुई.
दोनों ही बार उसने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया. इस सूरत में मुस्लिम जनप्रतिनिधियों की संख्या तो कम होनी ही थी.
मेरे ख्याल से ये मुसलमानों के लिए जितनी बड़ी चुनौती है, खुद बीजेपी के लिए भी उतना ही बड़ा चैलेंज. वह हमेशा सबको साथ लेकर चलने की बात कहती है.
प्रधानमंत्री 'सबका साथ और सबका विकास' की बात करते हैं. उन्हें याद करना चाहिए कि 'सबका साथ' में मुसलमानों का साथ भी शामिल है.
यूपी में मुसलमान भी रहते हैं तो उन्हें आगे के लिए ये सोचना चाहिए कि इनकी भी भागीदारी को कैसे बढ़ाया जाए तभी प्रधानमंत्री का नारा सार्थक हो पाएगा.
(अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर असमर बेग से बीबीसी संवाददाता इक़बाल अहमद की बातचीत पर आधारित)