पद्मावत पर सुप्रीम फैसले के बावजूद करणी सेना के आगे क्यों दंडवंत हैं सरकारें?
संजीव श्रीवास्तव
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सभी राज्यों में रिलीज को हरी झंडी दिये जाने के बाद भी 'पदमावत' फिल्म के विरोध और उस पर हो रही सियासत ने एक बार फिर बड़ा सवाल ख़ड़ा कर दिया है कि देश में कानून की आखिरकार क्या बिसात है? जिस सिनेमा में हमने ना जाने कितनी बार यह संवाद सुनकर तालियां बजाईं कि "कानून के हाथ लंबे होते हैं", उसी सिनेमा में अभिव्यक्ति की आजादी को प्रतिबंधित करने के लिए कुछ लोग अब कानून के हाथ को ही काटने पर तुले हैं। लोकतांत्रित भारत में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की एक अहमियत रही है जिसकी सत्ता केंद्र सरकार के अधीन होती है। और हर दौर में सरकार की नीति के अनुकूल बोर्ड के चेयरमैन का चयन होता है इसके बावजूद सरकार के अंग में शामिल लोगों का सड़क पर उतरे विरोध आंदोलन में शामिल हो जाना तथा बोर्ड के अध्यक्ष के विवेक पर भरोसा नहीं किया जाना चौंकाता है और विरोध के भीतर ही अंतर्विरोध को दर्शाता है।
‘पद्मावत' का मुद्दा सिनेमाई से ज्यादा सियासी बन चुका है
यह माजरा अपने आप में ही दिखाता है कि ‘पद्मावत' का मुद्दा सिनेमाई से ज्यादा सियासी बन चुका है। कांग्रेस को फिल्म पर कोई आपत्ति नहीं है जबकि बीजेपी के कई नेताओं या मंत्रियों को आपत्ति है। इसी वजह से बीजेपी शासित चार राज्यों मसलन हरियाणा, गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इस फिल्म की रिलीज को प्रतिबंधित किया गया। जबकि फिल्म को कुछ संशोधनों के पश्चात् रिलीज की तारीख दे दी गई थी। उससे पहले बोर्ड द्वारा इतिहासकार संग बैठक हुई तथा संजय लीला भंसाली को दिल्ली तलब भी किया गया। इस पर भी बोर्ड के वर्तमान अध्यक्ष प्रसून जोशी की बुद्धिमत्ता पर सत्ताधारी दल के मंत्रियों को भी भरोसा क्यों नहीं हुआ?
फिल्म को जब बोर्ड से सर्टिफिकेट मिल गया है तो इसे रिलीज से क्यों रोका जा रहा है?
देश भर में छिड़ी बहस और विवाद के दौरान क्या यह नहीं समझा जाना चाहिये था फिल्म में इतिहास और संस्कृति या किसी की जातीय अस्मिता पर कुछ भी आपत्तिजनक होने पर बोर्ड उस पर स्वत: कैंची चला सकता है। या कोर्ट में जाकर उस कथित आपत्तिजनक दृश्य, गीत या संवाद को निकलवा जा सकता है। संभवत: इसीलिये सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही यह कहते हुये इस पर सुनवाई से इनकार कर दिया था कि बोर्ड के फैसले के बाद ही कोर्ट इस मसले पर कोई टिप्पणी कर सकता है, इसके बावजूद विरोध आंदोलन में ना तो कोर्ट, कानून और ना ही बोर्ड के नियमों की प्रतिष्ठा का ख्याल रखा गया।
अब
कोर्ट
ने
सीधा
यह
सवाल
किया
है
कि
जब
फिल्म
को
जब
बोर्ड
से
सर्टिफिकेट
मिल
गया
है
तो
इसे
रिलीज
से
क्यों
रोका
जा
रहा
है?
जिसके
बाद
कोर्ट
ने
सख्त
लहजे
में
कहा
है
कि
यह
अभिव्यक्ति
की
स्वतंत्रता
का
मामला
है।
फिल्म
को
रिलीज
से
नहीं
रोका
जा
सकता।
कोर्ट
के
फैसले
पर
फिल्म
समुदाय
के
साथ-साथ
कांग्रेस
पार्टी
ने
भी
खुशी
जताई।
हालांकि
कोर्ट
के
फैसले
पर
हरियाणा
और
राजस्थान
सरकार
को
भी
नरम
रुख
अपनाना
पड़ा
लेकिन
सियासी
मजबूरी
के
चलते
सीधे-सीधे
ये
सरकारें
‘पद्मावत'
के
आगे
दंडवत
नहीं
होना
चाह
रही
है।
फिल्म के जरिए वोट बैंक की राजनीति
राजस्थान में राजपूत समुदाय एक वोट बैंक रहा है जिसके नाराज होने पर प्रदेश में अगले चुनाव में बीजेपी को चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। यही मुद्दा बीजेपी शासित दूसरे राज्यों का भी है। इन राज्यों में भी ‘संस्कृति' और ‘इतिहास' का विषय एक ढाल का काम करता है। चूंकि इनसे जुड़े मसले बीजेपी को संवेदनशील लगती है लिहाजा इनका विरोध करना ही उन्हें श्रेयस्कर लगता है। यही हुआ ‘पद्मावती' या ‘पद्मावत' के मामले में। फिल्म को बिना देखे, उसकी कहानी को बिना जाने ‘संस्कृति' और ‘इतिहास' का मामला समझकर उसका विरोध शुरू हो गया। विरोध करने वालों ने कोर्ट और बोर्ड तक को धता बताया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा हरी झंडी के बाद भी राजपूत करणी सेना का देशव्यापी विरोध जारी
हैरत तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा हरी झंडी के बाद भी राजपूत करणी सेना का देशव्यापी विरोध जारी है। देश के कई भागों में फिल्म रिलीज के खिलाफ सिनेमा हॉल में तोड़ फोड़ हुई है। ऐसे में अब राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि कोर्ट के फैसले के आलोक में संजय लीला भंसाली की विवादित फिल्म ‘पद्मावत' के सुरक्षित रिलीज का अनुकूल माहौल तैयार करे। गौरतलब है कि दीपिका पडुकोण, शाहिद कपूर तथा रणवीर सिंह अभिनीत फिल्म ‘पद्मावत' गणतंत्र दिवस के मौके पर रिलीज हो रही है। यह फिल्म हिन्दी के साथ-साथ तमिल, तेलुगु भाषा में भी रिलीज हो रही है। कई महीने तक चले विवाद ने उल्टा फिल्म को बड़ा मौका प्रदान कर दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अक्षय कुमार अभिनीत ‘पैडमैन' जैसी सामाजिक संदेश प्रधान फिल्म को ‘पदमावत' अब कड़ी टक्कर दे देगी।