भारत का वो गांव जो बिजली के मामले में बना आत्मनिर्भर
मध्य प्रदेश के इस गांव के लोगों ने अपनी दूरदर्शिता की बदौलत यह कारनामा कर दिखाया है. जानिए कैसे?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भले ही कोरोना के दौर में भारत को आत्मनिर्भर बनने की सलाह दी हो. लेकिन देश में कई ऐसे इलाके हैं जहाँ के लोगों ने अपनी दूरदर्शिता और मेहनत की बदौलत अपने इलाके को पहले ही आत्मनिर्भर बना लिया है.
ऐसा ही एक उदाहरण है मध्य प्रदेश का बांचा गांव.
वैसे तो यह देश के दूसरे गांवों की तरह है लेकिन इसकी ख़ासियत यह है कि यह गांव देश का एक मात्र धुआं रहित गांव है. इस गांव में किसी भी घर में चूल्हा या रसोई गैस नहीं है और हर घर में सौर ऊर्जा से ही खाना बनाया जाता है.
अंगूरी बाई ढाकरे ने बताया, "पहले हमें अपने घर में खाना बनाने के लिए लकड़ी के लिए जंगल जाना पड़ता था. हमें बहुत दिक़्क़त आती थी. पहले लकड़ी तोड़नी पड़ती थी उसके बाद फिर घर पर आकर खाना बनाना पड़ता था."
अंगूरी बाई ने बताया, "कई बार मुश्किल से लकड़ी मिलती थी और अगर लकड़ी नहीं मिल पाती थी तो कई बार दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता था. सरकार ने उज्जवला योजना के तहत गैस दिए थे लेकिन अगर पैसे की तंगी है तो हम गैस नहीं भरवा पाते थे लेकिन अब ऐसी किसी परेशानी का सामना हमें नहीं करना पड़ता है."
उन्होंने कहा, "अगर लकड़ी लाने और खाना बनाने का समय देखें तो कई घंटे लग जाते थे लेकिन अब ऐसी कोई परेशानी नहीं है. ज़्यादा से ज़्यादा एक घंटे में किसी भी समय खाना बनाया जा सकता है."
लेकिन अब स्थिति बिल्कुल अलग है. अब अंगूरी बाई जैसी गृहणियों को चूल्हे के ईंधन के लिए परेशान नहीं होना पड़ता है.
वहीं महिलाएं इसलिए भी ख़ुश हैं कि चूल्हे पर खाना बनाने से उससे निकलने वाले धुएं से उनकी आंखें भी ख़राब होती थीं लेकिन अब उन्हें इस तरह की कोई दिक़्क़त नहीं है.
74 घरों में सौर ऊर्जा से चलने वाले चूल्हे मौजूद
मध्य प्रदेश का बैतूल ज़िला आदिवासी बहुल है वहीं बांचा गांव भी आदिवासी बहुल है. इस गांव में कुल 74 घर हैं और अब हर घर में सौर ऊर्जा से चलने वाले चूल्हे मौजूद हैं.
इसी के ज़रिए अब गांव के हर घर में खाना बनाया जाता है. खाना बन जाने के बाद बिजली रहती है तो घर में पंखे और लाइट के लिए भी इसका इस्तेमाल कर लिया जाता है.
गांव के ही अनिल वर्मन ने बताया कि सौर ऊर्जा के ये चूल्हे गांव के लिए एक तरह की सौगात हैं.
उन्होंने कहा, "हमारे घर में इससे बहुत फ़ायदा हुआ है. एक तरफ़ हमारे पैसे की बचत होती है तो दूसरी तरफ़ हमें किसी भी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है."
अनिल ने बताया, "अगर चूल्हे पर खाना बनाते थे तो लकड़ी लाने की परेशानी तो थी ही साथ में धुएं से महिलाएं बहुत ज़्यादा परेशान होती थीं. अगर गैस चूल्हे पर खाना बनाते थे तो गैस ख़त्म हो जाने के बाद पैसे की ज़रूरत पड़ती थी. लेकिन अब ऐसी कोई परेशानी नहीं रही."
गांव में कैसे पहुंची सौर ऊर्जा
अगर हम यह कहें कि बिजली के मामले में यह गांव आत्मनिर्भर है तो ग़लत नहीं होगा. इस गांव में बदलाव लाने में आईआईटी मुंबई का तकनीकी सहयोग रहा है.
इस गांव में इस प्रोजेक्ट की शुरुआत सितंबर 2017 में शुरू हो गई थी. और इस योजना के तहत सौर ऊर्जा पैनल, बैटरी और चूल्हा लगाने का काम 2018 में पूरा हो गया.
आईआईटी मुंबई ने बांचा गांव के लिए विशेष प्रकार का चूल्हा तैयार किया. सौर ऊर्जा से चलने वाले इन चूल्हों की सोलर प्लेट से तेज़ धूप होने की स्थिति में लगभग 800 वोल्ट बिजली बन जाती है. बैटरी में लगभग तीन यूनिट बिजली स्टोर हो जाती है.
इसमें तकनीकी सहयोग दे रहे देवसु कवड़े ने बताया, "इन चूल्हों के लिए चार पैनल लगाए गए हैं. इसके साथ ही चार बैटरी, एक कंट्रोलर, एमसीबी और उसी से जुड़ा हुआ इंडक्शन लगाया गया है."
देवसु ने आगे बताया, "इसमें सौर ऊर्जा से करंट बनता है और बैटरी में स्टोर होता है उसके माध्यम से लोग खाना बनाते हैं. इसमें दिन में दो-तीन बार आराम से खाना बनाया जा सकता है. एक बार में इसमें पांच लोगों का खाना आसानी से तैयार किया जा सकता है."
कितना ख़र्च आता है?
इसके इस्तेमाल से धुंआ नहीं फ़ैलने से जहां पर्यावरण का फ़ायदा हुआ वहीं ईंधन के लिए पेड़ों को भी नहीं काटा जाता है. पहले जब लोग जंगल में लकड़ी लेने जाते थे तो कई बार पेड़ों को काटा जाता था या फिर किसी न किसी रूप में उन्हें नुकसान होता था.
इन चूल्हों को लगाने के लिए सरकार और ओएनजीसी का सहयोग रहा है. हर घर पर इसे लगाने के लिए ख़र्च लगभग एक लाख रुपये का आता है.
लेकिन ऐसा नहीं है कि बांचा गांव में सिर्फ़ सौर ऊर्जा से चूल्हों को चलाया जा रहा है. बल्कि यह एक ऐसा गांव है जहां पर जल संरक्षण के लिए भी भरपूर काम किया जा रहा है.
गांव के लिए लोगों की कोशिश है कि पूरे गांव को जल संरक्षित करने वाले गांव के तौर पर भी जाना जाए. इसलिए 74 घर की आबादी वाले इस गांव में अब लोग अपने घरों में बारिश के पानी को बचाने के लिए 'सोखता' मतलब सोखने वाले गड्ढे बना रहे हैं. अब तक लगभग 55 घरों में यह तैयार हो चुका है.
यहां रहने वाले आदिवासी परिवार दूसरे गांवों के लिए एक तरह से मिसाल हैं. ये लोग दूसरे गावों को पानी बचाने की प्रेरणा दे रहे हैं.
इस गांव में हर परिवार ने बारिश का पानी बचाने के लिए अपने आंगन में वाटर हार्वेस्टिंग की तरह सोखने वाला गड्ढा बनाकर बारिश के पानी को ज़मीन में भेजने की संरचनाएं तैयार की है.
इसमें इन्हें किसी भी तरह की कोई सरकारी मदद या अनुदान नहीं मिला है.
किस तरह से हो रहा है जल सरंक्षण
यहां रहने वाले परिवारों ने दो से तीन मीटर लंबे, दो मीटर चौड़े और चार मीटर गहरे गड्ढे तैयार कर उन गड्ढों में बोल्डर, रेत, बजरी, गिट्टी, ईंट भरकर तैयार किया ताकि उसमें बारिश का पानी इकठ्ठा हो सके.
इसका मक़सद कच्ची और खपरैल वाली इन छतों पर गिरने वाले बारिश के पानी को नालियों की मदद से इन गड्ढों से ज़मीन के अंदर भेजना है ताकि अपने इलाक़े में भूजल स्तर को बढ़ाया जा सके.
गांव की निवासी अनिता धुर्वे ने बताया, "हम उम्मीद कर रहे हैं कि हम लोगों को अब पानी के लिए भी परेशान नहीं होना पड़ेगा. इससे जलस्तर बढ़ेगा तो गांव में पानी की समस्या ख़त्म हो जाएगी."
बहुत से घरों में गड्ढों को तैयार करने वाला कोई नहीं मिला तो गांव के नौजवानों ने यह बीड़ा उठाया और इन्हें बनाया.
कुल मिलाकर यह गांव पानी के मामले में भी आत्मनिर्भर बनने की कोशिश कर रहा है.
गांव के सरपंच राजेंद्र कावड़े ने बताया, "हम बिजली के मामले में आत्मनिर्भर है तो पानी के मामले में भी अब हमें समस्या नहीं हो रही है."
उन्होंने कहा," हमारे गांव में एक भी ऐसा कुंआ या हैण्ड पंप नहीं है जिसमें पानी न आता हो. यह सब उसी बात का नतीजा है कि हमने पानी के संरक्षण के लिए काम किया. वरना पहले गर्मी आते ही पानी की किल्लत शुरू हो जाती थी."
वही बैतूल कलेक्टर राकेश सिंह इसे गांव में आ रहे बदलाव और जागरूकता की मिसाल बताते है.
वे कहते हैं कि, "यह गांव न सिर्फ राज्य बल्कि पूरे देश के लिए मिसाल है. आदिवासी बहुल इस गांव ने अपनी अलग जगह बनाई है."