राहुल गांधी, अखिलेश यादव की तरह तेजस्वी यादव भी राजनीति में कच्चे नींबू निकले!
बेंगलुरू। लोकसभा चुनाव 2019 से पहले राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के छोटे बेटे तेजस्वी यादव की छवि ऐसी गढ़ी गई थी कि निकट भविष्य में तेजस्वी यादव नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जदयू की राजनीतिक दशा और दिशा दोनों तय करेंगे, लेकिन पिछले 5 महीने में तेजस्वी यादव की राजनीतिक अक्रियता दर्शाती है कि तेजस्वी यादव में भविष्य के चुनावी समर के लिए कितना तेज शेष है। तेजस्वी यादव के लिए राजनीतिक जमीन तैयार थी तब तेजस्वी यादव दिल्ली में आराम फरमा रहे हैं। उनकी बिहार में गैर मौजूदगी बिहार में राजद के राजनीतिक साख को नुकसान पहुंचा चुकी है।
बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव एक नहीं कईयों ऐसे गंवाए हैं, जो बिहार की जदयू-बीजेपी गठबंधन सरकार के नाक के दम करने के लिए काफी थे। इनमें मुजफ्फरपुर का चमकी बुखार , मॉब लिंचिंग, बड़ी आपराधिक घटनाएं और पटना का भीषण जलजमाव प्रमुख हैं, जिस पर नीतीश कुमार समेत बीजेपी को घेरा जा सकता था।
तेजस्वी के लिए उपरोक्त सभी मुद्दों पर घेरने के लिए ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ती, क्योंकि आम पब्लिक से जुड़े मुद्दों को मीडिया भी बढ़-चढ़कर उठा रही थी और पीड़ित आम जनता एक नेता तलाश रही थी, जो सरकार के खिलाफ खड़ा होकर उसकी आवाज बन सके, लेकिन तेजस्वी यादव जमीन पर नहीं उतरे।
बिहार की जनता से लेकर मीडिया भी तेजस्वी यादव को खोज रही थी, लेकिन वो उनके बीच नहीं पहुंचे। तेजस्वी यादव की राजनीति में सक्रियता इसलिए जरूरी थी, क्योंकि बिहार की राजनीति एक बार फिर करवट बदलने को बेताब है। एनडीए और महागठबंधन दोनों ही में घमासान मचा हुआ है।
माना जा रहा है कि वर्ष 2020 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक जमीन तैयार करने के लिए राष्ट्रीय जनता दल के पास एक बढ़िया और उर्वर जमीन तैयार थी, लेकिन खुद को पिछड़ों खासकर यादवों का असल नेता बताने वाले तेजस्वी यादव फसल काटने तक नहीं पहुंचे। इस मौके पर जन अधिकार पार्टी के मुखिया पप्पू यादव ने खूब वाहवाही बंटोरी। पप्पू यादव ने बाढ़ की पानी में उतरकर लोगों तक पहुंचे।
तेजस्वी यादव की पार्टी में अक्रियता के बाद से राजद के उत्तराधिकार को लेकर बहस शुरू हो चुकी है। पार्टी के भीतर ही इसको लेकर उहापोह मची हुई है। लोकसभा चुनाव 2019 के परिणाम आने के बाद से वैराग्य में चले गए तेजस्वी यादव ठीक वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं जैसे किसी लड़के को जबरन दूल्हा बनाकर घोड़ी पर बिठा दिया था और शादी के तुरंत बाद लड़का तलाक पर अमादा हो गया हो।
हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि तेजस्वी यादव को राजनीति से मोहभंग हो गया है, लेकिन पिछले पांच महीनों के उनकी क्रिया कलापों ने सवाल जरूर खड़ा कर दिया है, जो उन्हें पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, मौजूदा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की बगल वाली सीट पर बिठा चुकी है।
यह सवाल उठना इसलिए भी लाजिमी है, क्योंकि तेजस्वी यादव का राजनीति में अवतरण भी अचानक हुआ है। वो भी तब उनके पिता और राजद प्रमुख लालू यादव चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद राजनीतिक विरासत संभालने के लिए राजनीति में उतरना पड़ा। वर्ष 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन सरकार में डिप्टी सीएम चुने गए तेजस्वी यादव राजनीतिक अपरिपक्वता सतह पर आ गई थी जब वो कई मोर्चे पर नीतीश कुमार को आईना दिखाने लगे।
माना जाता है कि तेजस्वी के महागठबंधन विरोधी बयानों के चलते ही महागठबंधन तोड़कर एनडीए में शामिल हुई और बिहार में महागठबंधन का अंत हो गया। तेजस्वी में तेज तब तक बरकरार था, लेकिन लोकसभा चुनाव 2019 में जनता ने जब राजद को महज 15.6 फीसदी दिया तो लगता है कि तेजस्वी का राजनीति से मोहभंग हो गया है।
यही कारण है कि तेजस्वी यादव लोकसभा चुनाव के बाद से लगातार पटना से दूर हैं और स्टेट पॉलिटिक्स में भी कम सक्रिय हैं। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष नेता का बिहार में न होना, वो भी तब राजनीतिक जमीन उर्वरता की खुमार पर है। सवाल खड़े करता है कि राजद की सियासी जमीन भी बिहार में कितनी खिसक गई है। दिल्ली में बैठे तेजस्वी यादव सूबे के बड़े से बड़े मुद्दों पर जोरदार प्रतिक्रिया देने के बजाय ट्वीट पर जबरिया शादी निभाने की कोशिश करते जरूर दिख रहे हैं, लेकिन शादी में भूचाल आनी तय है।
कहा जाता है कि अगर तेजस्वी का राजनीति से मोहभंग नहीं हुआ होता तो राजनीतिक से उर्वर जमीन पर हल चलाते। कहने का अर्थ है कि तेजस्वी यादव बिहार पहुंचकर नीतीश सरकार को मुश्किल में डाल सकते थे, लेकिन वो सामने तक नहीं आए, वो राहुल गांधी की तरह हॉलीडे पर हैं।
गौरतलब है जिस तेजस्वी यादव को लोकसभा चुनाव के पहले तक बिहार की राजनीति का सबसे उदीयमान चेहरा समझा जा रहा था। मीडिया ही नहीं, देश की मुख्य विपक्षी पार्टियां भी तेजस्वी में लालू प्रसाद यादव का अक्स तलाशन लग गईं, लेकिन मई, 2019 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आते ही तेजस्वी अफलातून हो गए। बिहार छोड़कर दिल्ली पहुंचे तेजस्वी की राजनीतिक क्षमता का ढंकने के लिए पार्टी के शीर्ष नेताओं ने खूब मेहनत की, लेकिन बिहार की जमीन पर आए तूफानी मौकों पर भी जब तेजस्वी बिहार नहीं लौटे तो उनके नेतृत्व पर सवाल उठने शुरू हो गए। 2019 लोकसभा चुनाव में आरजेडी का खाता तक नहीं खुल सका था।
लोकसभा चुनाव के नतीजों से तेजस्वी अभी तक नहीं उबरे हैं या राजनीति उन्हें रास नहीं है। इसको एक उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है। तेजस्वी यादव महागठबंधन से चाचा नीतीश कुमार के अलग होने के बाद उन पर खूब हमलावर थे। अब जब एक बार नीतीश कुमार और बीजेपी में खटपट शुरू हो गई है, तो तेजस्वी यादव का आधिकारिक बयान नहीं आया है। चर्चा है कि नीतीश कुमार फिर से आरजेडी के साथ हो सकते हैं, लेकिन राजनीतिक उहापोहों के बीच अभी तक तेजस्वी यादव बिहार नहीं पहुंचे हैं और न ही पार्टी की कमान संभालने की जहमत तक नहीं उठाई है।
हालांकि तेजस्वी यादव की बड़ी परेशानी उनके उपर IRCTC जैसे मामले की लटकती तलवार भी कही रही है। कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के बाद से यह कयास लगाए जा रहे हैं कि तेजस्वी यादव क्या गिरफ्तार भी हो सकते हैं? अगर ऐसा हुआ तो न सिर्फ तेजस्वी बल्कि पूरी आरजेडी का भविष्य दांव पर लग जाएगा।
क्योंकि पूर्व स्टेट हेल्थ मिनिस्टर और बड़े भाई तेज प्रताप यादव पार्टी संभाल पाएंगे, इस पर राजनीतिक जानकार एक राय नहीं हैं। माना जा रहा है कि तेजस्वी यादव लगातार दिल्ली में कैंप इसलिए भी कर रहे हैं वो अपने उपर लटके तलवार को हट सकें, लेकिन बिहार में रहकर और सरकार के विरोध में नारे लगाकर संभव नहीं हो पाएगा, इसमें संशय है।
बिहार में जल्द ही पांच विधानसभा सीटों और लोकसभा की एक सीट पर उपचुनाव होना है, लेकिन तेजस्वी यादव की अक्रियता से माना जा रहा है कि राजद का हाल उपचुनावों में भी ढाक के तीन पात जैसी हो सकती थी जबकि विभिन्न मौकों पर नीतीश सरकार पर हमला कर तेजस्वी यादव बैकफुट पर आई नीतीश कुमार को घेर कर जनता को अपने पक्ष कर सकती थी, जिसका लाभ पार्टी उपचुनाओं में जीत का पंजा लगाकर कर ले सकती थी। उपचुनावों में अगर राजद की हार होती है तो बिहार की राजनीति में राजद का अस्तित्व खतरे आ सकता है, क्योंकि उपचुनावों में राजद की हार पार्टी की भविष्य की राजनीति पर भी नकारात्मक असर डाल सकती है।
ऐसे हालात में राजद में फूट की संभावना बढ़ रही है, जिसकी शुरूआत लोकसभा चुनाव 2019 नतीजों के बाद हो गई थी जब बगावती तेवर दिखाते हुए राजद नेता महेश यादव ने तेजस्वी यादव को विपक्ष के नेता के पद से इस्तीफा देने की सलाह दे दी थी। महेश यादव ने कहा था कि लोग अब वंशवाद की राजनीति से तंग आ चुके हैं।
महेश यादव का इशारा पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और मौजूदा सपा प्रमुख अखिलेश यादव की ओर था, जिन्हें लोकसभा चुनाव में क्रमशः 53 और 5 सीटों से संतोष करना पड़ा था। महेश यादव यहीं नहीं रूके थे, उन्होंने यहां तक कहा कि कई राजद विधायक हैं ऐसे हैं जो अब पार्टी में घुटन महसूस कर रहे हैं।
RJD Rebel leader Mahesh Yadav: Tejashwi Yadav should resign from the post of Leader of Opposition as people are fed up of dynasty politics. I won't take names but there are many MLAs who are feeling suffocated now. #Bihar pic.twitter.com/tcLm8DkeTh
— ANI (@ANI) May 27, 2019
गौरतलब है तेजस्वी यादव के नेतृत्व से पहले वर्ष 2004 के लोकसभा चुनावों में राजद को कुल वोटों का 30.7 प्रतिशत मत मिला था, लेकिन तेजस्वी यादव के राजद की बागडोर संभालने के बाद चुनाव दर चुनाव लगातार राजद का वोट शेयर गिरा है। वर्ष 2005 विधानसभा चुनाव में 25 फीसदी वोट पाने वाली राजद वर्ष 2009 लोकसभा चुनाव में 19.3 फीसदी वोट पाती है।
वर्ष 2010 लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत गिरकर 18.8 फीसदी पहुंच गया और वर्ष 2014 लोकसभा चुनावों में राजद की वोट प्रतिशत 20.5 फीसदी रहा। वर्ष 2015 में राजद का वोट प्रतिशत 18.3 फीसदी दर्ज किया गया और वर्ष 2019 लोकसभा चुनावों में राजद ऐतिहासिक पतन कहा जाएगा जब उसे 15.4 फीसदी मत मिला।
तेजस्वी की अक्रियता के चलते अब पार्टी के सबसे वफादार मतदाता यादव भी राजद की विकल्प तलाश रहे हैं और पटना में बाढ़ के दौरान जमीन पर उतरने वाले जन अधिकार पार्टी के प्रमुख राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने खूब सुर्खियां बंटोरी हैं।
2019 का सीएसडीएस-लोकनीति का सर्वेक्षण दर्शाता है कि 2014 के 64 फीसदी के मुकाबले 2019 में केवल 55 फीसदी यादवों ने राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन को वोट दिया था। क्योंकि लोग लालू के राजनीतिक वर्चस्व को तेजस्वी यादव के लेकर चलने की क्षमता के बारे में पहले से ही आशंकित हो गए हैं। राजद नेता और कार्यकर्ता तेजस्वी के परिपक्वता की कमी और कठिन परिस्थितियों से निपटने के लिए निराश हैं।
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