'ख़ून से इतिहास लिखने वाले' करणी सेना के लोकेंद्र कालवी की कहानी
करणी सेना प्रमुख लोकेंद्र सिंह कालवी अच्छे निशानेबाज़ है लेकिन अक्सर वो सियासी निशाना क्यों चूक जाते हैं?
जब वे शौर्य और बलिदान का बखान करते हैं, उनके समर्थक भावों से भर जाते हैं. वे अच्छे निशानेबाज़ हैं लेकिन अक्सर सियासी निशाना चूक जाते हैं.
करणी सेना के संस्थापक लोकेन्द्र सिंह कालवी अपनी ज़बान से जज़्बात और जुनून पैदा कर देते हैं. अपनी इस शैली से कालवी ने बड़ा समर्थक वर्ग खड़ा कर लिया है, लेकिन उनके आलोचक भी हैं.
लम्बी कद काठी और राजपूती लिबास के साथ जब वे सभा में नमूदार होते हैं, बरबस ही उनकी तरफ लोगों का ध्यान चला जाता है.
जब वे कहते हैं, "मुझे रानी पद्मिनी की 37वीं पीढ़ी से होने का सौभाग्य प्राप्त है. जौहर की ज्वाला में बहुत कुछ जल जाएगा. रोक सको तो रोको," तो उनके समर्थक हुंकार भरने लगते हैं.
'खून से इतिहास लिखा'
यूँ तो उनकी शारीरिक बनावट उन्हें एक ख़ास पहचान देती है. मगर ख़ुद भी वह अपने वज़न और क़द का उल्लेख करना नहीं भूलते. कालवी सभाओं और जलसों में कहते हैं, 'मैं छह फुट चार इंच 118 किलो का आपके सामने खड़ा हूं."
वह गाँधी का ज़िक्र करते हैं तो इतिहास के उन किरदारों का उल्लेख भी करते हैं, जिन्हें सुनकर राजपूत युवक जोश में भर जाते हैं. वह कहते हैं, "हमने सिर कटवाए हैं मालिक! खून से इतिहास लिखा है."
अपने समाज के मुद्दों को लेकर कालवी पिछले डेढ़ दशक से काफी मुखर रहे हैं. भड़काऊ मुद्दे उन तक चले आते हैं या वो खुद ऐसे मुद्दों तक चले जाते हैं. वह जोधा अकबर फ़िल्म के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर सुर्खियों में आए थे. मगर फिल्म पद्मावत मुद्दे ने उनकी सुर्खियों का फलक बड़ा कर दिया.
मध्य राजस्थान के नागौर जिले के कालवी गांव में जन्मे लोकेन्द्र सिंह कालवी को यह सब विरासत में मिला है. उनके पिता कल्याण सिंह कालवी थोड़े-थोड़े वक्त के लिए राज्य और केंद्र में मंत्री रहे हैं.
लोकेन्द्र के पिता चंद्रशेखर सरकार में थे मंत्री
कल्याण सिंह कालवी चंद्रशेखर सरकार में मंत्री रहे थे और वह चंद्रशेखर के भरोसेमंद साथी भी थे. इसलिए अपने पिता के असमय चले जाने के बाद लोकेन्द्र सिंह कालवी को पूर्व प्रधानमंत्री के समर्थकों ने हाथोहाथ लिया.
वे अजमेर के मेयो कॉलेज में पढ़े हैं. मेयो कॉलेज तालीम के लिहाज़ से पूर्व राजपरिवारों का पसंदीदा स्थान रहा है.
कालवी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में सहजता से अपनी बात कहते हैं. कम लोग जानते होंगे कि वे बॉस्केटबॉल के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं. इस राजपूत नेता की नज़र और हाथ शूटिंग के लिए बहुत मुफीद हैं.
कालवी को निशानेबाज़ी ने कुछ तमगे भी दिलवाए हैं. लेकिन यह विडंबना ही है कि जब-जब उन्होंने चुनाव लड़ा, निशाना ठीक नहीं बैठा.
कालवी नागौर से लोकसभा के लिए चुनाव मैदान में उतरे और हार गए. फिर 1998 में कालवी ने बीजेपी उम्मीदवार के रूप में बाड़मेर से संसद में जाने की कोशिश की पर शिकस्त मिली.
बीजेपी से कांग्रेस, कांग्रेस से बीजेपी
बाड़मेर उनके पिता का चुनाव क्षेत्र रहा है. बीच-बीच में कुछ महीनों की शिथिलता छोड़ दें तो अक्सर उनके हाथ में कोई अभियान रहा है.
साल 2003 में कालवी ने कुछ राजपूत नेताओं के साथ मिलकर सामाजिक न्याय मंच बनाया और ऊंची जातियों के लिए आरक्षण की मुहिम शुरू की. तब वे प्राय मंचों पर कहते मिलते थे, "उपेक्षित को आरक्षण, आरक्षित को संरक्षण."
इस अभियान से बीजेपी से रिश्ता टूट गया. फिर वे कांग्रेस में चले आए और अब फिर बीजेपी में हैं. मगर इन दोनों पार्टियों में वे अपनों के बीच पराये से रहे हैं. उन्हें पार्टी दफ्तरों में नहीं देखा जाता.
राजपूत समाज के मुद्दों पर उनकी सक्रियता और मुखरता ने उन्हें एक खास पहचान दी है. लेकिन जब बीजेपी ने बीते लोकसभा चुनाव में बाड़मेर से पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह का टिकट काट दिया, तब कालवी या तो चुप थे या पार्टी के इस फैसले पर सहमत थे.
इसे लेकर राजपूत समाज में उनकी बड़ी आलोचना हुई. सिंह के एक समर्थक कहते हैं, ''कालवी ने बाड़मेर में जसवंत सिंह के विरुद्ध चुनाव प्रचार में भाग लिया. इसे हम भूल नहीं सकते. मगर जब जयपुर के पूर्व राजपरिवार की दिया कुमारी और बीजेपी सरकार के बीच एक संपत्ति को लेकर जंग छिड़ी तब कालवी पूर्व राजपरिवार के साथ खड़े मिले.''
मेहमाननवाज़ी कालवी की शख़्सियत का हिस्सा
मेहमाननवाज़ी उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है. उनके इस काम में राजपूत आतिथ्य की झलक मिलती है. उन्हें कोई व्यसन नहीं है. वे शराबनोशी से बहुत दूर हैं. हालांकि उनके आलोचक कहते हैं कि वह राजस्थान में जातिवाद को प्रोत्साहित कर रहे हैं.
उनके साथ काम कर चुके एक राजपूत नेता कहते हैं, "उनकी याददाश्त गजब की है. उन्हें सैकड़ों फोन नंबर मुँह ज़बानी याद हैं."
राजपूत समाज के एक नेता कहते हैं, "वो बहुत परिश्रमी हैं. वो बहुत घूमे हैं. राजस्थान का तो चप्पा-चप्पा छान चुके हैं. वो एक कुशल चालक भी हैं. जब गाड़ी का स्टीरिंग उनके हाथ में हो, वो दुर्गम रेगिस्तान में बहुत रफ्तार से गाड़ी दौड़ाते हैं."
लेकिन उनके समर्थकों को एक ही मलाल और इंतज़ार है कि उनकी गाड़ी सियासी मंजिल पर कब पहुंचेगी.
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