दलित-आदिवासी के जिस मुद्दे को TMC ने लेफ्ट के खिलाफ भुनाया, क्या वही पड़ रहा है भारी ?
कोलकाता: पश्चिम बंगाल में चुनाव जैसे-जैसे करीब आते जा रहे हैं, भाजपा और टीएमसी दोनों ओर से दलितों और आदिवासियों को उनकी पहचान, उनकी जाति, उनका धर्म, उनकी जमीन से जुड़े मुद्दों को लेकर दोनों तरफ से गोलबंदी शुरू कर दी गई है। परिवर्तन यात्रा के जरिए बीजेपी ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ एंटी-इंकंबेंसी फैक्टर को तो उभारने की कोशिश में है ही, साथ ही साथ अपने हिंदू वोट बैंक को भी मजबूत करना चाह रही है। वहीं, टीएमसी को भी अब उन जातियों और जनजातियों की चिंता सताने लगी है, जो अब तक खुद को उपेक्षित छोड़े जाने के आरोप लगाते रहे हैं। राजनीतिक जानकारों की मानें तो लेफ्ट को बंगाल की सत्ता से उखाड़ने में ममता ने इस तरकीब का बखूबी इस्तेमाल किया था। लेकिन, लगता है कि अब बीजेपी अब उसी रास्ते चलकर टीएमसी की जमीन खोदने का इंतजाम करना चाहती है।
बंगाल में जातीय गोलबंदी की कोशिश
पश्चिम बंगाल में दलित और आदिवासी समुदाय से जुड़े मुद्दे चुनावी राजनीति के दौरान फिर से हावी होते दिखाई पड़ रहे हैं। टीएमसी और बीजेपी दोनों की ओर से मतुआ, महिसिया, कुर्मी,राजबंशी और बागड़ी जातियों के अलावा कुछ अनुसूचित जनजातियों को अपने पाले में करने के लिए हाथ-पैर मारे जा रहे हैं। मतुआ समाज तो भाजपा और टीएमसी दोनो के साथ दिख रहा है। लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी को इसका फायदा भी मिला है। अगले हफ्ते गृहमंत्री अमित शाह का फिर से मतुआ समाज के बीच जाने की संभावना है। वो कूच बेहार में राजबंशी और बागड़ी समाज के बीच भी जा सकते हैं। उनका इसबार का बंगाल में चुनाव अभियान ही जंगलमहल इलाके से शुरू हुआ है, जो कि राज्य में आदिवासियों का गढ़ माना जाता है। दूसरी तरफ टीएमसी भाजपा सांसदों की नाकामियां गिनाकर इन समाजों के ऊपर डोरे लाने की योजना में जुटी हुई है। वह मतुआ समुदाय से भाजपा के सीएए पर किए वादे याद दिला रही है तो बजट में संथालों, राजबंशियों और कुर्मियों के लिए कुछ घोषणाएं करके भी उनको रिझाने की कोशिश कर चुकी है।
आदिवासियों के माइक्रो-मैनेजमेंट में भी जुटी बीजेपी
पश्चिम बंगाल में बीजेपी के अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष दुलाल चंद्र बार ने ईटी को बताया है कि प्रदेश में दलितों की 60 उपजातियां हैं, जिनमें एक-चाौथाई नामशूद्र हैं। इन दलितों में मतुआ जैसी जातियां तो राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय हैं, लेकिन सबको उतना ही फायदा नहीं मिला है। कई नामशूद्र आध्यात्मिक संतों की परंपराओं से भी जुड़े हुए हैं। भाजपा की कोशिश है कि इन सबको हिंदुत्व के आधार पर अपने साथ जोड़े। दुलाल चंद्र कहते हैं , 'अनुसूचित जातियों में बौरी, बागड़ी, पोउंद्रा-क्षत्रीय दलित और कई हैं जो छोटे खेतिहर मजदूर हैं, जिनके पास बहुत कम जमीन है या भूमिहीन हैं, वो हमारे साथ हैं। उदाहरण के लिए जेले, जो मछली पकड़ते हैं और दशकों तक उन्हें उपेक्षित छोड़ा गया है, वो हमारे पास आ रहे हैं।' इसी तरह बीजेपी के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रदेश प्रमुख खगेन मुर्मू कहते हैं कि टीएमसी ने वादे तो बहुत किए, लेकिन कोई कल्याणकारी योजना लागू नहीं किया। मसलन, वाजपेयी सरकार ने संथालियों की भाषा अल चिकी को आठवीं सूची में शामिल करवाया, लेकिन टीएमसी सरकार ने उसे आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया। यही नहीं मनरेगा के भरोसे रहने वाला आदिवासी समाज 'कट मनी' मांगने से बहुत ही ज्यादा गुस्से में है। उन्होंने कहा, 'इस बार टीएमसी को एसटी के लिए रिजर्व 16 सीटों में से एक भी नहीं मिलेगी।'
राजबंशी मुसलमानों पर तृणमूल को भरोसा
ममता बनर्जी की टीएमसी को भाजपा के मंसूबे का पूरा इल्म है, इसलिए उसने जलपाईगुड़ी, कूच बेहार, दार्जीलिंग, मालदा और मूर्शीदाबाद इलाकों में राजबंशियों के एक विशेष वर्ग के बीच अपना अभियान तेज कर दिया है। वह नस्य शेख समुदाय (राजबंशी मुसलमान) से कह रही है कि चुनाव में उसकी पार्टी का समर्थन करें। उत्तर बंगाल की 54 विधानसभा सीटों में से 15 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं और इनमें से ज्यादातर सीटों पर राजबंशियों की आबादी अच्छी-खासी है। पिछले गुरुवार को ही इन्हीं समाजों के लिए पार्टी की ओर से आयोजित कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दलित-आदिवासी समाज के नायकों की जयंती और त्योहारों पर छुट्टियां घोषित करने के फैसलों की गिनती करवाई। मतुआ समाज पर भाजपा के बढ़े प्रभाव के बारे में टीएमसी के एससी मोर्चा के प्रमुख तापष मंडल ने कहा है, 'हम लगातार मतुआ समाज को समझा रहे हैं कि नागरिकता का बीजेपी का वादा खोखला है, वो तो यहां पहले ही ही वोट दे रहे हैं, यहां रोजी-रोटी कमा रहे है, काम कर रहे हैं। इसलिए गृहमंत्री को दो बार ठाखुरनगर (मतुआ समाज का मुख्यालय माना जाता है) का दौरा रद्द करना पड़ा है।'
भाजपा ने यहां भी खोज निकाला 'लव जिहाद' का मुद्दा
उत्तर बंगाल में राजबंशी समाज के वोट की अहमियत को बीजेपी भी जानती है और पार्टी के कूच बेहार के सांसद निसिथ प्रमाणिक का दावा है कि अगर स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव होते हैं तो राजबंशी वोटर पूरी तरह से भाजपा के साथ हैं और ये उसे ही वोट करेंगे। उन्होंने कहा है कि, 'पहचान के मुद्दे के साथ ही रोजी-रोटी के मुद्दे भी हैं। कुछ इलाकों में लव जिहाद के चलते खासकर महिलाओं की सुरक्षा बहुत बड़ा सवाल है। इसके अलावा भ्रष्टाचार भी बड़ा मसला है, जिससे यह समुदाय बहुत चिंतित है।' राजनीतिक जानकारों की मानें तो यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह नामशूद्रों के लिए काम करने वाले राजबंशियों के पंचानन बर्मा और हरिचंद ठाकुर का नाम लेते हैं। वह खेतिहर हिंदू महिसिया वोटरों को भी जोड़ने की कोशिश में है, जो किसानों को मिलने वाले लाभों से अबतक वंचित रहे हैं।
जिसे टीएमसी ने लेफ्ट के खिलाफ भुनाया, अब वही पड़ रहा है भारी ?
राजनीतिक शोधकर्ता सज्जन कुमार का कहना है कि जातीय पहचानों को उभारकर टीएमसी ने लेफ्ट को बंगाल की सत्ता से बेदखल कर दिया था। वह कहते हैं कि आज कई इलाकों में दलितों में बौरी और बागड़ी ,आदिवासियों में संथाल और मुंडा और कुर्मी-महतो जैसे अति-पिछड़ी जातियों में बदलाव की भावना देखी जा सकती है। यही भावना ब्राह्मणों, कायस्थों और खेतिहर जातियां जैसे महिसिया और अगुरी में भी दिखाई दे रही है। वो कहते हैं, 'बंगाल में अब बदलाव की एक दबी हुई नई लहर दिखाई पड़ रही है, जिसमें हिंदुत्व की धार का इस्तेमाल हो रहा है। इनमें से बहुत से समुदाय बीजेपी की ओर झुक रहे हैं.....परिवर्तन यात्रा जैसे कार्यक्रमों से खाइयां पट जाएंगी। ये खाइयां यही समुदाय हैं।'
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