बेहद सख्त मिज़ाज हैं भारत के अगले मुख्य न्यायधीश!
बेंगलुरु। भारत के अगले मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मौजूदा चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया रंजन गोगोई ने इसको लेकर केंद्र सरकार को पत्र लिखकर अगले सीजेआई के नाम की सिफारिश की है। दरअसल मौजूदा चीफ जस्टिस के द्वारा अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करने की परंपरा है। सीजेआई रंजन गोगोई ने शरद अरविंद बोबडे को देश का अगला चीफ जस्टिस बनाने का प्रस्ताव किया है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे देश के अगले मुख्य न्यायाधीश होंगे। 17 नवंबर को वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई रिटायर हो रहे हैं और 18 नवंबर को जस्टिस बोबडे शपथ ग्रहण करेंगे। जस्टिस बोबडे न्याय में मध्यस्थता के केवल बड़े पैरोकार हीं नहीं हैं साथ ही मिज़ाज के बहुत सख्त हैं। उनके मिजाज को प्रतिबिंबित करता है वह फैसला जब उन्होंने एक मेडिकल कालेज के अदाल में झूठ बोलने पर 2 करोड़ रुपये का जुर्माना ठोंका था। जानिए उनके द्वारा किए गए ऐसे ही बड़े कड़े फैसले जो एक नज़ीर बन गए।
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धोखाधड़ी करने वाले मेडिकल कॉलेज पर 2 करोड़ का जुर्माना ठोंका था
बोबडे की बेंच ने महावीर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेजमेडिकल कॉलेज पर 2 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था और उसकी याचिका भी खारिज कर दी थी। इस कॉलेज ने यह दिखाने के लिए कि वह न्यूनतम मानदंड का पालन कर रहा है, जांच के समय धोखाधड़ी की और स्वस्थ व्यक्ति को रोगी बताकर अपने अस्पताल में पेश किया। बता दें महावीर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज ने केंद्र सरकार के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। केंद्र सरकार ने मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के उस सुझाव को स्वीकार कर लिया था जिसमें उसने कहा था कि इस कॉलेज को 2018-19 अकादमिक सत्र से 150 छात्रों की सीट वाले एमबीबीएस कोर्स में बच्चों का प्रवेश लेने की अनुमति नहीं है।
कोर्ट ने कहा कि उसे रिपोर्ट में यह पढ़ने को मिला कि कॉलेज का मौके पर जाकर निरीक्षण करने के दौरान मौजूद रोगियों की संख्या के बारे में जो बताया गया था वह सही नहीं थी। कोर्ट ने कहा निरीक्षणकर्ताओं ने पाया कि अस्पताल में मौजूद मरीजों के संख्या सही नहीं थी। इन लोगों का कहना था कि मामूली मर्ज वाले लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। कुछ लोगों को मरीज बताकर पेश किया गया था पर उनकी स्थिति ऐसी नहीं थी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत थी। याचिकाकर्ता ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे नए अकादमिक सत्र में छात्रों का प्रवेश लेने के लिए अनुमति चाहिए थी और वह यह दिखाना चाहता था कि वह न्यूनतम मानदंड का पालन कर रहा है। याचिकाकर्ता आँखों में धूल झोंकने का दोषी है। उन्होंने कॉलेज पर दो करोड़ का जुर्माना लगाने की सजा सुनाई।
26-सप्ताह के भ्रूण को जीवित रहने का अधिकार है
सुप्रीम कोर्ट के राम जन्म भूमि विवाद के जुड़े मामले में भी वो सुप्रीम कोर्ट के स्पेशल बेंच में शामिल जस्टिस बोबडे मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं। वर्तमान में वे सुप्रीम कोर्ट में जज होने के साथ ही महाराष्ट्र नेशनल लॉ यूनिवर्टी के चांसलर भी हैं। उन्होंने अपने एक फैसले में डाउन सिंड्रोम से पीड़ित अपने भ्रूण को समाप्त करने के लिए एक महिला द्वारा दायर की गई याचिका खारिज कर दी थी। जिसमें कहा गया था कि है। 26 हफ्तों की गर्भवती महिला को जब ये पता चला कि उसके गर्भ में एक डाउन सिंड्रोम बच्चा है, तो उसने सुप्रीम कोर्ट से गर्भपात कराने की इजाजत मांगी। क्योंकि 20 हफ्ते होने के बाद गर्भपात कराना मान्य नहीं है।
न्यायाधीश एस ए बोबडे और न्यायाधीश एल नागेश्वर राव की बैंच का कहना था कि 'हर कोई जानता है कि डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे निसंदेह रूप से कम बुद्धिमान होता है, लेकिन वे ठीक होते हैं। कोर्ट का कहना था कि 'ये दुख की बात है कि बच्चे में मानसिक और शारीरिक चुनौतियां हो सकती हैं और ये मां के लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण भी है, लेकिन हम गर्भपात की अनुमति नहीं देते...हमारे हाथों में एक जिंदगी है। हालांकि इस बेंच ने बाद में मौखिक रूप से ये भी कहा कि 'एक मां के लिए एक मानसिक रूप से अक्षम बच्चे को बड़ा करना बहुत दुख की बात है'। बोडले के इस फैसले पर बात उठी थी कि ऐसे संवेदनशील मामलों में कोर्ट को ये फैसला उन मां-बाप पर ही छोड़ देना चाहिए कि वो ऐसे बच्चों को इस दुनिया में लाना चाहते हैं या नहीं। क्योंकि मां-बाप से बेहतर कोई नहीं जानता कि वो उस बच्चे के जीवन को एक सुखद कल दे पाएंगे या नहीं। बता दें डाउन सिंड्रोम एक ऐसा अनुवांशिक विकार है जो कि बौद्धिक और शारीरिक क्षमता प्रभावित करता है। डाउन सिंड्रोम लोगों में मानसिक विकास और शारीरिक विकास धीमी गति से होता है। ज्यादातर बच्चों में दिल की बीमारी होती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत कम होती है।
आधार कार्ड के बिना नागरिक को सरकारी फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता
जस्टिस शरद उस बेंच का हिस्सा थे, जिसने आदेश दिया कि आधार कार्ड न रखने वाले किसी भी भारतीय नागरिक को सरकारी फायदों से वंचित नहीं किया जा सकता। उनकी बेंच ने आदेश दिया था कि आधार कार्ड न होने के आधार पर किसी भारतीय नागरिक को मूल सेवाओं और सरकारी सब्सिडी से वंचित नहीं हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त, 2015 को आदेश सरकार को निर्देश दिया कि आधार अधिनियम की धारा 7 के अनुसार अगर किसी व्यक्ति को आधार नंबर नहीं मिला है, तो वह सब्सिडी के लिए वैकल्पिक दस्तावेज दे सकता है। सरकार को निर्देश दिए थे कि राशन, मिट्टी का तेल और एलपीजी सब्सिडी के अलावा किसी अन्य उद्देश्य के लिए आधार कार्ड का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। हालांकि, इस सूची में बाद में मनरेगा, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, पेंशन, जन धन योजना और ईपीएफओ को भी शामिल किया गया। जिसके बाद सरकार ने इस आदेश के आधार पर कहा था कि सरकारी योजनाओं के लाभ के लिए आधार कार्ड की जरूरत नहीं है। पहचान पत्र के तौर पर कोई अन्य दस्तावेज दिखाकर भी सरकारी सब्सिडी और सेवाओं का लाभ लिया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इसी आदेश के बाद सरकार ने कहा था कि कोर्ट का अंतिम फैसला न आने तक आधार कार्ड पूरी तरह स्वैच्छिक है और इसे अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता।
पटाखों की बिक्री और स्टॉकिंग पर प्रतिबंध
जस्टिस बोबडे, पूर्व मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर और न्यायमूर्ति ए के सीकरी के साथ सभी प्रकार के पटाखों की बिक्री और स्टॉकिंग पर प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया था, साथ ही इसके लिए नए लाइसेंस जारी करने में भी रोक लगाई थी। जस्टिस बोबडे ने कहा था अन्य देश जहां पटाखों पर रोक है, वहां से उलट भारत में इनका खास स्थान हैं। पटाखों से जुड़े प्रदूषण के लिए अन्य विकल्प खोजे जाने चाहिए। उन्होंने कहा था कि "हम बेरोजगारी नहीं पैदा करना चाहते हैं। क्या इस तरह का कोई तुलनात्मक अध्ययन है जो दिखाता है कि किस अनुपात में पटाखों से प्रदूषण होता है। वहीं, इसके मुकाबले आटोमोबाइल का इसमें कितना योगदान है। इस फैसले के बाद पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर सरकार सख्त हुई और जिसका सकारात्मक असर ये हुआ कि पटाखों से होने वाले प्रदूषण में काफी कमी आयी।
मुकदमे से पहले मध्यस्थता की जरूरत पर जोर
जस्टिस बोबडे को मुकदमे से पहले मध्यस्थता की जरूरत पर जोर देने के लिए जाने जाते हैं। उनका मानना है कि लोगों को जल्द से जल्द न्याय मिले इसके लिए मध्यस्थता को कानूनी सहयता प्रणाली की तरह इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 17वीं अखिल भारतीय मीट ऑफ स्टेट लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज के एक उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए जस्टिस बोबडे ने कहा कि 2017 से मार्च 2018 के बीच मध्यस्थता के माध्यम से 1,07,587 मामलों का निपटारा किया गया। केवल गुजरात में बहज एक दिन में 24 हजार मुकदमों का निपटारा किया गया है। इसके अलावा जस्टिस बोबडे में देश में कानून की पढ़ाई में मध्यस्थता में डिग्री, डिप्लोमा जैसे पाठ्यक्रम को शामिल किए जाने पर जोर दिया है।
वकालत से रहा है पारिवारिक नाता
गौरतलब है कि देश के होने वाले अगले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शरद अरविंद बोबडे महाराष्ट्र में नागपुर के प्रसिद्ध वकील अरविंद बोबडे के बेटे हैं। उनके पिता अरविंद बोबेड़े 1980 और 1985 में महाराष्ट्र एडवोकेट-जनरल रह चुके हैं। जस्टिस बोबड़े का जन्म 24 अप्रैल 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर में हुआ था। उनके परिवार का वकालत के पेशे से नाता रहा है। उनके दादा भी वकील थे। वहीं उनके बड़े भाई दिवंगत विनोद अरविंद बोबड़े भी सुप्रीम कोर्ट में वकील थे। बता दें कि सीजेआई रंजन गोगोई के बाद जस्टिस बोबड़े ही सुप्रीम कोर्ट में सबसे वरिष्ठ वकील हैं। शरद अरविंद बोबड़े ने स्नातक एसएफएस कॉलेज नागुपर से किया है, वहीं लॉ की पढ़ाई उन्होंने 1978 में नागपुर यूनिवर्सिटी से की। यूनिवर्सिटी की टीम में टेनिस खेलते रहे हैं। जस्टिस बोबडे ने अपने करियर की शुरूआत 1978 में की। उन्होंने 21 वर्षों तक बॉम्बे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस की। उन्हें 1998 में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में सम्मानित किया गया था।
13 सितंबर 1978 को उन्होंने महाराष्ट्र बार काउंसिल का सदस्य बनाया गया और बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच से उन्होंने वकालत शुरू की। 1998 में शरद अरविंद बोबडे सीनियर एडवोकेट बने। इसके बाद 29 मार्च 2000 में वह बॉम्बे हाईकोर्ट की खंड पीठ के सदस्य बनाए गए। बाद में 16 अक्टूबर 2012 को शरद अरविंद बोबड़े को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त किया गया है। वहीं अगले साल 12 अप्रैल 2013 को जस्टिस बोबड़े को सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। जस्टिस बोबड़े अयोध्या राम जन्मभूमि मामले में सुनवाई करने वाली संविधान पीठ में शामिल दूसरे जज भी हैं। सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश पद पर जस्टिस बोबड़े का कार्यकाल 23 अप्रैल 2021 को समाप्त होगा। इसके अलावा भी जस्टिस बोबड़े कई यूनिवर्सिटी में चांसलर के पद को भी संभाल चुके हैं, जिनमें महाराष्ट्र नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, मुंबई और महाराष्ट्र लॉ यूनिवर्सिटी नागपुर शामिल है।
कैसे चुने जाते हैं भारत के मुख्य न्यायाधीश?
ये जानना दिलचस्प है कि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की नियुक्ति के लिए कोई तय प्रक्रिया नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 124(1) में सिर्फ ये लिखा है कि एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया होगा, जिसके चीफ जस्टिस होंगे। लेकिन उनकी नियुक्ति कैसे होगी, इसको लेकर कोई खास प्रक्रिया नहीं बताई गई है। इस बारे में थोड़ी बहुत जानकारी संविधान के अनुच्छेद 126 से मिलती है। अनुच्छेद 126 में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति को लेकर कुछ दिशा निर्देश दिए गए हैं। किसी तय प्रक्रिया के नहीं होने की वजह से ज्यादातर मामलों में परंपरा का निर्वहन होता है, जो पहले से चली आ रही है।
चीफ जस्टिस की नियुक्ति इसी परंपरा से होती आई है। सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के मुताबिक जब कोई चीफ जस्टिस रिटायर होते हैं, तो उनकी जगह उस वक्त के सबसे सीनियर जज को मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी सौंपी जाती है। सुप्रीम कोर्ट में जजों की रिटायरमेंट की उम्र 65 साल है। हालांकि सीनियरिटी का फैसला उम्र के आधार पर नहीं होता है। सीनियरिटी इस बात से तय होती है कि अमुक न्यायाधीश के पास सुप्रीम कोर्ट के जज के बतौर कितने वर्षों का अनुभव है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के चुनाव में सरकार का बस इतना रोल है कि कानून मंत्रालय चीफ जस्टिस से नए मुख्य न्यायाधीश का नाम मांगता है और उस नाम को प्रधानमंत्री को आगे बढ़ाता हैं। इसके अलावा इसमें सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होता है। सरकार नए चीफ जस्टिस के तौर पर दिए गए नाम को वापस नहीं लौटा सकती है। यहीं पर मुख्य न्यायाधीश और बाकी न्यायाधीशों की नियुक्ति में अंतर होता है। सुप्रीम कोर्ट के बाकी न्यायाधीशों की नियुक्ति में सरकार नाम को वापस लौटा सकती है। लेकिन इसमें भी अगर कॉलेजियम उस नाम की सरकार से दोबारा सिफारिश करे तो उसे मानना सरकार की मजबूरी होगी। एक बार के बाद सरकार किसी नाम पर आपत्ति नहीं जता सकती।