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धरती का बढ़ता रहा बुख़ार तो आएगा महाप्रलय !

सोपान जोशी कहते हैं,"भारत जैसे देश के लिए सबसे बड़ा संकट पानी का होगा. दुनिया की बहुत बड़ी आबादी इस उपमहाद्वीप में बसती है और उसकी जान मॉनसून नाम के तोते में फंसी है. वैज्ञानिक बता चुके हैं कि मॉनसून में बारिश का ढर्रा बदल रहा है.

By BBC News हिन्दी
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ग्लोबल वार्मिंग
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धरती तप रही है. ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से वैश्विक तापमान लगातार बढ़ रहा है. अगर पृथ्वी के 'बुखार' को बढ़ने से नहीं रोका गया तो यहां ज़िंदगी पर बड़ा ख़तरा पैदा हो जाएगा.

तीन साल के गहन शोध और एक हफ़्ते तक दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में तमाम सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ मंथन और बहस के बाद आला वैज्ञानिकों ने ऐसी ही आशंका जाहिर की है.

वैज्ञानिकों ने इसे 'आखिरी चेतावनी' बताया है और इसे संयुक्त राष्ट्र के इंटरगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी ने रिपोर्ट की शक्ल में जारी किया है. इसमें कहा गया है कि ख़तरे को कम करने के लिए तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेट से कम पर रोकना होगा और इसके लिए अगले 12 साल यानी 2030 तक बहुत कुछ बदलना ज़रूरी है.

bbchindi.com
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लंदन में मौजूद बीबीसी के पर्यावरण संवाददाता नवीन सिंह खड़का के मुताबिक ये रिपोर्ट आगाह करती है कि स्थितियां नहीं बदलीं तो दुनिया के कई हिस्सों में हालात भयावह हो जाएंगे.

"अगर तापमान इसी हिसाब से बढ़ता गया तो जीना हराम हो जाएगा. ख़ास तौर पर जो ग़रीब मुल्क हैं और टापू देश हैं और आर्कटिक में लोग रह नहीं पाएंगे. जी नहीं पाएंगे."

सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट यानी सीएसई के क्लाइमेट चेंज डिवीज़न की प्रोग्राम मैनेजर डॉक्टर विजेता रतानी कहती हैं कि ये रिपोर्ट पूरी दुनिया के लिए ख़तरे की घंटी है, "आईपीसीसी की रिपोर्ट हमें ये कह रही है कि एक डिग्री तापमान पार हो चुका है. अगर अभी दुनिया की ये हालत है तो 1.5 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान बढ़ने पर स्थिति बहुत गंभीर रूप ले लेगी. रिपोर्ट ये भी कहती है कि अगर तापमान दो डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ता है तो फिर तो ये प्रलय की बात है. उसके बाद हम अपने आपको बचा नहीं पाएंगे और ना दुनिया को बचा पाएंगे."

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संकट में पूरी दुनिया

विशेषज्ञों का आकलन है कि मौजूदा रफ़्तार बनी रही तो तापमान तीन से चार डिग्री सेंटीग्रेट तक बढ़ सकता है.

पर्यावरणविद् कहते हैं कि रिपोर्ट में जिन ख़तरों का ज़िक्र है, वो सामने दिख रहे हैं. जिस वक़्त आईपीसीसी की रिपोर्ट जारी की गई तब दुनिया में सबसे ताक़तवर समझे जाने वाला मुल्क अमरीका माइकल तूफ़ान से बचाव की कोशिश में जुटा था. इसके पहले सितंबर में आए फ्लोरेंस तूफ़ान ने अमरीका में लाखों लोगों को प्रभावित किया था.

नवीन सिंह खड़का कहते हैं कि कुदरत का बदलता मूड दुनिया के हर देश को डरा रहा है.

"अमरीका में हम देख चुके हैं. ऑस्ट्रेलिया में देख चुके हैं. यहां ब्रिटेन में इस बार इतनी गर्मी हुई कि यहां की घास राख बन गई. यहां लोग इस बात से डर गए हैं कि ये स्थिति सब तरफ़ दिखने लगी है."

डोनल्ड ट्रंप
Reuters
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समझौते से हटे ट्रंप

लेकिन, क्या ताक़तवर देश वाकई डरे हुए हैं?

साल 2015 में पेरिस में दुनिया भर के देशों में समहति बनी जिसमें 21वीं शताब्दी के आखिर तक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य तय किया गया.

लेकिन साल 2017 में अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने समझौते से किनारा कर लिया. ट्रंप ने चीन और भारत जैसे देशों का हवाला देते हुए समझौते की शर्तों पर सवाल उठाए.

जब ज़्यादा कार्बन डाइ ऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाले ताक़तवर देश ऐसा रुख दिखाएंगे तो क्या संयुक्त राष्ट्र की कोशिशों को अमली जामा पहनाया जा सकेगा, इस सवाल पर पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ पत्रकार सोपान जोशी कहते हैं, "हम सभी जानते हैं कि संयुक्त राष्ट्र में जब इस बारे में बातचीत होती है तब सभी देशों की सरकारें ऐसे लोगों को भेजती हैं जो कूटनीति से ऐसी बात करें कि जिससे लगे कि वो सब सचेत हैं. लेकिन जब करने का मौका आए तो अपने ऊपर कम से कम ज़िम्मेदारी लें. करने का मौका आता है तो सभी देश ये कहते हैं कि हां, आपको करना चाहिए. ख़ुद कोई करने को तैयार नहीं है."

डॉक्टर विजेता की राय है कि अमरीका के समझौते से बाहर आने के बाद दूसरे देशों पर दबाव कई गुना बढ़ गया है.

वो कहती हैं, "जब अमरीका समझौते से बाहर निकल गया है तो सामान्य सी बात है कि बाकी देशों के ऊपर बहुत दबाव है कि कौन उस जगह को भरेगा."

ट्रंप के ख़िलाफ प्रदर्शन
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ट्रंप के ख़िलाफ प्रदर्शन

ख़रबों डॉलर ख़र्च होंगे

तापमान को डेढ़ डिग्री से नीचे रखने की कोशिशों में दिक्कतें और भी हैं.

वैज्ञानिक ऊर्जा हासिल करने और ज़मीन के इस्तेमाल के तरीकों में बड़े बदलाव की बात कर रहे हैं. शहरों की जीवन शैली के साथ उद्योगों को चलाने के तरीके़ भी तब्दील करने होंगे.

नवीन सिंह खड़का कहते हैं कि सिर्फ़ कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने से स्थिति नहीं बदलेगी.

वो कहते हैं, "इस रिपोर्ट में एक अलग बात ये कही गई है कि कार्बन उत्सर्जन घटाने से ही बात नहीं बनेगी. अब एक ऐसी तकनीक चाहिए जिससे वायुमंडल में जो कार्बन जा चुका है, उसे भी सोखा जा सके. उसे स्टोर करना होगा. अगर ये हो पाता है तो 1.5 डिग्री का लक्ष्य शायद हासिल किया जा सकता है."

इन सब उपायों को अमली जामा पहुंचाने के लिए बहुत बड़े बजट की ज़रूरत है. नवीन सिंह खड़का रिपोर्ट के हवाले से बताते हैं, "ग्लोबल जीडीपी का 2.5 फ़ीसदी पैसा इसमें जाना है. 25 खरब डॉलर हर साल खर्च होना है. ये बहुत ज़्यादा पैसा है.

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आंख़ें बंद रखना ठीक नहीं

लेकिन वैज्ञानिकों का दावा है कि अगर बाधाओं की वजह से दुनिया अब आंखें बंद करके बैठेगी तो बाद में ख़र्च कई गुना बढ़ चुका होगा.

तापमान बढ़ता रहा तो दुनिया के दोनों ध्रुवों पर बर्फ पिघलने की रफ़्तार तेज़ होगी. समंदर का जलस्तर बढ़ जाएगा.

मालदीव और प्रशांत क्षेत्र के कई द्वीपीय देशों का अस्तित्व ख़तरे में होगा. दिक्कतें अमरीका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में भी होंगी, लेकिन नवीन खड़का को अफ्रीका और एशिया की चुनौतियां ज़्यादा मुश्किल दिखती हैं.

वो कहते हैं, " जो गरीब देश, टापू देश या फिर अल्पविकसित देश हैं इनमें से ज्यादातर अफ्रीका और दक्षिण एशिया में हैं, वहां इन हालात से निपटने की तैयारी नहीं है. अमरीका को अगर इस तरह की दिक्कत का सामना करना पड़े तो वहां बजट है. इससे जूझने की तैयारी होती है, लेकिन ग़रीब मुल्क में ये तैयारी और ये पैसा लाना बड़ी चुनौती है. इसीलिए वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि तापमान बढ़ने की सबसे ज़्यादा मार ये गरीब देश खाएंगे."

केरल में आई बाढ़
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केरल में आई बाढ़

भारत के सामने बाढ़-सूखे का संकट

ख़तरे भारत के सामने भी कम नहीं हैं.

सोपान जोशी कहते हैं,"भारत जैसे देश के लिए सबसे बड़ा संकट पानी का होगा. दुनिया की बहुत बड़ी आबादी इस उपमहाद्वीप में बसती है और उसकी जान मॉनसून नाम के तोते में फंसी है. वैज्ञानिक बता चुके हैं कि मॉनसून में बारिश का ढर्रा बदल रहा है. अब रिमझिम बारिश के दिन कम हो रहे हैं. तेज़ बारिश के दिन बढ़ रहे हैं. यानी कम समय में ढेर सारा पानी गिर जाएगा. जो आपके तालाब, कुओं, नदी को भरने की बजाए बाढ़ का रूप लेगा. हम लगातार बाढ़ और सूखे का सामना करेंगे."

उम्मीद अभी बाकी है

दिन ब दिन बढ़ते ख़तरे के बीच बातें सिर्फ़ मायूसी की नहीं है. डॉक्टर विजेता कहती हैं कि वैज्ञानिकों ने उम्मीद की खिड़की की तरफ़ भी इशारा किया है.

"1.5 डिग्री का लक्ष्य हासिल करना बहुत मुश्किल है. लेकिन आईपीसीसी ने उम्मीद बंधाई है कि ये असंभव नहीं है. ये मुमकिन है."

ये कितना मुमकिन है, इसका सही इशारा दिसंबर में तब मिलेगा जब दुनिया भर के देश पोलैंड में पेरिस समझौते की समीक्षा के लिए बैठेंगे.

लेकिन, क्या सारी दुनिया को सरकारों के भरोसे बैठना चाहिए?

इस सवाल पर नवीन सिंह खड़का कहते हैं, "अब लोग कह रहे हैं कि जिस तरह से जी रहे हैं, उसे ही बदलना है. क्या खा रहे हैं उस पर ध्यान देना होगा. अगर आप मांस खा रहे हैं जिसकी वजह से कार्बन उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है तो आपको अपनी खाने की आदतें बदलनी पड़ सकती हैं और अगर आप गाड़ी चला रहे हैं तो गाड़ी कम चलाएं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करें."

वहीं डॉक्टर विजेता कहती हैं, "एक इंसान क्या कर सकता है वो अहम है. हम बिजली व्यर्थ न करें. अपनी ख़पत कम करें. महात्मा गांधी का नज़रिया था कि उतना ही लीजिए जितनी आपकी ज़रूरत है वो सोच आज सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है. यानी हम बर्बादी कम करें. अमरीका हर साल 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद कर देता है. अगर आप हर व्यक्ति की बात नहीं करेंगे तो हर इंसान अपने आपको इस समस्या से दूर समझेगा. उसे लगेगा कि ये हमसे संबंधित नहीं है."

ग्रीन पीस की कैसा कोसोनन ऐसी ही समझ विकसित करने का आग्रह करते हुए कहती हैं कि वैज्ञानिक शायद बड़े अक्षरों में लिखना चाहते हैं "ACT NOW, IDIOTS"

अल्लामा इक़बाल के शब्दों में थोड़ी तब्दील करके इसके मायने समझाएं तो :-

न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ दुनिया वालों

तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में


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English summary
The temperature of earth is goning to increase then the Great Opposition will come
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