संकट से गुजर रहा है देश का सुप्रीम कोर्ट
आपातकाल के बाद सुप्रीम कोर्ट के लिए ये सबसे बड़ा संकट का समय है
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक रिटायर्ड जज के कथित भ्रष्टाचार के मामले की सुनवाई को दौरान कुछ असाधारण गतिविधियां हुईं.
एक ब्लैकलिस्टेड मेडिकल कॉलेज में कथित भ्रष्टाचार की जांच से जुड़ी एक याचिका को लेकर वरिष्ठ जजों में खुले तौर पर आपसी मतभेद दिखा.
जांच एजेंसियों ने आरोप लगाया है कि एक रिटायर्ड जज इशरत मसरूर कुद्दुसी कॉलेज को फ़िर से खुलवाने के लिए कोर्ट का ऑर्डर सुरक्षित करवाने की कोशिश में थे. कुद्दुसी को सितंबर में गिरफ्तार किया गया था और वो अभी ज़मानत पर बाहर हैं.
पिछले सप्ताह कोर्ट में वरिष्ठ वकील और इस मामले में याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण और चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के बीच तीखी बहस देखने को मिली जब जब भूषण ने मिश्रा पर सार्वजनिक रूप से इस मामले में हितों के टकराव का आरोप लगाया.
इसने न्यायिक अनुशासनहीनता और देश के वरिष्ठ जजों के प्रति घटते भरोसे को उजागर किया है.
दुनिया के सबसे ताकतवर कोर्ट के लिए ये एक अच्छी ख़बर नहीं है. कई समीक्षकों ने कोर्ट पर एक साथ सवाल उठाए हैं, जो पहले कभी नहीं देखा गया. समीक्षकों के मुताबिक पिछले एक हफ्ते की घटनाओं से सर्वोच्च पदों पर बैठे जजों पर भरोसा बहुत कम हुआ है. समीक्षकों के मुताबिक इसके कारण न्यायपालिका के भविष्य पर भी सवाल खड़े हुए हैं.
समीक्षकों का कहना है कि आम लोगों का जो न्यायपालिका पर भरोसा है और इसके लिए इज़्जत है, उसे बचाए रखने में वकील और जज दोनों ही नाकाम रहे हैं.
जाने-माने स्तंभकार प्रताप भानु मेहता का मानना है कि आपातकाल के बाद सुप्रीम कोर्ट के लिए ये सबसे बड़ा संकट का समय है. आपातकाल सुप्रीम कोर्ट का सबसे ख़राब समय था जब उसे उस वक़्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आगे झुकना पड़ा था.
वो सही भी हो सकते हैं.
बेंगलूरू के एक लीगल सलाह देने वाले एडवाइज़री ग्रुप विधि लीगल पॉलिसी के शोधकर्ता आलोक प्रसन्ना कुमार के मुताबिक, "आपातकाल के समय सरकार ने जजों को डराकर कमज़ोर कर दिया था. लेकिन अब जो हम देख रहे हैं, वो एक अदरूनी संकट है "
प्रसन्ना के मुताबिक, "जिन जजों पर इस संस्था को बचाए रखने की जिम्मेदारी है, ऐसा लग रहा कि उन्हें एक दूसरे पर ही भरोसा नहीं है. ये इस महान संस्था को खोखला कर रहा है
सुप्रीम कोर्ट देश की न्यायपालिका की आखिरी सीढ़ी है, उसके पास संवैधानिक अधिकार हैं और आम लोगों के लिए ये बहुत महत्वपूर्ण है. ये सबसे व्यस्त कोर्ट भी है. साल 2015 में इसने 47,000 केसों का निपटारा किया. पिछले साल फरवरी तक सुप्रीम कोर्ट में 60,000 केस लंबित थे.
जांच की ज़रूरत
कई लोगों का मानना है कि ये दिखा रहा है कि लोगों का भरोसा न्यायपालिका में घट रहा है. कई भारतीय जजों को अब निष्पक्ष और ईमानदार नहीं मानते हैं. सुनवाई कई सालों तक या कई दशकों तक चल सकती है. ज़िला अदालतों में तीन करोड़ से ज़्यादा मामले लंबित हैं.
पिछले एक दशक में देश की आबादी और अर्थव्यवस्था बढ़ी है लोकिन सिविल मुकदमों की संख्या में कमी आई है. इससे ये लगता है कि ज़्यादातर लोग कोर्ट के बाहर पुलिस या चुने हुए नेताओं की मदद से ही विवाद सुलझा रहे हैं.
जानकारों के मुताबिक पिछले एक दशक में उच्च न्यायालय भी त्रुटिपूर्ण नज़र आने लगे हैं.
दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च और सुप्रीम कोर्ट पर एक किताब की लेखक शिलाशरी शंकर के मुताबिक "निचली अदालतें की हालत बुरी थी, लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट संदेह से परे थे. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा, जो कि डरावना है"
जब से मीडिया और स्वतंत्र संस्थाओं ने इन बड़ी अदालतों की समीक्षा शुरू हुई है, लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है. पिछले एक साल में ही ये कोर्ट कई गलत कारणों के चलते सुर्खियों में रहें हैं.
उनमें से कुछ विवाद हैं:
जनवरी में एक राज्य सरकार ने साल 2014 के कोर्ट के फैसले से अलग बैलों की लड़ाई से जुड़े एक खेल पर से रोक हटा दी थी. लोगों के भारी विरोध के बाद ये फैसला लिया गया था और वो खेल फिर से शुरू हो गया.
जून ने सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के एक वरिष्ठ जज से उसके सभी न्यायिक ताकतें छीन कर उन्हें जेल भेज दिया. कोर्ट ने उन्हें अवमानना का दोषी माना. जज ने पीएम को एक चिट्ठी लिखकर जजों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की थी.
होटलों और रेस्त्रां के विरोध के बाद सभी हाईवे पर शराब की बिक्री को रोकने वाले फैसले पर भी कोर्ट को दिसंबर में ढील बरतनी पड़ी थी. नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया, जिसका कई सिनेमा प्रेमियों ने विरोध किया.
कोर्ट को सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने में झिझक के कारण भी काफी विरोध हुआ है. समीक्षक कोलिजियम सिस्टम के ख़िलाफ भी बोलते रहे हैं जिससे अंतर्रत मुख्य न्यायाधीश समेत पांच सबसे वरिष्ठ जजों की कमिटी दो दर्जन से अधिक हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति करती है.
राजनीतिक दबाव
कोर्ट में अलिखित क्षेत्रीय और और लैंगिक कोटे और वकीलों और जजों के बीच अच्छे रिश्तों के लेकर भी काफी बातें होती हैं. जजों के मुताबिक उनपर राजनीतिक दबाव भी होता है और कई लोग रिटायरमेंट के बाद सम्मानीय सरकारी पदों पर भी जाते हैं.
इसके पीछे का मुख्य कारण जजों की कम तनख्वाह है. पिछले 67 सालों मे जजों की तनख्वाह सिर्फ चार बार बढ़ाई गई है, वो भी सांसदों की तुलना में कम रेट से.
इसके बाद ये भी आशंका जताई जाती है कि शीर्ष पदों पर बैठे जजों के पास काफी ज़्यादा काम होता है.
अपने किताब के लिए रिसर्च करते समय डॉक्टर शंकर ने पाया कि एक हाईकोर्ट जज दिन में करीब 100 केस सुनता है. एक हाई कोर्ट जज ने अपने साथ काम करने वाले को बताया कि उन्होंने एक दिन 300 केस सुने थे. सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने चार साल में अकेले 6000 केस सुने थे.
कुछ लोगों का मानना है कि जजों का कार्यकाल बहुत छोटा होता है, एक बड़ी कोर्ट में औसतन कार्यकाल चार साल से कम होता है जिसके कारण उनके अंदर अपने कोर्ट पर अधिकार की भावना नहीं आती और वो सही नेतृत्व नहीं कर पाते.
आलोक कुमार प्रसन्ना के मुताबिक, "इनती जल्दी एक संस्था का चार्ज लेना मुमकिन नहीं होता है"
बंटे हुए कोर्ट
कोर्ट के फैसले उदारपंथी और रूढ़िवादी मानकिसताओं का एक मिश्रण रहे है. कोर्ट ने गे सेक्स को नकार दिया लेकिन ट्रांस्जेडर को तीसरे जेंडर की तरह स्वीकृति दे दी. कोर्ट ने मनमाने तरीके से राष्ट्रगान को सिनेमा हॉल में बजाना अनिवार्य कर दिया, वहीं दूसरी तरफ निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार भी मान लिया.
अंत में, कई लोगों का कहना है कि पिछले कुछ दिनों की घटनाएं इस ओर इशारा कर रही हैं कि इस समय जब संस्थाए अपनी साख खोती जा रही हैं, कोर्ट आपस में बंटे हुए हैं और जनतंत्र में इनकी भूमिका चिंता का विषय है.
डॉक्टर शंकर के मुताबिक ये सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि न्यायपालिका लोगों को प्रति ज़िम्मेदार रहे.
शंकर के मुताबिक , "न्यायपालिका जनतंत्र से ऊपर नहीं है"