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हरियाणा का वो गांव जो तिरंगा नहीं लहराता है

वो 29 मई 1857 की तारीख थी. हरियाणा के रोहनात गांव में ब्रिटिश फ़ौज ने बदला लेने के इरादे से एक बर्बर ख़ूनख़राबे को अंज़ाम दिया था.

बदले की आग में ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया.

लोग गांव छोड़कर भागने लगे और पीछे रह गई वो तपती धरती जिसपर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी.

दरअसल यह 1857 के गदर 

By BBC News हिन्दी
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वो 29 मई 1857 की तारीख थी. हरियाणा के रोहनात गांव में ब्रिटिश फ़ौज ने बदला लेने के इरादे से एक बर्बर ख़ूनख़राबे को अंज़ाम दिया था.

बदले की आग में ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया.

लोग गांव छोड़कर भागने लगे और पीछे रह गई वो तपती धरती जिसपर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी.

दरअसल यह 1857 के गदर या सैनिक विद्रोह, जिसे स्वतंत्रता की पहली लड़ाई भी कहते हैं, के दौरान ब्रिटिश अधिकारियों के कत्लेआम की जवाबी कार्रवाई थी.

रोहनात गांव, हरियाणा के हिसार ज़िले के हांसी शहर से कुछ मील की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है.

गांव वालों ने आगजनी के डर से भागे ब्रिटिश अधिकारियों का पीछा कर उनका कत्ल करने के साथ ही हिसार जेल तोड़ कर कैदियों को छुड़ाने का कारनामा किया था.



क्या है पूरा मामला?

गांव वालों से बदला लेने के लिए ब्रिटिश सेना की टुकड़ी ने रोहनात गांव को तबाह कर दिया.

बागी होने के संदेह में उन्होंने निर्दोष लोगों को पकड़ा, पीने का पानी लेने से रोकने के लिए एक कुंए के मुंह को मिट्टी से ढक दिया और लोगों को फ़ांसी पर लटका दिया.

डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद आज भी गांव उस सदमे से उबर नहीं सका. गांव के बुजुर्ग कुंए को देख कर उस डरावनी कहानी को याद करते हैं.

गांव के घरों को तबाह करने के लिए आठ तोपों से गोलों बरसाए गए. जिसके डर से औरतें और बच्चे बुजुर्गों को छोड़ कर गांव से भाग गए.

अंधाधुंध दागे गए गोलों की वजह से लगभग 100 लोग मारे गए. पकड़े गए कुछ लोगों को गांव की सरहद पर पुराने बरगद के पेड़ से लटका कर फ़ांसी दे दी गई.

जिसने भी ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की बात कबूल की, उन्हें तोप से बांध कर उड़ा दिया गया. इस घटना के महीनों बाद तक यहां कोई इंसान नज़र नहीं आया.

सदमे से नहीं उबरा है गांव

पूरे गांव की ज़मीन को नीलाम कर दिया गया. अंग्रेजों का कहर यहीं खत्म नहीं हुआ.

पकड़े गए कुछ लोगों को हिसार ले जा कर खुले आम बर्बर तरीके से एक बड़े रोड रोलर के नीचे कुचल दिया गया, ताकि भविष्य में ये बागियों के लिए सबक बने.

जिस सड़क पर इस क्रूरता को अंजाम दिया गया उसे बाद में लाल सड़क का नाम दिया गया.

ब्रिटिश राज से आज़ादी पाने के लिए रोहनात गांव से हिस्सा लेने वालों में प्रमुख स्वामी बृहद दास वैरागी, रूपा खत्री और नौन्दा जाट थे.

हैरानी की बात है कि गांव के लोगों की मांगों को मानने के लिए प्रदेश की सरकारों के लिए सात दशकों का समय भी कम साबित हुआ है.

गांव वाले खेती के लिए ज़मीनें और आर्थिक मुआवजे की मांग कर रहे हैं. सालों पहले जो थोड़ा बहुत आर्थिक मुआवजे की घोषणा की गई थी वो अब तक नहीं मिला.

कैसा है आज का रोहनात

रोहनात के पूर्व सरपंच 82 साल के चौधरी अमी सिंह बोरा ने 1857 की कहानियां अपने दादा से सुनी थीं. उस घटना को याद करते हुए वो भावुक हो जाते हैं.

उन्होंने बताया, "हांसी और इसके आस पास सबकुछ शांत होने के बाद भी बदले की कार्रवाई चलती रही."

"रोहनात के सभी खेतीहर ज़मीनों को बाहरी लोगों को नीलाम कर दिया गया ताकि बाद में उसके पैतृक हकदारों को उनका हक नहीं मिल सके."

अमी सिंह कहते हैं, "राजस्व रिकॉर्ड के मुताबिक 20,656 बीघा ज़मीन जब्त की गई थी, जिसे उमरा, सुल्तानपुर, दंधेरी और मज़ादपुर के रहने वाले 61 लोगों ने 8,100 रुपये में ख़रीदा था. जो आज की कीमतों के हिसाब से बहुत कम है."

अमी सिंह अफसोस करते हुए बताते हैं, "जब हमारे पूर्वज वापस यहां आए तो उनके साथ भगोड़े जैसा बर्ताव किया गया और उनसे खेतों में मज़दूरी का काम लिया गया, वो भी उन्हीं ज़मीन के टुकड़ों पर जो कभी उन्हीं की थी."

ख़ूनख़राबे का गवाह पेड़

इतिहासकार रणवीर सिंह फोगाट कहते हैं कि कई साल पहले उन्होंने रोहनात के आसपास के गांवों का दौरा किया और हांसी के बुजुर्गों से बातचीत कर 1857 की ख़ौफ़नाक कहानियां इकट्ठा की.

उनके हिसाब से उचित मुआवजा देने के सिद्धांत को नज़रअंदाज किया गया है.

वो कहते हैं कि यह मुद्दा अब केवल हरियाणा विधानसभा में अध्यादेश पास करके ही सुलझ सकता है.

https://twitter.com/mlkhattar/status/977222599590727681

अमी सिंह ब्रिटिश सेना के द्वारा मारे गए लोगों की छठी पीढ़ी से हैं. वो अपने परदादा दया राम की कहानी बताते हैं, जिन्हें 29 मई 1857 के दिन मौत की सज़ा दी गई थी.

वो कहते हैं, "आज इस पेड़ को उस ख़ूनख़राबे का गवाह माने जाने के साथ ही बहुत पवित्र माना जाता है.

65 साल के सतबीर सिंह के पास अब 11 एकड़ खेती की ज़मीन है.

उन्होंने कहा कि उनके बुजुर्गों ने मेहनत कर गांव की 65 फ़ीसदी जमीनें वापस ख़रीद ली है जिसके लिए उन्होंने भारी कीमत चुकाई है.

आज़ादी के बाद भी संघर्ष जारी

गांव के सरपंच रविंद्र कुमार बोरा कहते हैं कि यह गांव हरियाणा के अन्य गांवों की तरह ही है जिसके लिए विकास निधि हासिल करना मुश्किल था.

उन्होंने गांव की ज़मीन वारिसों को दिलवाने के लिए काफी संघर्ष किया लेकिन कामयाबी नहीं मिली.

हालांकि उन्होंने यह भी कहा, "हम अभी भी हमारे बुजुर्गों की उस लड़ाई की पहचान के लिए संघर्ष कर रहे हैं."

ये मामला पहले पंजाब और फिर हरियाणा सरकार के पास उठाया गया.

हरियाणा सरकार के लिए यह नीतिगत फैसला था क्योंकि मौजूदा मालिकों से ज़मीन वापस ली जानी थीं.

1947 में भारत आज़ादी का जश्न मना रहा था लेकिन इस गांव के पास खुश होने की कोई वजह नहीं थी.

1857 की सौंवी वर्षगांठ

चौधरी भाले राम जो सेना में काम कर चुके हैं. उन्होंने नरवाना की अदालत में केस दर्ज करवाया है. जिसमें उन्होंने मांग की है कि सरकार यहां के बुजुर्गों को स्वतंत्रता सेनानियों के बराबर पेंशन दे.

सतबीर सिंह ने बताया कि जब 1957 में प्रताप सिंह कैरो मुख्यमंत्री थे तब 1857 की सौंवी वर्षगांठ मनाने के लिए प्रस्ताव रखा गया था. उस समय यह प्रस्ताव पास किया था कि रोहनत की ज़मीन के बदले हिसार के जंगल की जमीन दे दी जाएगी.

रोहनात शहीद कमिटी 15 नवंबर 1971 को इंदिरा गांधी से भी मुलाकात की. जिन्होंने इस मसले के हल का आश्वासन दिया लेकिन भारत पाकिस्तान के युद्ध शुरू होने के कारण ऐसा नहीं हो सका.

सतबीर ने बताया कि ये मामला हरियाणा की पिछली सभी सरकारों के पास गया लेकिन अभी तक उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आ रही है. पूर्व मुख्यमंत्री बंसी लाल जो खुद भिवानी से थे वो भी इस मसले को हल नहीं कर सके.

सांकेतिक तस्वीर
iStock
सांकेतिक तस्वीर

नहीं लहराया जाता तिरंगा

5,000 की आबादी वाले रोहनात के गांव वालों में गुस्सा है और वो तिरंगा नहीं लहराते.

उनको दुख है कि सरकार की ओर से उनके पूर्वजों की इज़्ज़त नहीं की जा रही और वाजिब मुआवजा नहीं दिया जा रहा.

गांव के सरपंच रवींद्र बोरा के मुताबिक, "बेशक गांव के लोग राष्ट्रीय उत्सवों में हिस्सा लेते हैं लेकिन गांव में तब तक तिरंगा नहीं लहराया जाएगा जब तक कि इंसाफ़ नहीं मिलता."

23 मार्च 2018 को मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर गांव में तिरंगा लहराने पहुंचे और मुआवजे के नए वादे भी किए लेकिन रवींद्र बोरा ने बताया कि हम तब तक तिरंगा नहीं लहराएंगे जब तक कि हमारी ज़मीन वापस नहीं दी जाती और हमारे पूर्वजों को स्वतंत्रता सेनानियों के बराबर दर्जा नहीं दिया जाता.

इतिहासकारों की राय

जाने माने इतिहासकार केसी यादव ने बताया, "1857 की बगावत के दौरान हांसी, हिसार और सिरसा में ईस्ट इंडिया कंपनी की बटालियन रोहनात से बागियों को हटाने और मिटाने के लिए भेजी गई थी. तपती गर्मी के दिनों में रोहनात के निवासियों ने पोस्ट छोड़कर भागते कुछ ब्रिटिश अफसरों का बेहरमी से कत्ल कर दिया था. इसी वजह से ब्रिटश सेना ने बदले की भावना से गांव वालों को बेरहमी से मारा. कई गांव वालों को तोप से उड़ा दिया, कई लोगों को पेड़ से लटका कर फ़ांसी दे दी गई."

प्रोफेसर यादव ने बताया कि, "जिन बागियों को पकड़ा गया उन्हें हांसी लाकर रोड रोलर के नीचे कुचल दिया गया. बाद में सड़क का नाम लाल सड़क रखा गया क्योंकि कुचले गए लोगों के ख़ून से इसका रंग लाल हो गया था."

https://twitter.com/mlkhattar/status/977225302266073088

प्रोफेसर यादव ने अपनी किताब 'रोल ऑफ़ ऑनर हरियाणा मार्टर 1857' का हवाला दिया जिसमें उन्होंने उन 52 जमींदारों, 17 बटाइदारों का ज़िक्र किया जिनकी ज़मीन ज़ब्त की गई और नवंबर 1858 में बोली लगा कर बेच दी गई थी.

प्रोफेसर यादव इस बात के समर्थक हैं कि ज़ब्त की गई ज़मीन से दोगुनी ज़मीन मुआवजे के रूप में दी जाएं और सरकारी नौकरी में उन बुजुर्गों के वारिसों को प्राथमिकता दी जाए.

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English summary
The village of Haryana which does not wipe the tricolor
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