'लूटने वाला जाएगा, कमाने वाला खाएगा, नया ज़माना आएगा'
एक मई का दिन. शहरों की गहमागहमी से दूर. बिहार के एक गाँव में अलग-अलग ज़िलों से आए सैकड़ों लोग इकट्ठा हैं. ज़्यादा लोगों की उम्र 50 पार है. कई के कमर झुक चुके हैं. पुरुषों से ज़्यादा महिलाएँ हैं.
नींद और आराम की फि़क्र किए बिना आठ घंटे के कार्यक्रम के लिए उन्होंने 36 से 48 घंटे तक का सफ़र तय किया है. सफ़र का बड़ा हिस्सा उन्होंने पैदल तय किया है.
एक मई का दिन. शहरों की गहमागहमी से दूर. बिहार के एक गाँव में अलग-अलग ज़िलों से आए सैकड़ों लोग इकट्ठा हैं. ज़्यादा लोगों की उम्र 50 पार है. कई के कमर झुक चुके हैं. पुरुषों से ज़्यादा महिलाएँ हैं.
नींद और आराम की फि़क्र किए बिना आठ घंटे के कार्यक्रम के लिए उन्होंने 36 से 48 घंटे तक का सफ़र तय किया है. सफ़र का बड़ा हिस्सा उन्होंने पैदल तय किया है. पैसेंजर ट्रेनों में ठूँस कर आए हैं.
उनके लिए कुछ भी ऐसा इंतजाम नहीं है, जिसे ख़ास कहा जाए. चापाकल का पानी है. खाने को सादी, बिल्कुल सादी खिचड़ी है. सफ़र में भी वे अपनी गठरी-मोटरी में रखे लइया-चना के भरोसे ही हैं. यहाँ मैदान में बैठने को दरी है. धूप से बचने के लिए ऊपर चाँदनी जरूर लगी है. सबने शादी-न्योता में पहनने के लिए सालों से सँजोये रंग-बिरंगे कपड़े पहने हैं.
यहाँ वे किसी सरकारी योजना के फ़ायदे के वास्ते नहीं आए हैं. वे तो मेले में आए हैं. जी, यह उनका मेला है. मज़दूर मेला. वे एक यूनियन- जन जागरण शक्ति संगठन (जेजेएसएस) से जुड़े मेहनतकश हैं.
जेजेएसएस के सदस्य पिछले नौ सालों से एक मई को ऐसे ही मजदूर मेला कर रहे हैं. एक मई यानी पूरी दुनिया में मेहनतकशों का दिन. वे इस मेले के ज़रिए दुनिया भर के मेहनतकशों के हमराही बन रहे हैं. ये सभी दो जून की रोटी के लिए हर रोज हाड़-मांस गलाने वाले लोग हैं.
उनके हाथ का खुरदुरापन, रेखा ही रेखा, उँगलियों से ग़ायब धारियाँ, माथे पर पड़ने वाले बल, आँखों के किनारे बढ़ती झुर्रियाँ हीं उनके मेहनतकश होने का सर्टिफिकेट देती हैं.
वे मज़दूर दिवस मनाने की वजह जान रहे हैं. वे अपनी बात बता रहे हैं. इनका साथ देने के लिए गाने-बजाने-नाटक करने वाले नौजवान भी दूर से आए हैं. वे ज़िंदगी के गीत गा रहे हैं. नाटक के जरिए समाज की तस्वीर पेश कर रहे हैं.
हवा में तनी मुट्ठियाँ
वे देखने में बलशाली लोग नहीं हैं. मगर जब नारे लगाते हैं तो उनकी मुट्ठी तने हाथ हवा में समुद्री लहरों की तरह तैर जाती हैं. बात करते वक़्त उनकी आवाज़ सुनने के लिए कई बार काफ़ी ध्यान लगाना पड़ता है लेकिन जब उनकी आवाज़, बाकियों की आवाज़ से मिलती है तो चारों दिशाएँ गूँजने लगती हैं. यही उनकी ताक़त है. यही उन्हें ताक़त देती है.
ई सब बदलेगा
वे माइक थामे, सर उठाए नज़रों से नज़रें मिलाते हुए बताती हैं कि पहले बोल नहीं पाती थीं. बड़ा लोग हमको जानवर की तरह मानता था. छूत मानता था. ज़मींदार ज़ुल्म करता था. हम तो इसे अपनी तक़दीर मानकर सहती रहती थीं. हमने अपने माँ-बाप को भी ऐसा ही देखा था. मगर अब संगठित हैं. अपने हक़ के लिए लड़ रहे हैं. ई सब बदलेगा, हमको ई समझ में आ गया है.
इज़्ज़त से सर उठाकर चलते हैं
बात करते-करते एक मज़दूर की आवाज़़ भर्रा जाती है. वे कहते हैं तो कहते ही चले जाते हैं. मानो सदियों से उन्हें किसी ने सुना ही न हो. हम लोग पढ़े-लिखे नहीं हैं. हम सब सहना ही सीखे थे. इज़्ज़त क्या होता है, हम नहीं जानते थे. आज हम सब इकट्ठा हुए हैं. ख़ूब संघर्ष किए तो अब हमारी आवाज़ सुनाई देती है. अब हम हर रोज़ डर-डर के नहीं जीते हैं. हम भी बाज़ार में इज़्ज़त से सर उठाकर चलते हैं. का ई कम बड़ा बात है.
जी, ये बातें सन 2018 में हो रही हैं.
लड़ेंगे-जीतेंगे, लड़े हैं-जीते हैं
वे बीच-बीच में नारे लगाते हैं, 'लड़ेंगे-जीतेंगे, लड़े हैं-जीते हैं!' सवाल है, यह यक़ीन उनमें कहाँ से आया कि अपनी आवाज़ उठाने, संघर्ष करने से जीत मुमकिन है? क्या यह यक़ीन उनकी पिछली पीढ़ियों को था? उन्होंने तो यही मानते-मानते अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी थी कि हमारे करम का लेखा ऐसा ही है.
इसीलिए हम ऐसे हैं. हम दलित हैं. गरीब हैं. हम ऐसे ही थे. ऐसे ही रहेंगे. ऐसे ही दुनिया चलती आई है. ऐसे ही दुनिया चलती रहेगी.
मगर लड़ने की ख़्वाहिश पनपी कैसे? और तो और ख़्वाहिश यक़ीन में कैसे बदल गई कि लड़ने से जीता भी जाता है? यह आवाज़ कैसे निकली कि 'हम अपना हक़ चाहते, नहीं किसी से भीख माँगते!' ये कैसे समवेत स्वर में बोल रहे हैं- 'नया ज़माना आएगा, कौन लाएगा- हम लाएँगे, हम लाएँगे!'
यह हौसला इन्हें कहाँ से मिल रहा है कि वे सर उठा कर बोल रहे हैं- 'एकरा से बहुतै नीक दुनिया संभव छै!' और तो और वे यक़ीन से कहते हैं, 'न्याय समानता हो आधार, ऐसा रचेंगे हम संसार!'
उँगलियों का एका की मुट्ठी में बदल जाना
हर थोड़ी-थोड़ी देर बाद, वे दोहराते हैं, 'हम सब- एक हैं!' क्योंकि उन्हें पता चल गया है कि जब तक हम सब अलग-अलग हैं, कोई भी हमें खुली मुट्ठी की उँगलियों की तरह आसानी से तोड़-मरोड़ या दबा सकता है. झुका सकता है. मगर इकट्ठा होना, बँधी हुई मुट्ठी बन जाना है. मुट्ठी ही संगठन है. एका है. इस एका से सामने बड़ी से बड़ी नफ़रती और उत्पीड़न करने वाली ताक़त को झुकना ही पड़ता है, वे यह जान/समझ गए हैं.
मगर फिर वही सवाल, यह सोच आई तो आई कहाँ से?
विचार की सान पर...
जी, एका, संगठन, शोषण-उत्पीड़न के ख़ात्मे, इससे बेहतर दुनिया बनाने का ख़्वाब, इसी दुनिया में बराबरी का समाज बनाने की ख़्वाहिश- कहाँ से पैदा हो गई. ये तो 'क्रांति' की बातें हैं. क्रांति यानी हर तरह की गैर बराबरियों का ख़ात्मा और बराबरी वाले समाज की बुनियाद डालने की बातें. है न?
इनके दिमाग में ये बीज पड़ा तो कैसे पड़ा? इनके ज़हन में इसके अंकुर कैसे जनमे? भगत सिंह ने ही कहा था न ... क्रांति की धार विचारों की सान पर तेज़ होती है. यानी यह विचार है! वह विचार जो पूरी दुनिया के करोड़ों मेहनतकशों के ज़हन में ख़्वाब बन कर पैबस्त है... लेकिन इस ख़्वाब को हक़ीकत में बनाने का ख़्वाब भी तो किसी ने पैदा किया होगा?
ओह... तो वह कौन हैं
शायद कोई है... क्योंकि उससे पहले के दार्शनिक यह बताते थे कि दुनिया ऐसी है, वैसी है... उसने सवाल किया कि दुनिया ऐसी है तो बदलेगी कैसे? इसे बदला कैसे जाए?
200 सौ साल पहले वह इस दुनिया में आया. वह अवतारी पुरुष या पैगम्बर नहीं था. उसने ऐसा कोई दावा नहीं किया. उसने दिमाग़ और इसकी ताक़त पर यक़ीन किया. मेहनतकश लोगों के मेल की ताक़त पर यक़ीन किया. लोगों को ख़ुद अपनी हालत के बारे में सोचने के लिए बढ़ावा दिया. उसने बताया कि दुनिया हमेशा ऐसी ही नहीं थी. दुनिया बदलती रही है. निज़ाम बदलते रहे हैं. ताक़त के तरीके बदलते रहे हैं. उसने सिर्फ़ ज्ञान नहीं बघारा. उसने बदलने का रास्ता सुझाया.
अच्छा... तो यही कार्ल मार्क्स हैं.
दुनिया उन्हें कार्ल मार्क्स के नाम से जानती है. वह दूर जर्मनी में पैदा हुए. मगर चंद बरसों में उन्होंने अपने विचारों की ताक़त से पूरी दुनिया में हलचल पैदा कर दी. उन्होंने समाज के इतिहास को विज्ञान के जरिए समझा.
अपने दोस्त फ्रेडरिक एंगिल्स के साथ हमें समझाने की कोशिश की कि दुनिया के ज़्यादातर लोगों की हालत बदतर क्यों है. उसने बताया कि पैसे वालों की ताक़त, हमारी मेहनत की ताकत का नतीजा है. उसने बताया कि ग़ैरबराबरियाँ, इसी दुनिया में कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए पैदा की हैं. इसलिए गैरबराबरियाँ झेल रहे मेहनतकश अपनी हालत को इसी दुनिया में बदल सकते हैं.
मेहनतकशो, पाने के लिए सारी दुनिया है
यों, उसने नाइंसाफि़यों पर खड़ी मौजूदा दुनिया को बदलने का ख़्याल दिया. मगर इसके लिए उसने ख़ुद कोई चमत्कार करने का भरोसा नहीं दिलाया. उसने तो उनकी ताक़त बताई, जिन्हें सदियों से कमज़ोर बताया या माना गया. इसलिए उसने कहा, सर्वहारा यानी मेहनतकश/ ग़रीब/ दलित के पास खोने के लिए सिर्फ़ तरह-तरह की बेडि़याँ हैं.
पाने के लिए- पाने के लिए तो पूरी दुनिया है. इसीलिए ऐ दुनिया के मेहनतकशो, एक हो. दुनिया बदलेगी. एक नया समाज बनेगा. सर्वहारा ही बनाएँगे. इस विचार को उसने ही यक़ीन में बदलने का काम किया. उन्होंने कभी दावा नहीं किया कि वह अंतिम सत्य कह रहे हैं.
इसलिए पूरी दुनिया में पौने दो सौ सालों से उसके ख़्याल, अनेक नए ख्यालों को जन्म देने की वजह बनें. उसने माना कि बदलाव का विचार विज्ञान है. विज्ञान के सिद्धांत, बदलते भी रहते हैं. इसलिए बदलाव का विचार भी कई सीढि़यों से गुज़रता हुआ बदलता रहता है. बदला है. खैर!
मार्क्स के विचार, आवाज़ मजदूरों की
मुमकिन है, बिहार के उस मज़दूर मेले में आए ज़्यादातर मेहनतकशों ने कार्ल मार्क्स, एंगिल्स, कम्युनिस्ट घोषणापत्र, सर्वहारा, बुर्जुआ, पूंजी, वर्ग संघर्ष जैसे लफ्ज़ न सुने हों. लेकिन जिन्हें विचार की ख़ुश्बू पसंद आ गई हो और जो विचार की सान पर बदलाव की धार तेज़ करने में लगे हैं, वे मुमकिन है, इन्हीं लफ़्ज़ों में बात न करें.
यही नहीं, नेशनल कमिशन फॉर इंटरप्राइजेज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर के एक आंकड़े के मुताबिक इस मुल्क में कुल श्रमिकों में इन जैसे मेहनतकशों का हिस्सा 94 फीसदी है. इसलिए मज़दूर दिवस मनाने वाले यह अकेले संगठित लोग नहीं हैं. इन जैसे सैकड़ों छोटे-बड़े संगठन अपने हक़ की जद्दोजेहद को याद करने और नए संघर्ष के लिए तैयार करने के लिए ऐसे ही जुटते हैं ये सब मार्क्स की आवाज़ हैं. ये मानें या न मानें. हम मानें या न मानें.
नया ज़माना आएगा
जब सारी दुनिया में यह ढिंढोरा पीटा जा रहा है कि लड़ने से बदलने का ज़माना बीत गया. यह भरोसा और लड़ने का जज़्बा ही मार्क्स हैं कि 'लूटने वाला जाएगा, कमाने वाला खाएगा, नया ज़माना आएगा. कौन लाएगा... हम लाएँगे... हम लाएँगे'. इसीलिए कार्ल मार्क्स महज एक शख़्स नहीं रह गए हैं. वह बिजली की तरह चमकता विचार हैं. हम जानें या न जानें! मानें या न मानें!