डेढ़ साल के बेटे के साथ 'भागकर' घर लौटी लड़की की कहानी
'भागी हुई लड़कियां' सिरीज़ की सातवीं किस्त में 'भागकर' घर लौटी हुई लड़की की कहानी.
'वह कहीं भी हो सकती है. गिर सकती है. बिखर सकती है. लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में.'
पढ़ाई, प्यार और नौकरी के लिए घर से 'भागी' लड़कियों की कई कहानी आप पढ़ चुके हैं. आज कहानी ऐसी लड़की की जो डेढ़ साल के लड़के के साथ 'भागी' ताकि उसे बेहतर ज़िंदगी दे सके.
बीबीसी हिंदी की सिरीज़ 'भागी हुई लड़कियां ' में आप विभावरी, शिवानी , गीता , नाज़मीन , शबाना और दीपिका की कहानी पढ़ चुके हैं. आज बारी है सातवीं किस्त की.
बचपन से खूब पढ़ने की ख़्वाहिश थी. ग्रैजुएशन में एडमिशन लिया ही था कि घरवाले रिश्ता खोजने लगे.
बगावत करने जैसी कोई चीज़ मन में उठी ही नहीं. लगा कि घरवाले हैं सब सोच समझकर ही करेंगे. 'मुझे पढ़ना है, शादी नहीं करनी' जैसे ख़्याल मजबूती से दिल में जगह नहीं बना पाए.
नतीजा ये रहा कि क़रीब 18 साल की उम्र में ब्याह कर ससुराल पहुंच गई. मेरे पति रंजीत एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे. पर रिश्ता ससुर की सरकारी नौकरी के नाम पर तय हुआ था.
18 साल और कुछ महीने की उम्र में मेरी ज़िंदगी ग्रेजुएशन करते हुए कॉलेज में नहीं, ससुराल में बीतने लगी. इस बात से मुझे यक़ीनन तब कोई दिक्क़त नहीं थी.
छोटी-मोटी नोक-झोंक हर रिश्ते में ही होती होगी. यही सोचकर रंजीत के साथ छोटी लड़ाइयों को हमेशा नज़रअंदाज ही किया. ज़्यादातर रिश्तों में ऐसा होता ही होगा. मैं नज़रअंदाज़ करके कुछ नया नहीं कर रही थी.
जिस उम्र में मेरी ग्रेजुएशन पूरी होनी थी, उस उम्र में मैं एक प्यारे से बेटे की मां बन चुकी थी.
हमारे घरों में कहा जाता है कि बच्चा हो जाएगा, मन लगा रहेगा. सब ठीक हो जाएगा. सात्विक के पैदा होने से मैं भी सोचने लगी कि सब ठीक हो जाएगा.
लेकिन मेरे सोचने से कहां कुछ होता है. पढ़ने का सोचा था, कहां पढ़ पाई? सब ठीक होने का सोचा था, लेकिन कुछ ठीक नहीं हो पाया.
20 की उम्र में बेटा, पति और ससुराल में ज़िंदगी सिमटने सी लगी.
इस दौरान रंजीत का शराब पीकर घर आना, झगड़ा करना और पीटना जारी रहा. न जाने कितनी ही रातें रोते हुए बीती, पर चुप रही. 'सब ठीक हो जाएगा' सोच दिमाग़ पर हावी रही.
वक्त के साथ चीज़ों की आदत पड़ जाती हैं. पर मुझे रंजीत की ज़्यादतियों की आदत नहीं पड़ रही थी. मैं हर रोज़ घुटती जा रही थी. शादी के इतने कम वक्त में रंजीत के लिए मैं एक शरीर ज्यादा थी, जिसे वो अपने हिसाब से 'प्यार' करता और पीटता.
शरीर, जिस पर रंजीत अपना हक समझता. छोटी-मोटी बातों पर गर्म प्रेस छुआ देता था. मैं जलने की जगह भी किसी को नहीं दिखा पाती थी. रोज़ की गालियों को सुनते और नन्हीं आंखों से सात्विक ये कलह सब देख रहा था.
मैं अक्सर सोचा करती कि ऐसे माहौल में सात्विक क्या सीख पाएगा. डर था कि जिस बच्चे के बड़े होने का मैं इंतज़ार कर रही हूं कि वो बड़ा होकर कहीं दूसरा रंजीत न बन जाए.
यही सब ख़्याल दिमाग़ के भीतर हद पार कर चुके थे जिस दोपहर मैं घर से सात्विक को लेकर निकल पड़ी.
घर पर कोई नहीं था. मुझे नहीं मालूम था कि आगे की ज़िंदगी कैसे कटेगी. पर ये यक़ीन करके निकली थी कि मेरा ये निकलना पति-पत्नी की लड़ाई के बाद वाला निकलना नहीं था.
मेरा इस तरह घर से निकलना शायद वो फैसला था जिसे मैं शादी के वक्त नहीं ले पाई थी. मैं नहीं कह पाई थी कि मुझे पढ़ना है.
मैं उन लड़कियों में शामिल थी, जो अपने घर से भागी नहीं थीं बल्कि भागकर घर लौट आई थीं.
शुक्र ये रहा कि इसके बाद शुरू हुई लड़ाई में मेरे घरवालों ने मेरा साथ दिया. शायद वो चाहते भी हों कि मैं ससुराल लौट जाऊं. पर मैं फ़ैसला ले चुकी थी, ख़ुद से ज़्यादा अपने बेटे के लिए.
हंसी भी आती है कि जब भागने का सही मौका और उम्र थी, तब किसी लड़के के प्यार या पढ़ाई के लिए नहीं भागी. जब भागी तो डेढ़ साल के लड़के के साथ. मेरे भागकर लौटने में मेरे अपने बच्चे का भागना भी शामिल रहा.
मुझे कभी घर लौटने का अफसोस नहीं हुआ. एक हौसला है कि सात्विक के साथ कुछ अच्छा करना है. वो बात अलग है कि ससुराल की तरफ वाले लोगों के लिए मैं शायद ज़िंदगीभर भागी हुई कहलाऊंगी.
पर मैं खुश थी और खुश हं कि 22वें से लेकर ज़िंदगी के सारे जन्मदिन अब बेटे सात्विक के साथ मना पाऊंगी, अपने ही घर में खुश रहते हुए पूरी आज़ादी के साथ.
(इस सच्ची कहानी के पात्रों और जगहों के नाम बदले हुए हैं)
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