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यूपी की ये 35 सीटें तय करेंगी 7 लोक कल्याण मार्ग का रास्ता

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नई दिल्ली- दिल्ली में अगली सरकार उसी पार्टी या गठबंधन की बन सकती है, जो पूर्वी यूपी में बेहतर प्रदर्शन करे। यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 35 पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही आती हैं। 2014 में यहां की 35 में से 32 सीटें बीजेपी ने जीत ली थीं। लेकिन, 5 साल में इलाके के हालात बदल गए हैं, राजनीतिक और जातीय समीकरण बदले हैं, यहां की तस्वीर भी बदलनी शुरू हुई है। इन तमाम बदलावों का चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा, ये कयास लगाना बहुत ही मुश्किल है। मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि 2019 में भी जो दल यहां से बाजी मारेगा, दिल्ली की सत्ता हासिल करना उसके लिए उतना ही आसान हो जाएगा।

पूर्वांचल पर बीजेपी का दबदबा

पूर्वांचल पर बीजेपी का दबदबा

2014 में पूर्वी यूपी की 35 में से जिन 32 सीटों पर बीजेपी ने कब्जा किया था, उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाराणसी और यूपी के मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तब की संसदीय सीट गोरखपुर भी शामिल थी। जबकि, दो सीटें बीजेपी की सहयोगी दल ने और सिर्फ आजमगढ़ समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव जीते थे। दरअसल, उस चुनाव में मोदी लहर की मदद से भाजपा ने समाजवादी पार्टी से गैर-यादव वोट और बीएसपी से गैर-जाटव वोटों को अपने पक्ष में करने में कामयाबी पा ली थी। पूर्वांचल में पार्टी का ये उत्थान अचानक नहीं हुआ था। दरअसल 1980 के दशक में कांग्रेस के पतन के साथ ही बीजेपी ने यहां अपना दायरा बढ़ाना शुरू कर दिया था। बीजेपी को आगे बढ़ाने में यहां के तीन धार्मिक शहरों ने भी खूब मदद की थी। जिसमें अयोध्या और राम जन्मभूमि आंदोलन ने तो देश में उसे सिर्फ 2 सीटों से 188 सीटों तक पहुंचा दिया था। इसके अलावा गोरखपुर (गोरक्षनाथ मंदिर) एवं वाराणसी (काशी विश्‍वनाथ मंदिर) ने भी बीजेपी को आगे बढ़ने में काफी मदद की थी। पार्टी ने इसी बने-बनाए जनाधार को 2014 में जबर्दस्त तरीके से वोटों में तब्दील कर लिया।

गोरखपुर उप चुनाव ने भगवा रंग फीका किया

गोरखपुर उप चुनाव ने भगवा रंग फीका किया

2014 के बाद 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव ने बीजेपी विरोधी पार्टियों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया। इसी मजबूरी के कारण उन्हें उस गठबंधन की सोच की ओर वापस लौटना पड़ा, जो 1995 में टूट चुका था। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने गोरखपुर उप चुनाव की जिम्मेदारी ली और छोटे दलों से तालमेल की नीति पर आगे बढ़े। उन्होंने निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल (निषाद) से गठबंधन किया। इस पार्टी पर मूल रूप से मल्लाह जाति का प्रभुत्व है, जो गोरखपुर, भदोई और आसपास के इलाकों में ठीक-ठीक संख्या में हैं। समाजवादी पार्टी ने गोरखपुर में निषाद पार्टी के ही प्रवीण निषाद को उतारा और वो जीत भी गए। वैसे बीजेपी के खिलाफ इस तरह का समीकरण कोई नया प्रयोग नहीं था। 1993 में जब बीएसपी-एसपी का तालमेल हुआ था तभी से बीजेपी का इलाके में ग्राफ गिरना शुरू हुआ था।

पूर्वी यूपी की अहमियत को समझते हुए अखिलेश यादव ने इस बार खुद के लिए पिता की आजमगढ़ की सीट चुनी है। यादव-मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र से पिछली बार मुलायम 60 हजार मतों के अंतर से जीते थे। बीजेपी को पता है कि अखिलेश के रहते हुए आजमगढ़ फतह करना आसान नहीं है, इसलिए चर्चा है कि यहां से वो निरहुआ को उतारकर बाजी पलटने की कोशिश कर सकती है। उसे लगता है कि भोजपारी स्टार दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ के स्टार पावर के दम पर वो यहां भी कमल खिला सकती है। क्योंकि, वे यादव भी हैं, उनकी लोकप्रियता भी है और पास के गाजीपुर के रहने वाले भी हैं।

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अबकी बार विकास करेगा बेड़ा पार!

अबकी बार विकास करेगा बेड़ा पार!

बीजेपी को पूर्वी यूपी में बदली हुई सियासी जमीन का पूरा अंदाजा है। लेकिन, उसे यकीन है कि योगी और मोदी के काम के सहारे वो सारे जातीय चक्रव्यूह को तोड़ सकती है। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक अकेले वाराणसी में विकास कार्यों पर मोदी ने 5 साल में 2 लाख करोड़ रुपये लगाए हैं। सीएम योगी भी गोरखपुर में मोदी के मोड पर ही चल रहे हैं। उनके कार्यकाल में राज्य सरकार का ध्यान इस इलाके की ओर गया भी है, लेकिन दिखाई देने लायक काम होने में अभी वक्त लग सकता है।

कांग्रेस भी इस बार पूर्वी यूपी से ही कोई नया गुल खिलने की उम्मीद कर रही है। इलाके की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा प्रयागराज से काशी तक गंगा के जरिए बोट यात्रा कर चुकी हैं और अयोध्या पहुंचकर पार्टी की सियासी जमीन तलाशने की कोशिशों में भी लगी हैं। वैसे यह देखना भी दिलचस्प होगा कि अगर कांग्रेस ने अपना प्रदर्शन थोड़ा बेहतर किया, तो उसका ज्यादा खामियाजा किसको उठाना पड़ेगा? क्योंकि एसपी-बीएसपी और बीजेपी दोनों को ही इससे नुकसान पहुंचने का डर है।

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English summary
The road to 7 Lok Kalyan marg will be decided by these 35 seats in UP
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