बैल को गाय, इंसान को जानवर समझ दबोचते 'उन्माद' कसाई की कहानी
ऐसे कितने शंकर आपके हमारे आसपास या अलवर जैसी गलियों में गमछा डाले घूम रहे हैं. इनमें से कुछ रक्षक भक्षक बने जा रहे हैं और कुछ गायों के साथ भी धंधा कर रहे हैं. इन गमछे वाले लोगों के पास कई साथी होते हैं. कहीं भी कोई संदिग्ध या कहें कि 'संभावना' दिखे तो फौरन फोन लगा दिया जाता है. फोन की स्क्रीन पर नंबर फ्लैश होता है, ''कॉलिंग फ्रॉम जियो नंबर, शंकर योगी.''
अच्छी कहानी पर बनी एक ख़राब फ़िल्म ख़त्म होती है. लोग जाने के लिए उठते हैं. तभी 'उन्माद' फ़िल्म के डायरेक्टर शाहिद कबीर सबके सामने आकर कहते हैं, 'आप लोगों के बस दो मिनट लूंगा.'
मांगे गए दो मिनट से कुछ ज़्यादा मिनट लेकर शाहिद बताते हैं, 'इस फ़िल्म में आपने जिन कलाकारों को देखा, उन्होंने ज़िंदगी में पहली बार एक्टिंग की है. किसी ने कभी कोई कैमरा फेस नहीं किया था. क्राउडफंडिंग से जुटाए क़रीब सवा करोड़ रुपये में बनी ये फ़िल्म छह महीने में पूरी हुई. सेंसर बोर्ड ने 14 कट लगाए. पिछवाड़े को पिछवाड़ा कहने जैसे शब्दों को आपत्ति जताई. कई शब्दों को म्यूट किया.'
मैं शाहिद से पूछता हूं, वो कौन से शब्द थे जिन्हें म्यूट किया गया? वो कहते हैं, 'ध्यान से उतर गए. छोड़िए न. उस पर नहीं जाते हैं. फ़िल्म रिलीज हो जाए, बस.'
दिल्ली के प्रेस क्लब में स्पेशल स्क्रीनिंग में दिखाई गई फ़िल्म 'उन्माद' मेरे लिए इस 'बस' की बेचारगी से शुरू होती है.
प्रेस क्लब की पहली मंज़िल के हॉल पर गिनती के छह लोग बैठे हैं. फ़िल्म शुरू होने में अभी वक्त है. पीछे की तरफ एक कुर्सी पर बैठी महिला के हाथों में इंग्लिश अखबार है, जिसकी बड़ी सी हैडिंग है- आई टू फेस सेक्सिज्म, रेसिज्म. ख़बर में लगी तस्वीर छोटी थी और मेरी नज़र कमज़ोर, लिहाज़ा इस बात को किसने कहा- ये मैं जान नहीं पाया. स्टीरियोटाइप मन ने कहा- होगी कोई हीरोइन!
उन्माद की कहानी...
'न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!'
ग़ालिब के शेर से शुरू हुई फ़िल्म उन्माद. आपने इससे पहले उन्माद शब्द कब सुना या पढ़ा था? किसी हिंसा से जुड़ी ख़बरों में या फिर नेताओं के एक-दूजे पर आरोप लगाते बयानों में.
अब खुद से पूछिए कि क्या आपको आसपास उन्माद बढ़ते दिखा है? शायद आपको कोई एक या दो धर्म इसे सोचते हुए ख्यालों में आ रहे हों. लेकिन क्या उन्माद यही है. या फिर वो भी है, जिसमें आप कहीं अपनी मुहब्बत के साथ बैठे हैं और एक कैमरा, घूरती आंखें कहीं कुछ रिकॉर्ड कर रहा है. फिर आती है आवाज़- 'मुझे भी करने दे' या फिर 'वायरल कर दूंगा' जैसी धमकियां और उनके बदले की मनचाही उगाही.
उन्माद ये भी है और वो भी, जिसमें अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बैल बेचने जाते कसाई कल्लू को दबोच लिया जाता है. बैल को गाय बता दिया जाता है. ''हमारी पूजनीय गाय माता को लेकर जा रहा है, जानता नहीं ये जुर्म है. मारो इसे. रुको कैमरा निकालो. रिकॉर्ड करो. इसे WhatsApp पर भेजो. कसाई से अपनी गाय माता को बचाना है तो तलाब किनारे मिलो. बोलो- जय जय सियाराम.''
नारों के जवाब नारे होते हैं. हाथों में छुरियां दबाए टोपियां लगाए भीड़ आती है. ''हम कहते हैं छोड़ दे हमारे कल्लू को. वरना हम चुप नहीं बैठने वाले. नारा-ए-तकदीर...अल्लाह-ओ-अकबर''
इन नारों से परेशान और अपने लैपटॉप में प्रेस रिलीज जैसी ख़बर को अब पूरा कर चुका मेरे साथ बैठा लड़का फ़िल्म के एसी हॉल से बाहर निकल जाता है.
ठीक वैसे ही जैसे हम में से बहुत लोग इन नारों के ख़ौफनाक नतीजों को सोचे बिना एक दिन से दूसरे दिन की ओर निकल जाते हैं.
फिर चाहे वो कांवड़ यात्रा की बात हो या मुहर्रम की. 'धर्म का मामला है न. चुप रहो.' ये कहते हुए हम उस भीड़ का हिस्सा बने जा रहे हैं, जो ईश्वर की कसम खाकर कहती है कि वो नास्तिक है.
बीफ बैन के बाद कई परिवारों की रोज़ी रोटी छिनी है. यूपी के सहारनपुर का कल्लू भी ऐसा ही है. कल्लू की मदद करता है पूजा पाठ में रहने वाला शंभु. कहता है- मेरे बैल बेचकर जो पैसे मिले उससे अपना घर चला.
'लेकिन भाई शंभु, तुम्हारे में तो जानवर बेचना अशुभ होता है.'
'कल्लू भाई, आदमी ज़िंदा नहीं रहेगा तो शुभ-अशुभ का क्या करेंगे. आचार डालेंगे.'
मुसलमानों के पैर छूता शंभु का बेटा. पूजा में ढोल बजाता कसाई कल्लू. शब्बु और अंकुर की मुहब्बत या ये कहें कि 'लव जेहाद'.
ऐसे कई सीन हैं, जिससे धार्मिक सौहार्द की बढ़िया वाली 'खुशबू' आती है. लेकिन ये सारे सीन फ़िल्म और आज के सच पर ऐसे ढके गए जैसे किसी विदेशी राष्ट्रपति के दौरे से पहले बनारस के बदबूदार नाले सुंदर पोस्टरों से ढक दिए जाते हैं.
- हिंदू और मुस्लिम दोनों क्यों मानते थे गांधी को दुश्मन?
- हिंदू-मुस्लिम मुद्दा नहीं, सियासत की असल कहानी कुछ और है
- 'भारत का अच्छा मुसलमान कैसा हो, वाजिब नहीं है कि हिंदू तय करें'
'युवा को उल्टा कर दो...'
फ़िल्म 'हासिल' में आशुतोष राणा का एक डायलॉग है, ''जिसे कोई बांध नहीं सकता उसे युवा कहते हैं. यूथ! युवा को उल्टा कर दो तो क्या हो जाता है? वायु! वायु! वायु जो बहती रहती है. अगर हल्की बहे तो बेहतर. और तेज़ हो गयी तो बेहाल कर देती है.''
अब तनिक सोचिए भारत का युवा आज क्या कर रहा है? सस्ता इंटरनेट, झंडे, नारे, देशभक्ति और अपनी पसंद की एक राजनीतिक पार्टी. नतीजा बेहाली.
बेरोज़गारी जिनके लिए मुद्दा है, वो कितने हैं. क्या ये लोग उन करोड़ों भारतीयों तक अपना दर्द पहुंचा पा रहे हैं, जो हर पांच साल में ये सोचकर वोट डालते हैं कि 'देश को मजबूत इरादों वाला ही चला सकता है, इसलिए हमारा वोट.... भले ही थोड़ा कष्ट हो लेकिन भविष्य के लिए ये कुर्बानी देंगे.'
इस बात से बेखबर कि ऐसी कुर्बानियों की एक्सपायरी डेट नहीं होती. ऐसा ही फ़िल्म में एक स्थानीय पत्रकार अंकुर होता है, जो अपनी एक ख़बर छपने के इंतज़ार में रहता है लेकिन ख़बर नहीं छपती. निराश होकर कहता है, ''पॉजिटिव ख़बरें छापें तो मां मर जाएगी इनकी. टीवी हो या ख़बरें, सबको क्राइम पेट्रोल या सावधान इंडिया चाहिए.''
अंकुर सही कह रहा था या ग़लत... ये आप खुद से पूछकर देखिए. आख़िरी ऐसी कौन सी ख़बर थी जो आपने मसालायुक्त नहीं होने के बावजूद पढ़ी थी?
'उन्माद' में बैल को गाय बनाकर राजनीति करने और विधायक बनने की तमन्ना लिए एक किरदार होता है, शंकर.
ऐसे कितने शंकर आपके हमारे आसपास या अलवर जैसी गलियों में गमछा डाले घूम रहे हैं. इनमें से कुछ रक्षक भक्षक बने जा रहे हैं और कुछ गायों के साथ भी धंधा कर रहे हैं. इन गमछे वाले लोगों के पास कई साथी होते हैं. कहीं भी कोई संदिग्ध या कहें कि 'संभावना' दिखे तो फौरन फोन लगा दिया जाता है. फोन की स्क्रीन पर नंबर फ्लैश होता है, ''कॉलिंग फ्रॉम जियो नंबर, शंकर योगी.''
फ़िल्म 'उन्माद' आधी से ज़्यादा ख़त्म हो चुकी है. शाहिद ने बताया था कि सेंसर बोर्ड ने नारों को भी हटाया है. हटने के बाद भी ये नारे असंख्य हैं और जी चटने लगता है.
हॉल का किंवाड़ खुलता है तो प्रेस क्लब के आंगन में चल रही प्रेस कॉन्फ्रेंस से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की इंग्लिश सुनाई देती है. वो फर्राटेदार इंग्लिश में अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा के साथ बैठकर मोदी सरकार पर रफ़ाएल डील में भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे. मैं पीछे पलटकर देखता हूं तो फ़िल्म के शुरू में अखबार पढ़ रही महिला सो चुकी हैं.
हमारे दौर की दिक्कत ये भी है कि जो बात जैसे कही जा रही थी, वो वहां वैसे पहुंच नहीं रही थी. रील लाइफ हो या रीयल.
'उन्माद' की कहानी हिंदी फ़िल्मों की तरह यानी हैप्पी एंडिंग की तरफ़ आगे बढ़ती है. बोले तो सत्यमेव जयते.
फ़िल्म 'उन्माद' सही वक्त और सही कहानी पर बनी फ़िल्म है. फ़िल्म समीक्षकों की शब्दावली की नकल करूं तो सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग, स्क्रीनप्ले, डायलॉग, कैमरावर्क जैसी चीज़ें औसत हैं. लेकिन शाहिद के दावे पर यकीन करें तो ये सारे काम ही नौसिखियों ने किए हैं.
ऐसे में फ़िल्म समीक्षकों से चुराई शब्दावली को एक तर्क से खारिज किया जा सकता है. वो ऐसे कि जैसे हिंदी पट्टी का कोई आदमी पहली बार इंग्लिश बोले तो सामने बैठे सज्जन कहें- पुअर गाइ. इंग्लिश तो शेक्सपियर की धांसू थी.
फ़िल्म ख़त्म होती है. चलते हुए मेरी नज़र हॉल में लगी एक तस्वीर पर गई. ये प्रेस क्लब के वरिष्ठ सदस्यों के साथ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की तस्वीर है. तस्वीर में लोगों की भीड़ के पीछे राधेकृष्णा की तस्वीर है और बराबर में एक मंदिर जैसा छोटा सा मॉडल रखा हुआ है.
'लोग धर्म से ज़्यादा जुनून में एक दूसरे को मार रहे हैं.'उन्माद के डायरेक्टर शाहिद कबीर की ये बात याद आ गई.
मैं बाहर आता हूं तो देखता हूं कि आरोपों वाली प्रेस कॉन्फ्रेंस ख़त्म हो चुकी है और कैमरे एक्सक्लूज़िव की ख़ातिर कभी यशवंत सिन्हा, कभी प्रशांत भूषण की तरफ दौड़ रहे हैं.
आठ अगस्त की शाम हो चुकी है. प्रेस क्लब से निकलते हुए एक पत्रकार दोस्त मिला. बोला, यहां कैसे? प्रशांत भूषण कवर करने आए थे या शराब पीने?
मैं जवाब देता हूं, 'उन्माद देखने'
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