फिर किस वजह से उबल रहा है जेएनयू?
दिल्ली का मशहूर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय फिर सुर्ख़ियों में है और वजह अब आम होती जा रही है.
कैंपस में छात्र राजनीतिक गुटों का धैर्य कच्चे धागे से बंधा लग रहा है और जब-तब हिंसा की शक़्ल लेकर टूटता है.
पिछले शुक्रवार जो हुआ वो एक नई मिसाल है. जगह थी जेएनयू कैंपस के भीतर का साबरमती ढाबा.
मौका था 'इन द नेम ऑफ़ लव-मेलेन्कॉली ऑफ़ गॉड्स ओन कंट्री' नामक फ़िल्म की स्क्रीनिंग का.
दिल्ली का मशहूर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय फिर सुर्ख़ियों में है और वजह अब आम होती जा रही है.
कैंपस में छात्र राजनीतिक गुटों का धैर्य कच्चे धागे से बंधा लग रहा है और जब-तब हिंसा की शक़्ल लेकर टूटता है.
पिछले शुक्रवार जो हुआ वो एक नई मिसाल है. जगह थी जेएनयू कैंपस के भीतर का साबरमती ढाबा.
मौका था 'इन द नेम ऑफ़ लव-मेलेन्कॉली ऑफ़ गॉड्स ओन कंट्री' नामक फ़िल्म की स्क्रीनिंग का.
मुद्दा बनने की वजह थी फ़िल्म की कहानी जो कथित तौर पर 'लव-जिहाद' जैसे विवादास्पद मामले पर आधारित है.
फ़िल्म स्क्रीनिंग कराने वाले थे ग्लोबल इंडियन फ़ाउंडेशन और विवेकानंद विचार मंच, जिनका पक्ष लिया अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् यानी एबीवीपी ने.
फ़िल्म स्क्रीनिंग का विरोध करने पहुंचे छात्रों का ताल्लुक लेफ़्ट पार्टियों से है जिसमें आइसा, एआईएसएफ़ और एसएफ़आई शामिल थे.
विरोध के स्वर बढ़े, नारों की गर्माहट और नतीजा रहा हाथापाई.
किसने किसको ज़्यादा मारा, किसने किसको कितना घसीटा, किसके कहाँ पर चोट आई, इसकी जांच दिल्ली पुलिस कर रही है.
कैंपस में तनाव
10 से ज़्यादा लोगों ने पुलिस में शिकायत की और तीन एफ़आईआर दर्ज हो चुके हैं.
तीसरा एफआईआर जेएनयू के एक सुरक्षा गार्ड की तरफ़ से है क्योंकि उनके पैर पर चोटें आई हैं.
इस बीच कैंपस में माहौल फिर तनाव से लबालब है.
विश्वविद्यालय के गेट पर पुलिस पेट्रोल वैन्स खड़ी हैं, पत्रकारों को भीतर जाने के लिए अपना पूरा इतिहास गेट पर गार्ड को लिखवाना पड़ता है.
साथ ही उस व्यक्ति से मोबाइल पर बात भी करवानी पड़ती है जिससे मिलने जाना हो.
अफ़सोस सभी को भले ही कितना हो, ज़्यादातर छात्र या टीचर घटना पर बात करने से बच रहे हैं.
2016 के बाद से जेएनयू में इस तरह के वाकये कई दफ़ा हो चुके हैं.
कथित तौर पर भारत विरोधी नारों के लगने से लेकर बायोटेक्नॉलजी छात्र नजीब अहमद की रहस्यमय गुमशुदगी तक.
सभी मामलों ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियों में लंबी जगह बनाई है.
फ़िल्म स्क्रीनिंग करवाने और उसका विरोध करने वालों के बीच आरोप-प्रत्यारोप गंभीर लग रहे हैं.
जेएनएयू एबीवीपी के अध्यक्ष रह चुके अलोक सिंह को लगता है कि "विपक्षी बौखला रहे हैं".
उन्होंने कहा, "जो कम्युनिस्ट अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात करते हैं, अफ़ज़ल गुरु की फाँसी को मनाने की बात करते हैं, लेकिन जब एक डॉक्युमेंट्री फ़िल्म चलती है तो वही अभिव्यक्ति की आज़ादी एक बिल में चली जाती है".
जिन छात्रों का रुझान भाजपा के छात्र विंग एबीवीपी की तरफ़ है उन्हें लगता है कि कैंपस के विपक्षी देश में 'पार्टी की सफलताओं से समझौता नहीं कर पा रहे'.
उधर जवाहरलाल नेहरू छात्र संघ के सभी चुने हुए प्रतिनिधि स्क्रीनिंग के ख़िलाफ़ रहे हैं.
मौजूदा छात्र संघ के सभी पदाधिकारियों ने पिछले चुनाव लेफ़्ट पार्टियों के छात्र संगठनों की ओर से जीते थे.
राम नाग जेएनयूएसयू के पूर्व महासचिव रह चुके हैं और उन्हें लगता है "अब जेएनयू में जो बदलाव आया है वो वापस ठीक होना नामुमकिन है".
उनके मुताबिक़, "कैंपस में पहले भी कहासुनी होती थी और झगड़े मिल बैठ कर सुलझा लिए जाते थे. अब मॉब कल्चर थोपा जा रहा है एबीवीपी के ज़रिए. विवादित फ़िल्म को दिखाकर दोबारा चर्चा में लौटने का मक़सद ही यही है."
बिगड़ते हालात पर चिंता
ज़ाहिर है जब कैंपस में इस तरह से हिंसा बढ़ेगी तो उसका असर छात्रों के अलावा टीचरों पर भी दिखेगा.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय टीचर्स एसोसिएशन के सचिव सुधीर कुमार सुथार को भी बतौर अध्यापक बिगड़ते हालात पर 'मलाल' है.
उन्होंने कहा, "डेमोक्रेसी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उतनी ही ज़रूरी है जितनी की विरोध करने के अधिकार की. हिंसा किसी तरह की हो उसका असर नकारात्मक ही होता है. हमारे लिए भी ये एक चैलेंज है".
मामले की जांच जारी है और लोग अपने-अपने गवाह मौजूद होने के दावे कर रहे हैं.
गौर करने वाली एक छोटी-सी बात और भी है.
एक ज़माने में जेएनयू के साबरमती हॉस्टल ढाबे को 'लवर्स पॉइंट' भी कहा जाता था.
आज उसी जगह पर 'लव-जिहाद' जैसे एक विवादास्पद मसले पर हिंसा भी को चुकी है.