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बांग्लादेश की पहली अंतरिम सरकार जब बंदूक़ों के साए में भारत की मदद से बनी

17 अप्रैल 1971 को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने कड़ी सुरक्षा के बीच शपथ ली थी. इसके लिए भारत में बीएसएफ़ के आला अधिकारियों ने कड़ी मेहनत की थी. पूरी कहानी बता रहे हैं रेहान फ़ज़ल विवेचना में.

By BBC News हिन्दी
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पाँच दिन घोड़े पर और पैदल चलने के बाद 31 मार्च, 1971 की शाम अवामी लीग के नेता ताजुद्दीन अहमद और अमीरुल इस्लाम भारतीय सीमा के पास एक पुलिया के पास बैठे थे. दोनों नंगे पैर थे. उन्होंने एक लुंगी और बनियान पहन रखी थी. उनका एक संदेशवाहक सीमा पार संपर्क स्थापित करने के लिए गया हुआ था.

story of first interim government of Bangladesh

ताजुद्दीन थोड़े परेशान थे लेकिन उनके साथी अमीरुल इस्लाम ने उनसे कहा, 'सूरज डूब रहा है, लेकिन जल्द ही एक नया सवेरा शुरू होगा.' जैसे ही अँधेरा घिरा उन्हें अपनी तरफ़ आती कुछ बूट्स की आवाज़ सुनाई दी. थोड़ी देर में हथियारबंद सैनिकों का एक छोटा झुंड उनके सामने था. उनका नेतृत्व कर रहे थे सीमा सुरक्षा बल के एक आला अधिकारी गोलोक मजमुदार.

ताजुद्दीन ने उन्हें पूर्वी पाकिस्तान के हालात के बारे में बताया और अवामी लीग नेताओं ओर राष्ट्रीय असेंबली सदस्यों की एक सूची उन्हें सौंपी. 30 और 31 मार्च की रात 12 बजे सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक केएफ़ रुस्तमजी ताजुद्दीन अहमद से मिलने दिल्ली से कलकत्ता पहुंचे. गोलोक मजमुदार ने उन्हें रिसीव किया. वो उन्हें हवाईअड्डे के बाहर खड़ी एक जीप के पास लाए जिसमें ताजुद्दीन अहमद बैठे हुए थे.

केएफ़ रुस्तमजी अपनी किताब 'द ब्रिटिश, बैंडिट्स एंड द बॉर्डरमैन' में लिखते हैं, "हम ताजुद्दीन अहमद और अमीरुल इस्लाम को अपने साथ असम हाउस लाए. मैंने उन्हें अपने कुर्ते पजामे दिए जिसे उन्होंने नहाने के बाद पहन लिया."

"गोलोक ने उन दोनों के लिए ऑमलेट बनाया. अगले दो दिनों तक उन दोनों ने हमें पूर्वी पाकिस्तान में जो कुछ हुआ था, उसकी कहानी सुनाई. 1 अप्रैल को ताजुद्दीन और इस्लाम को एक पुराने सैनिक विमान में बैठा कर दिल्ली लाया गया और वहाँ बीएसएफ़ के एक सेफ़ हाउस में ठहरा दिया गया. इससे पहले गोलोक और मैंने न्यू मार्केट जाकर उनके सारे कपड़े ख़रीदे."

"गोलोक ने मुझसे कहा भी कि हम लोग उनका ऐसा ध्यान रख रहे हैं, मानो हम अपनी लड़की को उसके पति के यहाँ भेज रहे हों. मैंने गोलोक से कहा दिल्ली के लोगों ने पिछले 23 सालों से स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं देखा है. आज की पीढ़ी उस शख़्स के बारे में अच्छे विचार नहीं रखती जिसने ढंग के कपड़े न पहन रखे हों."

ताजुद्दीन अहमद की इंदिरा गाँधी से मुलाक़ात


4 अप्रैल की शाम ताजुद्दीन अहमद को इंदिरा गाँधी से मिलने उनके 1 अकबर रोड स्थित दफ़्तर में ले जाया गया. इंदिरा गांधी ने ताजुद्दीन अहमद को वह सम्मान दिया जो किसी शासनाध्यक्ष को दिया जाता है.

हाल ही में एक किताब 'बांग्लादेश वॉर रिपोर्ट फ़्रॉम ग्राउंड ज़ीरो' लिखने वाले मानश घोष बताते हैं, "इंदिरा गाँधी ने ताजुद्दीन अहमद से पूछा क्या वो जल्द से जल्द निर्वासन में सरकार बनाने के बारे में सोच रहे हैं? इससे पहले कि इंदिरा गाँधी अपना वाक्य पूरा कर पातीं, ताजुद्दीन अहमद ने कहा, बांग्लादेश सरकार पहले से ही अस्तित्व में है."

लेकिन इंदिरा गाँधी का तर्क था कि इस सरकार के बारे में कोई भी नहीं जानता है. अंतर विश्वस्नीयता और स्वीकार्यता बनाने के लिए ये ज़रूरी है कि ये सरकार अंतरराष्ट्रीय मीडिया की नज़रों के सामने शपथ ले और वो भी पूर्वी पाकिस्तान के उस इलाके में जिस पर स्वतंत्रता सेनानियों का नियंत्रण हो. ताजुद्दीन ने कहा मैं भी आपसे यही कहने वाला था लेकिन ये सोचकर झिझक रहा था कि इस तरह की सरकार बनाने का मतलब होगा भारत को इसका पूरा सहयोग.

इंदिरा गाँधी ने वहाँ मौजूद अफ़सरों ख़ासकर रुस्तमजी से कहा कि ताजुद्दीन अहमद को पूरी सहायता उपलब्ध कराई जाए. दिल्ली में ही ताजुद्दीन अहमद ने बांग्लादेश के लोगों के लिए एक भाषण रिकॉर्ड करवाया.

11 अप्रैल, 1971 को बीएसएफ़ द्वारा दिए गए स्वाधीन बांग्ला बेतार केंद्र से ये भाषण प्रसारित किया गया जिसमें ताजुद्दीन ने बताया कि एक शक्तिशाली सेना बनाई जाएगी जिसमें ईस्ट बंगाल रेजिमेंट और ईस्ट पाकिस्तान राइफ़ल्स के जवानों को शामिल किया जाएगा.

9 अप्रैल को ताजुद्दीन कलकत्ता वापस लौट आए. उनको और उसके बाद आने वाले सभी अवामी लीग नेताओं को एक होटल में ठहराया गया. जल्द ही होटल में रहने वाले मेहमानों की संख्या बढ़कर 50 हो गई.

देश के नाम और राष्ट्रगान पर सहमति


बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के लिए राष्ट्रपति प्रणाली को चुना गया. सीमा सुरक्षा बल के प्रमुख कानून अधिकारी कर्नल एनएस बैंस ने उसका संविधान लिखा जिसे कलकत्ता के एक बैरिस्टर सुब्रता रॉय चौधरी ने हरी झंडी दी. सवाल उठा कि आज़ादी के बाद पूर्वी पाकिस्तान का नाम क्या रखा जाए. केएफ़ रुस्तमजी लिखते हैं, "किसी ने नाम सुझाया 'ईस्ट बंगाल.' किसी ने सुझाव दिया 'बंग भूमि.' एक साहब ने सिर्फ़ 'बंगा' नाम सुझाया."

"कुछ ने कहा इसका नाम 'स्वाधीन' बाँगला रखा जाए. लेकिन किसी भी नाम पर सहमति नहीं बनी. आख़िर में ताजुद्दीन अहमद ने 'बांग्लादेश' नाम सुझाया. सब लोग इस नाम पर तुरंत राज़ी हो गए. इसके पीछे वजह ये थी कि एक बार शेख़ मुजीब ने भी इस नाम का इस्तेमाल किया था. उसी बैठक में देश के राष्ट्र गान का भी चुनाव हुआ. इसके लिए दो गीतों पर विचार हुआ. पहला गीत था द्वीजेंद्र नाथ रॉय का 'धानो, धान्ये पुष्पे बोरा' और दूसरा गीत था रबींद्रनाथ टैगोर का 'आमार शोनार बांग्ला.' आख़िर में टैगोर के गीत पर सहमति बनी, क्योंकि ये शेख़ मुजीब का भी पसंदीदा गीत था."

बैद्यनाथ ताल को शपथ ग्रहण समारोह के लिए चुना गया


इंदिरा गाँधी से मिलने के तुरंत बाद ताजुद्दीन बीएसएफ़ द्वारा दिए गए एक डकोटा विमान से मेघालय में तुरा के लिए रवाना हो गए. वहाँ उन्होंने अवामी लीग के नेता सैयद नज़रुल इस्लाम से मुलाकात कर उन्हें निर्वासित सरकार का कार्यवाहक राष्ट्रपति बनने के लिए मना लिया. इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक कई शरणार्थी शिविरों का दौरा कर दूसरे वरिष्ठ अवामी लीग नेताओं को ढूंढना शुरू कर दिया.

अब सवाल था कि कब और कहाँ शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया जाए? पहले चुआदंगा को इसके लिए चुना गया लेकिन कुछ दिन पहले पाकिस्तानी विमानों ने इस कस्बे में मौजूद ईस्ट पाकिस्तान राइफ़ल्स के ठिकाने पर नापाम बम गिरा कर उसे नेस्तोनाबूद कर दिया था.

इसलिए चुआदंगा का विचार त्याग दिया गया. सीमा सुरक्षा दल के आला अधिकारियों रुस्तमजी और गोलोक ने पूर्वी पाकिस्तान के नक्शे का बारीकी से अध्ययन करने के बाद वो जगह ढूंढी जिस पर स्वतंत्रता सेनानियों का अभी तक नियंत्रण था.

संचालन और सुरक्षा कारणों से ज़रूरी था कि ये जगह भारतीय सीमा के क़रीब हो और सड़क मार्ग से जुड़ी हो ताकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया और शपथ लेने वाले मंत्रियों को आसानी से वहाँ पहुंचाया जा सके. आख़िर में वो जगह चुनी गई जो तीन तरफ़ से पश्चिम बंगाल के नादिया ज़िले से घिरी हुई थी. ये जगह मेहरपुर कस्बे के पास बैद्यनाथताल में आम के घने बागों के बीच थी.

60 कारों में पत्रकारों को शपथ स्थल पर ले जाया गया


मानश घोष बताते हैं, "सीमा सुरक्षा बल के जनसंपर्क एससी बसु ने कलकत्ता में मौजूद सभी विदेशी पत्रकारों से 16 अप्रैल की शाम को उनके होटल के कमरे में व्यक्तिगत रूप से संपर्क किया और उन्हें 17 अप्रैल की सुबह 4 बजे कलकत्ता प्रेस क्लब पर इकट्ठा होने के लिए कहा. देर से संपर्क करने की वजह ये थी कि कहीं इसकी भनक पाकिस्तान सरकार को न लग जाए. विदेशी पत्रकारों को बताया गया कि उन्हें एक अज्ञात जगह पर एक ख़ास ख़बर लेने के लिए ले जाया जाएगा. उस ज़माने में कलकत्ता में निजी टैक्सियाँ नहीं चला करती थीं. किराए पर निजी कारें ज़रूर मिल जाती थीं."

"करीब 200 पत्रकारों को शपथ ग्रहण समारोह में ले जाने के लिए क़रीब 60 कारों की ज़रूरत थी. रुस्तमजी इस काम के लिए इतनी अधिक संख्या में सरकारी कारों का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे क्योंकि इससे इस मिशन के गुप्त रहने की संभावना बहुत कम रह जाती. गोलक मजमुदार ने अपने दोस्त निहार चक्रवर्ती की मदद ली और उन्होंने अपने दोस्तों और अपने शुभचितकों से संपर्क कर एक दिन के लिए ड्राइवरों सहित 60 कारों का इंतेज़ाम किया. सुबह 4 बजे ये कारें अपने गंतव्य स्थान के लिए रवाना हुईं. ड्राइवरों को ये तक नहीं बताया गया कि प्रेस क्लब से निकलने के बाद उन्हें कौन सा रास्ता लेना है. उनसे बस ये कहा गया कि वो रुस्तमजी और गोलक मजमुदार की कारों के पीछे चलें."

जनरल ओस्मानी के लिए सैनिक वर्दी सिलवाई गई


रुस्तमजी और मजमुदार की कार के ठीक पीछे अवामी लीग के उन नेताओं की कारें चल रही थीं जिन्हें शपथ लेनी थीं.

लेकिन बांग्लादेश के सेनाध्यक्ष जनरल ओस्मानी एक अलग ही समस्या से जूझ रहे थे. अवामी लीग के वरिष्ठ नेता अमीरुल इस्लाम ने 'प्रोथमालो' में छपे अपने लेख में लिखा, "ओस्मानी के पास कोई सैनिक वर्दी नहीं थी. हमने सीमा सुरक्षा बल से कहा कि वो उनके लिए एक वर्दी का इंतज़ाम करवाएं. लेकिन उनके पास भी ओस्मानी के नाप की कोई वर्दी नहीं थी. तुरंत कपड़ा ख़रीदा गया और 16 अप्रैल की रात भर बैठ कर एक दर्ज़ी ने जनरल ओस्मानी की वर्दी सिली."

जब 11 बजे मोटरों का काफ़िला आम के बाग़ के पास पहुँचा तो वहाँ पर बीएसएफ़ के जवानों ने पेड़ की डालों पर पोजिशन ली हुई थी.

मानश घोष बताते हैं, ''वहाँ पर विमानभेदी तोपें लगी हुई थीं और भारतीय वायु सेना के विमान आसमान में चक्कर लगा रहे थे. इस बात का डर था कि कहीं पाकिस्तानी विमान इस जगह पर हवाई हमला न कर दें. ये जगह भारतीय सीमा से कुछ सौ ग़ज़ की दूरी पर थी. जब विदेशी पत्रकार वहाँ उतरे तो उनकी समझ में नहीं आया कि उन्हें इतनी दूर क्यों लाया गया है?''

बाग़ के एक कोने में ईस्ट पाकिस्तान राइफ़ल का एक जत्था गंदी पुरानी ख़ाकी वर्दी पहने गार्ड ऑफ़ ऑनर देने का अभ्यास कर रहा था. दूसरे कोने पर कुछ लोग बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार शोनार बांग्ला' गाने का अभ्यास कर रहे थे. उनके पास कोई संगीत वाद्य नहीं था.

अचानक गोलक के पास फ़रमाइश आई कि वो नज़दीक के भारतीय गाँव से एक तबला और हारमोनियम का इंतेज़ाम करें. वहाँ पर बैटरी से चलने वाले साउंड सिस्टम को टेस्ट किया जा रहा था. वहाँ पर लकड़ी का एक अस्थाई चबूतरा बनवाया गया था जहाँ सात या आठ कुर्सियाँ रखी हुई थीं. पास ही ताज़ा कटे बाँस से झंडे का खंभा बनाया गया था जिसके ऊपर के सिरे पर बाँगलादेश का झंडा लिपटा हुआ था.

नज़रुल इस्लाम और सभी मंत्रियों को शपथ दिलाई गई


रुस्तमजी और गोलोक भारतीय सीमा के अंदर ही रुक गए थे ताकि बांग्लादेशी अपने इतिहास के इस बड़े क्षण को अपने आप जी सकें. वो बांग्लादेश के लोगों से कह रहे थे कि वो जल्दी-जल्दी समारोह ख़त्म करें क्योंकि उन्हें उसी दिन एक दूसरे काम से कलकत्ता वापस पहुँचना था.

सबसे पहले नज़रुल इस्लाम को प्रोफ़ेसर यूसुफ़ अली ने कार्यवाहक राष्ट्रपति की शपथ दिलवाई. इसके बाद नज़रुल इस्लाम ने ताजुद्दीन अहमद और दूसरे मंत्रियों को शपथ दिलाई.

बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत गाया गया और राष्ट्रीय झंडा फहराया गया. इसके बाद दीनाजपुर से अवामी लीग के नेशनल असेंबली के सदस्य प्रोफ़ेसर यूसुफ़ अली ने मंच संभाला और स्वतंत्रता की उद्घोषणा पढ़ने लगे.

ये निर्वासन में काम कर रही बांग्लादेश की सरकार की तरफ़ से पहली उद्घोषणा थी. बैद्यनाथ ताल का नया नाम 'मुजीब नगर' रखा गया. वहाँ पर उस समय क़रीब 10000 लोग मौजूद थे. उन लोगों ने एक स्वर से 'जौय बांग्ला' का नारा लगाया. नज़रूल इस्लाम को उन सैनिकों ने गार्ड ऑफ़ ऑनर दिया जो सुबह से इसका अभ्यास कर रहे थे. इसके बाद नज़रुल इस्लाम और ताजुद्दीन अहमद ने मंत्रिमंडल के अपने सहयोगियों के साथ तस्वीरें खिंचवाईं.

मंत्रियों को कलकत्ता में रहने के लिए घर दिए गए


शपथ ग्रहण के बाद सभी मंत्री शाम साढ़े छह बजे तक कलकत्ता लौट आए. मंत्रियों और उनके परिवारों को कलकत्ता के अलग-अलग स्थानों में रहने के लिए घर दिए गए.

चंद्रशेखर दासगुप्ता अपनी किताब 'इंडिया एंड द बांग्लादेश लिबरेशन वॉर' में लिखते हैं, "सिर्फ़ ताजुद्दीन अपने परिवार से अलग अपने दफ़्तर के ही एक कमरे में रहते थे और हर समय काम करते ही दिखाई देते थे."

"कर्नल ओस्मानी ने भी थियेटर रोड वाले दफ़्तर में अपना मुख्यालय बना लिया था और एक कैंप कॉट पर सोया करते थे. 25 अप्रैल को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार को एक मीडियम वेव ट्रांसमीटर मिल गया था जिसके ज़रिए कलकत्ता से बांग्लादेश के लोगों के लिए लगातार प्रसारण किए जाते थे."

जस्टिस अबू सईद चौधरी को मुजीबनगर सरकार का विशेष दूत बनाया गया था और उन्हें बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के लिए अंतरराष्ट्रीय सहायता प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी.

कलकत्ता में पाकिस्तान के उप उच्चायोग के बंगाली कर्मचारियों के 'डिफ़ेक्शन' की मुहिम


लेकिन अभी रुस्तमजी और गोलोक मजमुदार का काम ख़त्म नहीं हुआ था. अब उनको वो काम करना था जिसके लिए वो मुजीब नगर से तुरंत कलकत्ता लौट जाना चाहते थे. रुस्तमजी और गोलोक कलकत्ता स्थित पाकिस्तानी उप उच्चायोग के बंगाली कर्मचारियों का बड़ी तादाद में भारत में 'डिफ़ेक्शन' कराने की मुहिम में लगे हुए थे.

इससे पहले दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग के दो राजनयिकों केएम शहाबुद्दीन और अमज़दुल हक़ ने उच्चायोग छोड़ कर बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के साथ अपनी निष्ठा ज़ाहिर कर दी थी.

पाकिस्तानी उच्चायोग के लोगों ने उनका सामान बाहर सड़क पर फेंक दिया था और दिल्ली में रह रहे दो वरिष्ठ पत्रकारों दिलीप मुखर्जी और निखिल चक्रवर्ती ने उन्हें अपने घर में शरण दी थी.

वहीं से रुस्तमजी के मन में विचार आया कि क्यों न कलकत्ता में पाकिस्तानी उप उच्चायोग के प्रमुख हुसैन अली को 'डिफ़ेक्ट' करने के लिए प्रेरित किया जाए. वो चाहते थे कि हुसैन अपने सभी कर्मचारियों के साथ बांग्लादेश की नई सरकार के प्रति अपनी वफ़ादारी ज़ाहिर कर दें. गोलोक ने उप उच्चायुक्त हुसैन अली के साथ गेलॉर्ड रेस्तरां में दो बार मुलाक़ात की.

हुसैन अली को था पिटाई का डर


लेकिन हुसैन ये फ़ैसला लेते हुए हिचक रहे थे. मानश घोष बताते हैं, ''हुसैन को डर था कि कहीं उप उच्चायोग का ग़ैर बंगाली स्टाफ़ उनकी और उनकी पत्नी की पिटाई न कर दे. उनको इस बात का भी डर था कि पार्क सर्कस में रहने वाले स्थानीय लोग उनके ख़िलाफ़ न हो जाएं. गोलोक ने हुसैन को आश्वस्त किया कि वो उप उच्चायोग की चारों ओर कड़ी सुरक्षा लगा देंगे.''

लेकिन जब विदेश मंत्रालय के अधिकारियों को रुस्तम-गोलोक की योजना के बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें इसमें हाथ न डालने की सलाह दी. उनका मानना था कि ये विदेश मंत्रालय का मामला है, जिसमें सीमा सुरक्षा बल के आला अधिकारी बिना वजह अपनी टांग अड़ा रहे हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की बारीकियों का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं है.

उनकी तरफ़ से की गई मामूली ग़लती से भारत को शर्मसार होना पड़ेगा. बाद में गोलोक मजमुदार ने एक इंटरव्यू में बताया, जब रुस्तमजी ने फ़ोन कर इंदिरा गांधी को इस बारे में बताया तो वो ये सुन कर बहुत ख़ुश नहीं हुईं. फ़ोन पर उनकी ऊँची आवाज़ मुझे साफ़ सुनाई दे रही थी.

वो कह रही थीं. आप इस मामले से अपने को दूर रखें. अगर आपसे मामूली सी भी ग़लती हो गई तो इसके परिणाम को संभालना मेरे लिए बहुत मुश्किल होगा. लेकिन रुस्तमजी और मैंने आपस में तय किया कि हम इंदिरा गांधी को शिकायत का मौक़ा नहीं देंगे.

18 अप्रैल को 'डिफ़ेक्शन' की तारीख़ चुनी गई


उधर हुसैन अली की चिंता थी कि अगर वह और उनके लोग पाकिस्तानी उप-उच्चायोग से बाहर आ जाते हैं तो उनका वेतन कौन देगा? वो इस बारे में ताजुद्दीन अहमद से मिलना चाहते थे.

भारतीय अधिकारियों ने उनकी ताजुद्दीन से एक बैठक कराई. के एफ़ रुस्तमजी लिखते हैं, "ताजुद्दीन अहमद को भारतीय स्टेट बैंक में अपना खाता खोलने की अनुमति नहीं मिली क्योंकि वो भारत के नागरिक नहीं थे. मैंने दिल्ली जाकर वित्त मंत्रालय में बैंकिंग सचिव अर्धेनु बख्शी से मुलाक़ात की."

रिज़र्व बैंक के गवर्नर से मिलकर सारी योजना बना ली गई. डिफ़ेक्शन से एक दिन पहले यानी 17 अप्रैल को कलकत्ता में अमेरिकन बैंक में उप उच्चायुक्त के खाते से तीन करोड़ रुपए निकाल कर स्टेट बैंक की चौरंघी शाखा में जमा करा दिए गए.

दो दिन बाद वहाँ उप उच्चायुक्त बांग्लादेश के नाम से एक खाता खोल दिया गया. हुसैन अली के 'डिफ़ेक्शन' के लिए 18 अप्रैल की तारीख़ चुनी गई. इस तारीख़ को चुनने का एक कारण ये भी थी कि चारों तरफ़ अफ़वाहें फैली हुई थीं कि हुसैन अली और उप-उच्चायोग के बंगाली स्टाफ़ का इस्लामाबाद ट्रांसफर किया जा रहा है. गोलोक ने हुसैन अली की हिम्मत बढ़ाते हुए कहा कि उनका ये क़दम दूसरे देशों में पाकिस्तान के उच्चायोग के बंगाली कर्मचारियों के लिए एक रोल मॉडल का काम करेगा. शुरू में झिझकने के बाद हुसैन अली इसके लिए तैयार हो गए.

गोलोक मजमुदार ने बूट पॉलिश वाले का भेष बनाया


अब ये सुनिश्चित किया जाना था कि पाकिस्तानी उप उच्चायोग से बंगाली कर्मचारियों का 'डिफ़ेक्शन' और उच्चायोग के भवन पर बांग्लादेश के ध्वज का ध्वजारोहण साथ-साथ हो.

मानश घोष बताते हैं, ''18 अप्रैल को गोलोक मजमुदार ने उप उच्चायोग के बाहर फुटपाथ पर एक बूट पॉलिश करने वाले के भेष में अपने आपको तैनात कर दिया. वो कई तरह की पॉलिश और ब्रशों के साथ वहाँ डिब्बा लगा कर बैठ गए. उन्होंने एक गंदा और फटा हुआ कुर्ता पहना और सिर पर टोपी लगा ली. वो वहाँ से गुज़रने वाले लोगों से कहते, 'एक रुपए में जूता पॉलिश करवा लो."

"जूता पॉलिश वाले का उनका भेष इतना ज़बरदस्त था कि वहाँ पर मॉर्निंग वॉकर के भेष में टहल रहे रुस्तमजी भी उन्हें नहीं पहचान पाए. थोड़ी देर बाद दोनों ने देखा कि हुसैन अली अपनी पत्नी और 65 अन्य कर्मचारियों के साथ उप उच्चायोग भवन की छत पर पहुँचे और 'जौय बांग्ला' के नारे के बीच बांग्लादेश का ध्वज फहरा दिया."

कलकत्तावासी बांग्लादेश मिशन के चारों ओर इकट्ठा हुए


ये पहला मौक़ा था जब किसी विदेशी धरती पर बांग्लादेश का ध्वज फहराया गया था. जैसे ही ये ख़बर आकाशवाणी के कलकत्ता केंद्र से प्रसारित हुई हज़ारों कलकत्ता वासी बांग्लादेश मिशन के बाहर पहुँच गए. वहाँ पर एक मेले जैसा माहौल बन गया.

गेट के बाहर एक अस्थायी मंच बनवाया गया, जहाँ बड़ी भीड़ के सामने कलकत्ता के प्रतिष्ठित लोग जमा हो गए और गायक देश भक्ति के गीत गाने लगे.

मिशन के मुख्य द्वार को खोल दिया गया और भीड़ ने उसके अंदर घुसकर हुसैन अली और उनके साथियों को उनकी हिम्मत के लिए बधाई दी. मिनटों में कलकत्ता में पाकिस्तान का उप उच्चायोग ताजुद्दीन सरकार का पहला विदेश कार्यालय बन गया.

लेकिन अंतिम समय हुसैन अली फिर नर्वस हो गए. भारतीय अधिकारियों की चिंता थी कि कहीं वो अंतिम समय पर अपना विचार न बदल दें. रुस्तमजी ने उन्हें संदेश भिजवाया कि अगर वो अपने इरादे से फिरे तो उसके भयानक परिणाम होंगे.

हर एक सेकेंड पर ये शंका बढ़ती जाती थी कि कहीं अमेरिकी काउंसलेट और आईएसआई के एजेंटों को इसकी भनक न लग जाए. लेकिन तभी भाग्य ने भी रुस्तमजी का साथ दिया.

रुस्तमजी लिखते हैं, "सुबह 10 बजे के आसपास बारिश के साथ ज़बरदस्त आँधी आई और पाकिस्तानी झंडे का डंडा टूट कर नीचे गिर पड़ा. उसके बाद उसकी जगह पर बांग्लादेश का झंडा फहरा दिया गया. हमारे पेंटरों ने पहले से ही एक साइनबोर्ड तैयार कर रखा था, जिस पर लिखा था, 'गण प्रजातांत्रिक बांग्लादेश के उप उच्चायुक्त का कार्यालय.' उसको पाकिस्तान के उप उच्चायोग के भवन के सामने लगा दिया गया. जब प्रधानमंत्री को इसके बारे में बताया गया तो अंदर ही अंदर ख़ुश तो हुईं लेकिन ऊपरी तौर पर उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी."

'डिफ़ेक्शन' का ताँता लगा


कुछ दिनों के भीतर इस डिफ़ेक्शन से प्रेरणा लेकर न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय और कई राजधानियों से बंगाली राजनयिकों ने पाकिस्तानी दूतावास छोड़ कर बांग्लादेश की नई सरकार के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करनी शुरू कर दी.

सलील त्रिपाठी अपनी किताब 'द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट' में एक नाटकीय घटना का ज़िक्र करते हैं, ''जब पाकिस्तान का पक्ष रखने के लिए एक पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल को मिस्र भेजा गया तो पाकिस्तानी दूतावास में काम कर रहे एक बंगाली राजनयिक मोहम्मद ज़मीर को उनके दुभाषिए के तौर पर लगाया गया क्योंकि वो अच्छी अरबी बोलना जानते थे.''

''उन्होंने मिस्री नेताओं से बातचीत में पाकिस्तान के बजाए बांग्लादेश का पक्ष रखना शुरू कर दिया. मिस्र के एक नेता जो थोड़ी अंग्रेज़ी जानते थे, उनके इस दुःस्साहस को पकड़ लिया. लेकिन इससे पहले कि पाकिस्तानियों को इसका पता चलता ज़मीर मिस्र से भाग निकले.''

वो पहले ओमान गए और फिर वहाँ से लंदन. ढाका में उन्होंने तभी क़दम रखा जब बांग्लादेश आज़ाद हो गया. इससे बांग्लादेश की निर्वासित सरकार और स्वतंत्रता सेनानियों का मनोबल तो बढ़ा ही पाकिस्तान की भी पूरी दुनिया में काफ़ी किरकिरी हुई.

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story of first interim government of Bangladesh
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