उत्तर प्रदेश में 2022 के चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी के दिमाग में है ऐसा 'सॉलिड' समीकरण
नई दिल्ली- उत्तर प्रदेश में सात सीटों पर विधानसभा उपचुनाव का परिणाम देखने के बाद समाजवादी पार्टी ने अभी से 2022 की चुनावी रणनीति पर मंथन करना शुरू कर दिया है। इसके तहत उसका समाज के ऐसे वर्गों पर काम करने का इरादा है, जो फिलहाल अपने आपको कथित तौर पर उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। साथ ही साथ जिस तरह से हाल के वक्त में मायावती के सुर बदले-बदले लग रहे हैं, उसके चलते पार्टी मुसलमान वोटों का भी खुद को एकमात्र दावेदार बनाने में जुट गई है। बिहार में कांग्रेस का अंजाम देखने के बाद उसने अपनी रणनीति पर जल्द काम शुरू कर देने की तैयारी में ही भलाई समझी है, इसके तहत पार्टी एक ऐसा ठोस समीकरण बनाने की कोशिश में है, जो उसे फिर से लखनऊ का तख्त दिला सके।
उत्तर प्रदेश उपचुनाव में 7 सीटों में से विपक्ष को सिर्फ 1 सीट से संतोष करना पड़ा है, लेकिन समाजवादी पार्टी के पक्ष में ये बात गई है कि वह एक सीट उसे ही मिली है। इस चुनाव परिणाम के बाद पार्टी को यह भरोसा हो गया है कि 2022 में वही भारतीय जनता पार्टी की सबसे प्रबल विरोधी रहेगी। अखिलेश यादव की पार्टी ने पहली बड़ी कामयाबी तो परिवार के राजनीतिक विवाद को सुधार कर पाई है। उनका चाचा शिवपाल यादव से युद्ध विराम हो चुका है। यह इसलिए जरूरी था, क्योंकि 2017 के विधानसभा चुनाव में भी इस विवाद ने पार्टी को भारी नुकसान पहुंचाया था। अखिलेश का हौसला बढ़ा है कि उनका आधार यादव वोट बैंक अब एकजुट रहेगा। ऊपर से मायावती ने जिस तरह से दानिश अली और मुनकाद अली जैसे मुस्लिम नेताओं को वरिष्ट पदों से हटाया और भाजपा सरकार को राहत पहुंचाने वाले कुछ बयान दिए हैं, उससे उनको मुस्लिम वोटों का भी पार्टी के पक्ष में फिर से गोलबंद हो जाने का पक्का यकीन हो गया है। क्योंकि, सपा को लगता है कि प्रियंका गांधी ने प्रदेश में जितनी हवा बनाने की कोशिश की है, वह जमीन पर अभी तक फुस्स होता ही नजर आ रहा है। ऐसे में मुस्लिम वोटरों के पास समाजवादी पार्टी के अलावा विकल्प क्या बचेगा?
बसपा से मुसलमानों को पूरी तरह से दूर करने के लिए सपा की यह योजना है कि वह बार-बार मायावती को भाजपा की सहयोगी की तरह पेश करती रहेगी। पार्टी के प्रवक्ता उदयवीर सिंह ने ईटी से कहा भी है, 'सभी प्रगतिशील शक्तियों को लगता है कि मायावती का बीजेपी से कोई कनेक्शन है। नहीं तो उन्होंने सपा से गठबंधन को एकतरफा क्यों तोड़ लिया? उनका वह अंडरकरंट अब स्थापित हो चुका है।' गौरतलब, है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में 26 साल की सियासी दुश्मनी भुलाकर मायावती और मुलायम एक मंच पर आए थे। दोनों दलों ने भाजपा को हराने के लिए गठबंधन किया था। लेकिन, फिर भी बीजेपी के विजय रथ को रोक पाने में नाकाम रहे। ऊपर से मायावती ने 10 सीटें जीतने के बाद एकतरफा गठबंधन से बाहर निकलने का ऐलान कर दिया था।
अखिलेश यादव की पार्टी इस विचार को मानकर भी आगे बढ़ रही है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ चुनाव लड़ने से मायावती के कोर वोटरों का सपा को वोट नहीं देने का मिथक अब टूट चुका है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 'सपा को वोट करके साइकिल सिंबल को लेकर वह अपनी नफरत को खत्म कर चुके हैं।' इसके अलावा पार्टी उन ब्राह्मण वोटरों को भी अपने पाले में करने की रणनीति पर काम कर रही है, जिनके बारे में दावा किया जाता है कि वो मौजूदा योगी आदित्यनाथ सरकार में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। मसलन, अपने परंपरागत वोट बैंक मुस्लिम-यादव गठजोड़ को मजबूत करने के दम के साथ ही समाजवादी पार्टी इस बार कुछ दलितों और ब्राह्मण वोटरों पर भी डोरे डालना चाहती है। ये दोनों कभी भी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ खुलकर खड़े नहीं हुए हैं। अलबत्ता, मायावती इस समीकरण के दम पर 2007 में अपनी मजबूत सरकार भी बना चुकी हैं।
अभी तक की योजना के मुताबिक 2022 में अखिलेश की समाजवादी पार्टी और उनके चाचा की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी गठबंधन के तहत चुनाव लड़ेगी। जाहिर है कि इससे यादव बहुल इलाकों में सपा की ताकत काफी मजबूत होगी। वहीं, 2017 में कांग्रेस के साथ हुआ गठबंधन और बिहार में इस चुनाव में राजद का हाल देखने के बाद पार्टी इस बार यूपी में कोई 'गलती' करने के लिए अबतक तैयार नहीं है।
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