वो पोलियोग्रस्त किसान जो गुजरात में लाया अनार की बहार
बीबीसी पॉप अप में आम लोगों के सुझाव पर हमने की गेनाभाई पटेल की कहानी.
तेरह साल पहले बनासकांठा में किसी ने अनार की खेती के बारे में सोचा तक नहीं था.
लेकिन आज यह इलाका अनार की खेती के मामले में पूरे गुजरात में नंबर वन है.
यहां चारों ओर अनारों से लदे बाग हैं जिनके ऊपर पक्षी चहचहाते हुए दिखते हैं.
बागों के ऊपर लंबी चमकीली पट्टियां लगाई गई हैं ताकि पक्षी दूर रहें. इसके हीरो हैं 53 साल के पोलियोग्रस्त किसान गेनाभाई पटेल.
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विदेशों में होता है निर्यात
आज बनासकांठा से अनार श्रीलंका, मलेशिया, दुबई और यूएई जैसे देशों में निर्यात होता है.
पिछले 12 सालों में करीब 35 हज़ार हेक्टेयर में तीन करोड़ अनार के पौधे लगाए जा चुके हैं.
यहां का अनार खरीदने दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे शहरों से खरीदार पहुंचते हैं.
एसडी एग्रिकल्चर यूनिवर्सिटी के डॉक्टर के. ए. ठक्कर बताते हैं, "गेनाभाई ने वैज्ञानिकों की सहायता से न सिर्फ़ खुद अनार की खेती शुरू की, बल्कि आसपास के गांवों में किसानों को ऐसा करने के लिए अनार की खेती की पाठशाला लगाई जिसमें किसान, वैज्ञानिक आपस में बातचीत करते थे."
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किसानों की मदद को हरदम तैयार
अगर कोई किसान खेती में मदद मांगता है तो गेनाभाई खुद अपनी गाड़ी लेकर वहां जाते हैं.
बनासकांठा के 'सरकारी गोड़िया' गांव में मिट्टी से लिपा गेनाभाई का घर अनार के बागों से घिरा हुआ है.
बरामदे में चारों ओर दीवारों पर अलग-अलग समारोहों में ली हुई तस्वीरें लगी हैं.
बांस के सहारे टिके हुए पेड़ों पर हर साइज़ के अनार लटके थे जिन्हें ओस की बूंदों से बचाने के लिए कपड़े से लपेटा गया था.
ओस अनार को काला कर देती है.
देसी घी में डूबी बाजरे की रोटी, आलू की सब्ज़ी, कढ़ी और शीरे के भोजन के दौरान ही उन्होंने अपनी कहानी बतानी शुरू की.
बचपन में उन्हें उनके भाई कंधे पर बिठाकर स्कूल छोड़ने और वापस लेने जाते थे.
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12वीं के बाद संभाला ट्रैक्टर
मां-बाप चाहते थे कि वो अच्छी पढ़ाई करें क्योंकि उन्हें लगा कि वो बीमारी के कारण खेत में काम नहीं कर पाएंगे.
स्कूल में 12वीं तक पढ़ाई हुई, लेकिन आगे की पढ़ाई कहां और कैसे की जाए, इसके बारे में पता नहीं था.
एक दिन भाई को ट्रैक्टर चलाता देख उन्होंने भी ट्रैक्टर चलाना सीखने की सोची.
हाथ से इस्तेमाल के लिए क्लच का हैंडल बनवाया गया और ट्रैक्टर से जुड़ा काम वो देखने लगे.
वो कहते हैं, "मैं हमेशा सकारात्मक सोच रखता हूं. ऐसा नहीं हो सकता, मैं ये सोचता भी नहीं हूं. मुझसे ऐसा नहीं हो सकता, मैंने ये कभी नहीं माना. जो लोग भी काम करते थे, उन्हें मैं देखता रहता था कि क्या मैं ये काम कर सकता हूं या नहीं."
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स्थानीय बाज़ार में नहीं मिला भाव
लेकिन परंपरागत खेती से घर का खर्च निकालना मुश्किल था. वो कुछ नया करना चाहते थे.
साल 2004 में गेनाभाई महाराष्ट्र से अनार के पौधे लेकर आए.
वो बताते हैं, "मैं ऐसी फ़सल चाहता था जिसे लगाने के चार, छह, या आठ महीने बाद ही फल मिलने लगे जिससे सालों तक आय आती रहे."
आलू, गेहूं उगाने वाले आसपास के किसानों ने सोचा कि गेनाभाई बावले हो गए हैं. वो उन्हें डराते कि वो अनार पर दांव लगाकर भारी ग़लती कर रहे हैं.
आख़िरकार अनार की फसल हुई. अब उन्हें बेचना चुनौती थी. आसपास के बाज़ारों में लोग कौड़ियों में भाव लगा रहे थे.
जब एक स्थानीय कंपनी अनार खरीदने पहुंची और अनार को 42 रुपये प्रति किलो की दर से खरीदने को तैयार हुई तब गेनाभाई के चेहरे पर मुस्कुराहट आई जिससे उन्हें लाखों का मुनाफ़ा हुआ.
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ड्रिप इरिगेशन की मदद
खरीदारों से बेहतर दाम की तलाश में गेनाभाई ने अपने भतीजे की मदद से इंटरनेट का सहारा लिया और जल्द ही उनके दरवाज़े के बाहर अनार खरीदारों की लाइन लग गई.
साल 2010 तक उनके 80 टन अनार 55 रुपये प्रति किलो में बिक रहे थे जिससे उनकी 40 लाख रुपये से ज़्यादा बिक्री हुई.
आसपास के किसानों ने भी उत्सुकता दिखाई. आज यहां चारों ओर अनार के खेत दिखते हैं.
ड्रिप इरिगेशन की मदद से खेती करने से फसल को भी फायदा हुआ.
अपनी कार खुद चलाने वाले गेनाभाई जहां भी जाते हैं, लोग इज्ज़त से उन्हें 'राम-राम' कहते हैं.
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इस साल 26 जनवरी तड़के गेनाभाई के मोबाइल की घंटी बजी.
फ़ोन के दूसरी ओर से किसी ने सभ्य भाषा में उनका नाम पूछा, फिर उन्हें पद्मश्री के लिए मुबारक़बाद दी.
गेनाभाई को लगा किसी ने मज़ाक किया है, लेकिन जब पत्रकारों के फ़ोन आने लगे तो खुशी का ठिकाना न रहा.
घर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर लगाने वाले गेनाभाई कहते हैं कि वो जल्दी ही प्रधानमंत्री को चिट्टी लिखेंगे कि वाघा बॉर्डर की तरह ही यहां से 100 किलोमीटर दूर पाकिस्तान बॉर्डर पर भी एक गेट बने ताकि व्यापार में बढ़ोत्तरी हो.
(बीबीसी पॉप-अप में हमनें लोगों से पूछा कि था कि वो हमें सुझाव भेजें कि बीबीसी क्या कहानी करे. ये कहानी आए सुझाव पर आधारित है.)