समलैंगिक जज की नियुक्ति करें या न करें, उलझन में सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली- सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को भले ही अपराध के दायरे से हटा दिया हो, लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट में एक 'गे' (समलैंगिक) जज की नियुक्ति को लेकर उसके कॉलेजियम में बहुत ज्यादा सावधानी बरती जा रही है। इस मामले में कॉलेजियम कितना फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा है, इस बात का अंदाजा इसी से लगता है कि पिछले 10 महीने में इस प्रस्ताव पर 3 बार फैसला टाला जा चुका है।
कई साल से 'गे' पार्टनर हैं उम्मीदवार
इकोनॉमिक टाइम्स में छपी एक खबर के मुताबिक इस समलैंगिक नामचीन वकील को दिल्ली हाई कोर्ट का जस्टिस नियुक्त करने के लिए इस बार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने सरकार से कुछ और अतिरिक्त जानकारी देने को कहा है। गौरतलब है कि उस समलैंगिक वकील को जज बनाने की सिफारिश दिल्ली हाई कोर्ट के कॉलेजियम ने 13 अक्टूबर, 2017 को ही सर्वसम्मति से कर दी थी। लेकिन, ये वकील पिछले कई वर्षों से अपने विदेशी पार्टनर के साथ रह रहे हैं, शायद इसी बात पर कॉलेजियम की कलम अटक जा रही है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले 4 सितंबर, 2018 को इस मामले पर विचार किया था। यह लगभग उसी समय की बात है, जब धारा-377 पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आया था। इसके बाद इस साल 16 जनवरी और 1 अप्रैल को भी यह मामला उसके सामने आया। अंतिम बार जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस एनवी रमाना ने बिना कोई कारण बताए इस प्रस्ताव को टाल दिया था।
आईबी रिपोर्ट से अटका मामला?
सूत्रों के मुताबिक हाई कोर्ट से उस वकील का नाम आने के बाद सरकार को मिली आईबी की रिपोर्ट में उनके पार्टनर के विदेशी होने का जिक्र था। प्रक्रिया के तहत यही आईबी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को भी भेजी गई थी। बताया जा रह है कि आईबी रिपोर्ट में इस बात की आशंका जताई गई कि उनके पार्टनर का विदेशी होना 'सुरक्षा के लिए खतरा' हो सकता है। पिछले दो महीने में कॉलेजियम ने आईबी की रिपोर्ट में 'सुरक्षा को खतरा' की आशंका पर कुछ और जानकारी मांगी है। जबकि, सरकार का मानना है कि आईबी की रिपोर्ट अपने आप में व्यापक है। सरकारी सूत्रों का मानना है कि विदेशी पार्टनर को लेकर 'सेक्युरिटी थ्रेट' के बारे में आईबी के पास और कोई ज्यादा जानकारी नहीं है। वैसे आईबी की यह आशंका कॉलेजियम पर बाध्य नहीं है। क्योंकि, उसी रिपोर्ट में उस वकील की प्रोफेशनल दक्षता को त्रुटिहीन और ईमानदारी को संदेह से परे बताया गया है।
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सुप्रीम कोर्ट ने दिया था ऐतिहासिक फैसला
बता दें कि पिछले साल सितंबर में तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाले संवैधानिक बेंच ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से हटा दिया था। इससे पहले आईपीसी की धारा-377 के तहत 'गे सेक्स' अपराध माना जाता था। यहां एक बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जस्टिस विवियन बोस की शादी एक विदेशी नागरिक से हुई थी, इसलिए सिर्फ विदेशी पार्टनर वाली बात ही अकेले उनके जज के तौर पर नियुक्ति में रुकावट की वजह नहीं हो सकती। जबतक कि कोई उसकी कोई पुख्ता वजह सामने न आए।
जजों की निजी राय क्या है?
एक सीनियर जज ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को किसी व्यक्ति की प्रोफेशनल दक्षता और ईमानदारी पर ध्यान देना चाहिए, न कि उसकी यौन इच्छाओं और विदेशी नागरिकों से संबंधों पर। इस संबंध में अखबार ने सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस को विस्तार से एक प्रश्नावली भी भेजी है, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। इस बीच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मदन लोकुर ने कहा है कि सिफारिशों को ज्यादा दिन तक टालने में कॉलेजियम को बहुत दिक्कत होती है। उन्होंने कहा है कि कॉलेजियम के पास एक मेधावी और योग्य उम्मीदवार को बिना किसी बाहरी कारणों से प्रभावित हुए चुनने का मौका है। जस्टिस लोकुर खुद भी कॉलेजियम के सदस्य रह चुके हैं।
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