वो मौका जब भारत को मिल सकता था एक दलित प्रधानमंत्री
जब जयप्रकाश नारायण राजघाट पर नवनिर्वाचित जनता पार्टी सदस्यों को ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की शपथ दिला रहे थे, जनता सरकार में प्रधानमंत्री पद के लिए दौड़ का खेल शुरू हो चुका था. नेतृत्व की दौड़ में थे मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह.
ऐसा लगता था कि बहुमत जगजीवन राम की तरफ़ था, लेकिन जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी ने 82 वर्षीय मोरारजी देसाई के नाम पर मुहर लगाई.
जब जयप्रकाश नारायण राजघाट पर नवनिर्वाचित जनता पार्टी सदस्यों को ईमानदारी और सत्यनिष्ठा की शपथ दिला रहे थे, जनता सरकार में प्रधानमंत्री पद के लिए दौड़ का खेल शुरू हो चुका था. नेतृत्व की दौड़ में थे मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चौधरी चरण सिंह.
ऐसा लगता था कि बहुमत जगजीवन राम की तरफ़ था, लेकिन जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी ने 82 वर्षीय मोरारजी देसाई के नाम पर मुहर लगाई.
जनता आंधी जिसके सामने इंदिरा गांधी भी नहीं टिकीं
इस समय इंदिरा गाँधी सेंटर ऑफ़ आर्ट्स के प्रमुख और जाने माने पत्रकार राम बहादुर राय उस घटनाक्रम को बहुत बारीकी से देख रहे थे.
राम बहादुर राय बताते हैं, "चुनाव परिणाम के बाद बहुत कश्मकश थी कि किसको नेता बनाएं. जनसंघ ने जगजीवन राम को समर्थन देने का फ़ैसला किया था. वो मानते थे कि अगर जगजीवन राम को नेता बनाया गया तो पार्टी को पाँच सालों तक चलाया जा सकता है. पर जगजीवन राम का एक कमज़ोर पक्ष ये था कि उन्होंने संसद में आपातकाल के प्रस्ताव के पक्ष में भाषण दिया था.''
राय ने कहा, ''लिहाज़ा सवाल उठा कि जिसने आपातकाल का समर्थन किया वो जनता पार्टी का नेता कैसे हो सकता है? दूसरा चौधरी चरण सिंह भी किसी भी सूरत में जगजीवन राम को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे.''
उस दौर की ग़ैरकांग्रेसी राजनीति की गहरी समझ वाले राय ने बताया, ''उधर दूसरे लोग चरण सिंह को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. जब लोगों ने देखा कि बात बन नहीं रही है तो जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी से अनुरोध किया गया कि आज जो नाम घोषित कर देंगे, उसे हम सब स्वीकार कर लेंगे.''
राय के मुताबिक़, ''पर्दे के पीछे भी गतिविधियाँ तेज़ हुईं और जनसंघ ने भी जेपी की सलाह पर जगजीवन राम का समर्थन न करके मोरारजी देसाई के समर्थन का फ़ैसला कर लिया. इसके पीछे इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका की भी भूमिका रही."
मोरारजी देसाई आखिरकार उस पद पर पहुंच गए थे जिस पर वो पहले दो बार पहुंचते-पहुंचते रह गए थे.
जब पीलू ने कहा, 'I am a CIA Agent'
फ़ैसला जो भारी पड़ा इंदिरा गांधी पर...
मशहूर पत्रकार जनार्दन ठाकुर ने अपनी किताब 'ऑल द जनता मेन' में लिखा है, "सेंट्रल हॉल के मंच पर ही आचार्य कृपलानी ने मोरारजी देसाई से फुसफुसा कर कहा था, 'आपको बाबूजी से मिलने जाना चाहिए'. देसाई ने तमक कर जवाब दिया था, ' मैं क्यों उनसे मिलने जाऊं ? '
ठाकुर ने अपनी किताब में लिखा है, 'उधर जगजीवन राम के घर पर दूसरा ही नज़ारा था. उनके समर्थक ग़ुस्से में जनता पार्टी के झंडे कुचल रहे थे. जगजीवन राम इतने ग़ुस्से में थे कि वो हर कमरे में फर्नीचर को लात मारते हुए चिल्ला रहे थे, ' धोखा, धोखा !'
जनार्दन ठाकुर ने लिखा है, ''जनता पार्टी के एक नेता ने उन्हें मनाने के लिए कहा,' जेपी ने कहलवाया है, आप जिस मंत्रालय का नाम ले लेंगे, वो आपको मिल जाएगा.' जगजीवन राम चिल्ला कर बोले थे, ' मुझे देने वाले जयप्रकाश नारायण कौन होते हैं ?''
जनार्दन ठाकुर आगे लिखते हैं, "चार दिन के नाटक के बाद जगजीवन राम, मोरारजी देसाई से कोई भी पद लेने के लिए तैयार हो गए. उनको सिर्फ़ अपना मुंह मुंह छिपाने के लिए एक बहाना चाहिए था और वो उन्हें जेपी ने दिया. जेपी ने उन्हें फ़ोन कर कहा, 'आपके सहयोग के बिना नए भारत का निर्माण संभव नहीं हो सकेगा.''
इस तरह 'नए भारत के निर्माण' में जगजीवन राम की भागीदारी सुनिश्चित कराई गई. पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने भी इस पूरे प्रकरण का ज़िक्र अपनी आत्मकथा 'कोर्टिंग डेस्टिनी' में किया है.
शांति भूषण लिखते हैं, "जब चरण सिंह को पता चला कि त्रिकोणीय मुक़ाबले में जगजीवन राम आगे निकलने वाले हैं तो वो दौड़ से बाहर हो गए और अपना समर्थन मोरारजी देसाई को दे दिया. तभी जनसंघ ने भी जगजीवन राम का साथ छोड़ने का फ़ैसला ले लिया.''
शांति भूषण ने लिखा है, ''जनसंघ के कुछ नेता उनसे मिलने उनके घर पहुंचे. मैं भी उनके साथ था. जब जगजीवन राम को माजरा समझ में आया तो वो उन पर ज़ोर से चिल्लाए. वाजपेयी रोने लगे और जगजीवन राम की गोद में सिर रख कर उनसे माफ़ी मांगने लगे, लेकिन जगजीवन राम इससे शात नहीं हुए. वो सोच रहे थे और ये शायद सही भी था कि उनके समर्थकों ने ऐन मौके पर उनका साथ छोड़ दिया था."
लेकिन चरण सिंह ने नेतृत्व के मामले में सिर्फ़ कुछ ही समय के लिए अपने क़दम वापस खींचे थे.
इमरजेंसी के दौरान जेल गए वरिष्ठ पत्रकार वीरेंद्र कपूर बताते हैं, "चरण सिंह ने अपनी इस इच्छा को कभी नहीं छिपाया कि वो भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. जब वो प्रधानमंत्री बन गए तो इंडियन एक्सप्रेस ने उनको उद्धृत करते हुए छापा कि उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो गई है.''
कपूर के लिखा है, ''वो प्रधानमंत्री बनने के लिए इतने तत्पर थे कि उनके गृह मंत्री बनने के दो दिन बाद जब मैं उनसे उनके रेसकोर्स रोड वाले घर में मिला तो वो बैडमिंटन कोर्ट पर बनियान और अंगोछा पहने हुए बैठे हुए थे.''
कपूर आगे लिखते हैं, ''मुझसे कहने लगे- कपूर, देखो किसको प्रधानमंत्री बनाया है. ये तो सिर्फ़ बीस हज़ार वोटों से जीत कर आया है और यहां अमृतसर से ले कर नीचे तक सब लोग दो-दो लाख वोटों से जीत कर आए हैं."
कागज़ पर तो जनता पार्टी की कैबिनेट बहुत अच्छी कैबिनेट थी. उसमें एक ओर अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फ़र्नांडिस और एचएम पटेल जैसे लोग थे तो दूसरी ओर मधु दंडवते, लालकृष्ण अडवाणी और हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे लोग भी.
लेकिन कई दिग्गज जैसे चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, सुब्रमण्यन स्वामी और मधु लिमये जैसे लोग इस मंत्रिमंडल में जगह नहीं बना पाए थे. बाद में इसका ख़ामियाज़ा जनता पार्टी को भुगतना भी पड़ा.
राम बहादुर राय कहते हैं, "डॉ. सुब्रमण्यन स्वामी जब हार्वर्ड से आईआईटी में प्रोफ़ेसर बन कर आए थे तो वो जनसंघ से जुड़े. इमरजेंसी के ख़िलाफ़ अंडरग्राउंड आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी. उनको ये लगता था कि उन्हें विदेश मंत्री होना चाहिए था.''
राय बताते हैं, ''मोरारजी देसाई ने उनकी इस आकांक्षा को उनकी कमज़ोरी में बदल दिया. बाद में स्वामी ने मुझे बताया कि मोरारजी देसाई ने मेरा उपयोग किया. जिस तरह स्वामी का उपयोग मोराजी देसाई अटल बिहारी वाजपेयी की कमियों के उजागर करने के लिए कर रहे थे, उसी तरह मधु लिमए, चरण सिंह की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठा कर सरकार को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे थे.''
राय आगे कहते हैं, ''मधु भी सरकार से बाहर थे. एन जी गोरे और अच्युत पटवर्धन दोनों ने लिखा है कि मधु लिमए काबिल ज़रूर थे, लेकिन उनमें अहंकार बहुत अधिक था. वो साचते थे कि अगर मैं मंत्री होता तो इन सबसे बेहतर करता.''
रामबहादुर राय ने कहा, ''नानाजी देशमुख का मामला दूसरा था. एक स्टेज के बाद जब उन्हें लगा कि ये बूढ़े आपस में लड़ मरेंगे तो उन्होंने प्रस्ताव दिया कि 60 साल से अधिक उम्र वाले लोगों को राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए.''
राय के मुताबिक, ''उसकी राजनीति ये थी कि ये तीनों राजनीति से अलग हो जाएं और एक अपेक्षाकृत युवा नेता प्रधानमंत्री बने. उनके मन में इस रोल के लिए चंद्रशेखर थे. ये बात अटल बिहारी वाजपेयी को पसंद नहीं आई."
जनता पार्टी को रसातल तक ले जाने में एक और शख़्स की महत्वपूर्ण भूमिका थी. वो थे इंदिरा गांधी को रायबरेली से हराने वाले राजनारायण. बिना नागा मालिश कराने वाले राजनारायण हमेशा कई वजहों से समाचारों में रहते थे.
जनार्दन ठाकुर अपनी किताब 'ऑल द जनता मेन' में लिखते हैं, "राजनारायण भारत में तो जहाज़ों और ट्रेनों की देर कराने के लिए कुख्यात थे ही, एक बार उन्होंने कुवैत में एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान में देरी कराने की भी जुर्रत की थी.''
उन्होंने लिखा है, ''वो इसलिए ताकि उनका एक असिस्टेंट दौड़ कर वहाँ के ड्यूटी फ़्री से उनके लिए एक ट्रांजिस्टर ख़रीद कर ले आए. जहाज़ के कप्तान ने अपनी लॉगबुक में देरी का कारण ' ट्रैफ़िक' लिखा, जबकि कुवैत एयर इंडिया ने इसका कारण ' वीवीआईपी' बताया था."
कुछ दिनों बाद मोरारजी देसाई ने राजनारायण को अपने मंत्रिमंडल से निकाल दिया जिसका ख़ामियाजा उन्हें अपनी सरकार गिरवा कर देना पड़ा.
राम बहादुर राय बताते हैं, "राजनारायण विध्वंस के नेता थे और सारी ज़िंदगी उन्होंने लोहिया की रहनुमाई में समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व किया. वो विरोध की राजनीति में रचे बसे थे जिसे उन्होंने सत्ता मिलने के बाद भी नही छोड़ा.''
राय आगे कहते हैं, ''एक बार जब मोरारजी देसाई अमरीका गए थे तो राजनारायण शिमला में एक सभा करना चाहते थे जिसकी अनुमति हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री शांता कुमार ने नहीं दी थी.''
राय के अनुसार, ''वहाँ से राजनारायण और जनसंघ ख़ेमे का टकराव शुरू हुआ. जब मोरारजी अमरीका से वापस लौटे तो राजनारायण सबके इत्र लगाते देखे गए. जब वो मोरारजी देसाई के पास इत्र लगाने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि तुम मेरी ग़ैरहाज़िरी में तो गंदगी फैला रहे थे. अब मेरे आने पर इत्र लगा रहे हो. ये क्या तरीका है?''
राय ने आगे कहा, ''संभवत: राजनारायण के अहंकार को इससे चोट लगी. मोरारजी देसाई भी अगर व्यवहारकुशल शख़्स होते तो राजनारायण को अलग से बुला कर कहते और समझाते तो उसका ज़्यादा असर होता, लेकिन उन्होंने उनका सार्वजनिक रूप से अपमान किया. मुझे लगता है कि ऐसी छोटी मोटी घटनाएं भारत में महाभारत का कारण बनती हैं."
दूसरी तरफ़ चरण सिंह की इंदिरा गांधी के प्रति नफ़रत इस क़दर बढ़ चुकी थी कि वो उन्हें किसी कीमत पर गिरफ़्तार करवना चाह रहे थे.
वीरेंद्र कपूर बताते हैं, "चरण सिंह तिहाड़ के वॉर्ड नंबर 14 में रहा करते थे. वो और प्रकाश सिंह बादल टाइम पास करने के लिए सारा दिन कोटपीस खेला करते थे. वो एक बार मुझे अपने कमरे में ले गए. वहाँ मुसोलिनी पर एक किताब पड़ी हुई थी और विवेकानंद की एक तस्वीर लगी हुई थी.''
कपूर ने आगे लिखा है, ''मुझसे बोले- देख ले कपूर, इंदिरा गांधी को इसी कोठरी में रखूंगा.' काफ़ी लोग नहीं जानते हैं कि नई सरकार आने के बाद इंदिरा गांधी इतनी भयभीत थीं कि वो भारत छोड़ना चाहती थीं.''
कपूर ने लिखा है, ''लेकिन चरण सिंह अड़े हुए थे कि मैं उनका पासपोर्ट ज़ब्त करूंगा और उन्हें जेल भेजूंगा. अगर वो इंदिरा का पासपोर्ट ज़ब्त न करते और उन्हें विदेश जाने देते तो मैं नहीं समझता कि इंदिरा गाँधी की इतनी जल्दी भारत की राजनीति में वापसी होती."
लेकिन दूसरी तरफ़ जयप्रकाश नारायण थे जो 19 महीने जेल में रहने के बावजूद बिना किसी कटुता के इंदिरा गाँधी के घर जा कर उन्हें ढाढ़स बंधा रहे थे कि 'अभी तुम्हारे राजनीतिक जीवन का अंत नहीं हुआ है. '
राम बहादुर राय बताते हैं, "पुपुल जयकर ने भी लिखा है कि इंदिरा गाँधी उन दिनों नर्वस ही नहीं थीं, उन पर हिस्टीरिया जैसे दौरे पड़ रहे थे. उनको डर था कि संजय गाँधी को पकड़ कर उनकी सार्वजनिक रूप से उसी तरह नसबंदी करवाई जाएगी जैसे उन्होंने दूसरों की करवाई थी. यहाँ जेपी का मानवीय पक्ष काम कर रहा था.''
राय बताते हैं, ''जेपी ने इंदिरा गाँधी से भेंट की है और उनसे पूछा है कि प्रधानमंत्री न रहने पर तुम्हारा ख़र्च कैसे चलेगा? उन्होंने जेपी को बताया कि जवाहरलाल नेहरू की किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी से वो अपना ख़र्च चलाएंगी. इस बैठक के बाद जेपी ने बयान दिया कि इंदिरा गाँधी का राजनीतिक जीवन अभी समाप्त नहीं हुआ है. इसे जनता पार्टी के नेताओं को समझना चाहिए."
विडंबना ये रही कि जनता पार्टी को सत्ता में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जयप्रकाश नारायण को जनता पार्टी और उनके नेतृत्व ने हाशिए पर ला दिया. एक बार मशहूर पत्रकार कुलदीप नायर ने मोरारजी देसाई से पूछा कि आप जेपी की सलाह लेने उनसे मिलने क्यों नहीं जाते, तो उनका जवाब था, ' जेपी गाँधी हैं क्या?'
बीबीसी से बात करते हुए करते हुए कुलदीप नायर ने कहा, "मोरारजी समझते थे कि जेपी लोकप्रियता में उनसे ज़्यादा थे. वो ख़ुद चाहते थे लोकप्रिय होना, लेकिन हुए नहीं. इसलिए वो जेपी को मानते नहीं थे.''
नायर कहते हैं, ''मैंने उनसे कहा कि अभी मैं पटना में था. जेपी बहुत दुख में थे कि क्या हो रहा है भारत का. मैंने कहा कि आपको जाना चाहिए पटना उनसे मिलने. मोरारजी ने बहुत रूखेपन से जवाब दिया, ''मैं तो कभी गांधी से मिलने भी नहीं गया तो ये कौन-सी चीज़ हैं.' मैंने जब उन्हें जेपी आंदोलन की याद दिलाई तो उन्होंने कहा कि ठीक है, हम लोगों ने भी तो कुछ न कुछ किया."
सत्ता में आने के मात्र दो साल तीन महीनों बाद मोरारजी देसाई को इस्तीफ़ा देना पड़ा. उनके बाद प्रधानमंत्री बने चरण सिंह भी सिर्फ़ छह महीनों तक ही प्रधानमंत्री रह पाए.
1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की दोबारा वापसी हुई और 1977 में रामलीला मैदान में अटल बिहारी वाजपेयी का कहा वो जुमला ग़लत साबित हुआ कि, ''जो लोग अपने को भारत का पर्यायवाची कहते थे, उन्हें भारत की जनता ने इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया.''