दक्षिण की झांसी की रानी जिसे इतिहास ने भुला दिया
केरल की महिला क्रांतिकारी अक्कम्मा चेरियन को इतिहास ने वो जगह नहीं दी जिसकी वो हक़दार थीं.
दक्षिणी भारतीय राज्य केरल की स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अक्कम्मा चेरियन को 1938 के एक प्रदर्शन के नेतृत्व के दौरान उनकी बहादुरी के लिए याद किया जाता है.
इतिहासकार इस रैली को त्रावणकोर (अब केरल) प्रांत में आज़ादी के संघर्ष के अहम पड़ाव मानते हैं.
चेरियन उन क्रांतिकारियों में शामिल हैं जिनका नाम समय के साथ गुम होता गया और अब उन्हें अपने राज्य के बाहर कम ही लोग जानते हैं.
दिल्ली में रहने वाले समाज विज्ञानी कनडाथिल सेबेस्टियन ने बीते साल लिखा था, "आज़ादी से पहले के दौर में त्रावणकोर में वो लोगों के आंदोलन का प्रमुख चेहरा थीं. पंद्रह सालों से अधिक समय तक वो त्रावणकोर की राजनीति की सबसे सशक्त महिला बनी रहीं."
1938 में महात्मा गांधी से प्रभावित होकर चेरियन ने अपनी नौकरी छोड़ दी थी और वो त्रावणकोर महिला कांग्रेस (महात्मा गांधी की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रांतीय इकाई ) में शामिल होकर आज़ादी के संघर्ष का हिस्सा बन गईं थीं.
अपनी जीवनी जीविथमः ओरू समारण (ज़िंदगीः एक संघर्ष) के परिचय में चेरियन ने लिखा है, "शेक्सपियर ने लिखा है कि जीवन एक रंगमंच है और सभी पुरुष और महिलाएं सिर्फ़ कलाकार हैं लेकिन मेरे लिए जीवन एक प्रतिरोध है."
वो लिखती हैं, "ये प्रतिरोध रूढ़िवादिता, अर्थहीन कर्मकांड, सामाजिक अन्याय, बेईमानी, लैंगिक असामानता और हर उस चीज़ के ख़िलाफ़ है जो अन्यायपूर्ण है."
"जब मैं ऐसा कुछ भी देखती हूं, मैं अंधी हो जाती हूं, मैं भूल जाती हूं कि मैं किसके ख़िलाफ़ लड़ रही हूं."
चेरियन तब सिर्फ़ 29 साल की थीं और उन्हें त्रावणकोर महिला कांग्रेस का हिस्सा बने कुछ ही महीने हुए थे, जब ब्रितानी सरकार ने इस संगठन को अवैध घोषित कर दिया था.
तानाशाही के ख़िलाफ़ बुलंद झंडा
पार्टी के कई नेताओं के जेल जाने के बाद इसके 11वें अध्यक्ष कुट्टानाड रामाकृष्णा पिल्लई ने अपनी गिरफ़्तारी से पहले चेरियन के हाथों में पार्टी की कमान सौंप दी थी.
अपनी आत्मकथा में चेरियन ने लिखा है, "मैं इस काम की गंभीरता और इसके परिणामों को समझती थी और बावजूद इसके मैं इस काम को करने के लिए आगे आई."
उनके नेतृत्व में एक बड़ी रैली के आयोजन के लिए लोगों को एकजुट किया गया.
23 अक्तूबर 1938 को दसियों हज़ार लोग त्रवणकोर के शाही महल के बाहर इकट्ठा हुए. चेरियन और अन्य नेता उनका नेतृत्व कर रहे थे. ये रैली त्रावणकोर के राजा के जन्मदिन समारोह को खलल डालने और पार्टी पर प्रतिबंध को हटाने की मांग करने के लिए आयोजित की गई थी.
केरल के चर्चित लेखक ईएम कोवूर ने चेरियन का ब्योरा देते हुए लिखा है, "वो एक खुली जीप में खड़ी थीं, खादी पहनी हुई थी और गांधी टोपी ओढ़ी थी. वो देवी दुर्गा की तरह अपने पैरों से बुराई और अन्याय को कुचलती नज़र आ रहीं थीं. हवा में उनके काल बाल ऐसे लहर रहे थे जैसे तानाशाही के ख़िलाफ़ कोई झंडा बुलंद हो रहा हो."
शाही महल के बाहर तैनात पुलिस के चीफ़ ने जब प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया तो चेरियन ने ललकारते हुए कहा, "मैं इन सबकी नेता हूं, पहली गोली मुझ पर चलाओ."
कहा जाता है कि चेरियन की इस ललकार के बाद पुलिस चीफ़ ने अपना आदेश वापस ले लिया. ये प्रदर्शन तब तक चला जब तक सरकार गिरफ़्तार किए गए नेताओं को रिहा करने पर राज़ी नहीं हो गई.
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त्रावणकोर की झांसी की रानी
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नेता महात्मा गांधी को इस घटना के बारे में बाद में पता चला और उन्होंने चेरियन को 'त्रावणकोर की झांसी की रानी' कहकर संबोधित किया.
झांसी की रानी ने 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था और वो स्वतंत्रता संग्राम की नायिका बनकर उभरी थीं.
उसी साल कांग्रेस के निर्देश पर चेरियन ने देसासेविका संघ की स्थापना की थी. ये महिलाओं का एक स्वयंसेवी संगठन था. चेरियन ने समूचे प्रांत की यात्रा की और महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया.
इस समय तक चेरियन की बहन रोसम्मा पुन्नोसा और भाई केसी वार्के भी स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए थे.
1939 में प्रांतीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन में शामिल होने के लिए चेरियन और उनकी बहन समेत कई नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था.
अगले सालों में सरकारी आदेशों के उल्लंघन और प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए चेरियन को कई बार गिरफ़्तार किया गया.
1942 में वो प्रांतीय कांग्रेस की कार्यवाहक अध्यक्ष बन गईं थीं. अगस्त 1942 में जब कांग्रेस ने मुंबई में भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया तो चेरियन ने उसे अनुमोदित किया. अध्यक्ष के तौर पर ये उनके पहले कामों में से एक था.
पहली महिलावादी पीढ़ी की प्रतिनिधि
भारत छोड़ो आंदोलन के तहत अंग्रेज़ी शासन से पूर्ण मुक्ति की मांग की गई थी और इससे देश भर में ब्रितानी सरकार के ख़िलाफ़ व्यापक अहिंसक आंदोलन शुरू हुआ था.
आज़ादी के बाद चेरियन ने सक्रिय राजनीति की राह अपनाई. त्रावणकोर राज्य में जब 1947 में पहले चुनाव हुए तो वो विधानसभा के लिए चुनी गईं.
लेकिन 1950 के दशक में जब उन्हें लोकसभा के लिए टिकट नहीं दिया गया तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी.
उस समय प्रांतीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष ने कहा था कि महिलाएं घर की रानी होती हैं और राजनीति उनका क्षेत्र नहीं है.
अपनी आत्मकथा में चेरियन ने लिखा है कि आज़ादी के संघर्ष में हिस्सा लेने वाली उन जैसी महिलाओं को बाद में राजनीति में दरकिनार कर दिया गया . उन्हें कोई अहम पद नहीं दिए गए.
चेरियन ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और कांग्रेस के सदस्य वीवी वार्के मण्णमप्लक्ल से शादी की.
लेखक पॉल जकारिया ने 2007 में लिखा था, "मैं उनके घर में उनसे मिलने गया. वो एक छोटे से घर में रहते थे जिसमें फर्नीचर से ज़्यादा किताबें थीं. मुझे उनके विनीत भाव और बुद्धिमत्ता याद है. ये स्पष्ट था कि उन्होंने राजनीति क्यों छोड़ दी थी. "
इतिहासकार जे देविका ने चेरियन को प्रांत की पहली महिलावादी पीढ़ी का प्रतिनिधि बताया है.
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चेरियन का साल 1982 में प्रांत की राजधानी तिरुवनंतपुरम में निधन हुआ. शहर में उनके नाम पर निर्मित एक पार्क में उनकी मूर्ति भी है.
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