सपा से इंस्टेंट तलाक के पीछे मायावती की भाजपा से राज्यसभा कैमिस्ट्री
नई दिल्ली। गठबंधन टूट गया। रास्ते अलग हो गये। माया इधर, अखिलेश उधर। माया ने कहा कि जब अखिलेश अच्छा काम करने लगेंगे, तो वे फिर से साथ चलेंगे। वहीं, अखिलेश ने कहा कि अगर अलग रास्ते पर ही चलना है तो कार्यकर्ताओं को बधाई। मतलब ये कि चुनाव का गठबंधन, चुनाव के लिए गठबंधन। चुनाव खत्म, बात खत्म।
जो जीता वो सिकन्दर जो हारा वो बन्दर। इस लिहाज से यूपी में बीजेपी सिकन्दर है और बाकी के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं। मगर, गठबंधन के भीतर अगर सिकन्दर की बात करें तो निश्चित रूप से बीएसपी और उनकी प्रमुख मायावती हैं जिनके पास कभी शून्य सीटें हुआ करती थीं, अब 10 सीटें हैं। समाजवादी पार्टी के लिए संख्या में कोई बढ़ोतरी नहीं हो सकी। 5 सीटें 2014 में भी थीं, 5 सीटें 2019 में भी हैं।
क्या सच है कि माया को गठबंधन से नहीं हुआ फायदा?
मायावती ने गठबंधन तोड़ा है या यूं कहें कि अखिलेश का साथ छोड़ा है तो यह राजनीति में नयी बात नहीं मानी जाती। जो बात नयी है वो ये कि गठबंधन का फायदा उठा लेने के बावजूद दोषी उन्हें ठहराना जिन्हें गठबंधन की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। मायावती ने कहा है कि जो अखिलेश यादव अपनी पत्नी डिम्पल यादव को नहीं जिता सकतीं, जो अखिलेश यादव अपने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव की सीट नहीं बचा सकते वे बीएसपी की क्या मदद करते। बीएसपी को यादवों ने वोट नहीं किया। यादवों ने समाजवादी पार्टी को भी वोट नहीं किया। कहने का मतलब ये कि एसपी से गठबंधन बीएसपी के लिए फायदे का सौदा नहीं रहा।
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मायावती की चाल के पीछे क्या है रणनीति
मायावती की यह बात सही तो है मगर अधूरे तौर पर। सच्ची बात मायावती छिपा रही हैं। गठबंधन करने से भी बीएसपी को फायदा हुआ और अब गठबंधन तोड़ने की भी वह पूरी वसूली करने वाली हैं। उपचुनाव में सभी 11 सीटों पर लड़ने की घोषणा बीएसपी की ओर से नयी है। बीएसपी कभी उपचुनाव नहीं लड़ा करती थी। इस बार क्यों? वजह साफ है कि आने वाले समय में राज्यसभा सीटों के चुनाव होने वाले हैं। राज्यसभा में बहुमत पाने के लिए बीजेपी बेताब है। ऐसे में अगर बीएसपी ने इस काम में बीजेपी की मदद कर दी, तो अलग किस्म से राजनीतिक फायदा उठाने का मौका बनाया जा सकेगा।
बीएसपी के पास 10 लोकसभा की सीटें हैं और अगर उसने चुनावी राजनीति में खुद विधानसभा चुनाव जीतकर या बीजेपी की मदद कर या फिर समाजवादी और कांग्रेस को नुकसान पहुंचाकर कोई उपलब्धि हासिल कर पाती हैं तो उसका राजनीतिक महत्व अलग होगा। बिना किसी फायदे या रणनीति के मायावती कोई राजनीतिक कदम उठाए ऐसा नहीं माना जा सकता है। समाजवादी पार्टी केवल दो यादव बहुल सीटें जीत सकीं मैनपुरी और आजमगढ़। यानी वो सीटें जहां वे खुद खड़े हुए। हालांकि इन सीटों पर भी जीत के पीछे बहुजन समाज पार्टी का हाथ कम हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जीत का बहुत कम अंतर इस बात की तस्दीक करता है। सम्भव है कि अगर बीएसपी का साथ नहीं होता तो अमेठी की तरह आजमगढ़ और मैनपुरी भी समाजवादी पार्टी हार सकती थी।
बीएसपी की दलितों में कहां पैठ रही
आश्चर्य की बात ये है कि बीएसपी भी अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित केवल दो सीटें ही जीत सकीं। नगीना और लालगंज। नगीना में जीत के पीछे मुस्लिम वोटों का भी योगदान अहम है। इस लिहाज से देखें तो अनुसूचित जाति बहुल सीटों पर बीएसपी की बुरी पराजय हुई है। बीएसपी ने 10 ऐसी सीटों पर चुनाव लड़ा था। इसलिए यादवों ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया - ऐसा कहते हुए बीएसपी को यह भी बोलना चाहिए कि दलितों ने बहुजन समाज पार्टी को वोट नहीं दिया। दलितों ने समाजवादी पार्टी को बिल्कुल ही नकार दिया। 7 सुरक्षित सीटों पर समाजवादी पार्टी लड़ी, लेकिन एक भी जीत नहीं सकी। क्या बहुजन समाज पार्टी इस बात का जवाब देगी कि आखिर क्यों ऐसा हुआ?
बहुजन समाज पार्टी की जीत में समाजवादी पार्टी का योगदान बड़ा है। 10 सीटों पर हुई यह जीत या तो मुस्लिम वोटों के निर्णायक होने की वजह से है या फिर समाजवादी वोटों का ध्रुवीकरण बहुजन समाज पार्टी के लिए होने की वजह से। यही बात समाजवादी पार्टी को मिली 5 सीटों के संदर्भ में भी कहा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि गठबंधन का यूपी में कोई फायदा एसपी या बीएसपी को नहीं मिला। एसपी-बीएसपी गठबंधन ने असर दिखाया है भले ही मायावती इन बातों को नजरअंदाज करें -
Ø जो हाल बिहार में महागठबंधन का हुआ है वही हाल यूपी में एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन का होता।
Ø जो हाल अमेठी में राहुल गांधी का हुआ है वही हाल आजमगढ़ और मैनपुरी में अखिलेश-मुलायम का भी हो सकता था।
Ø यूपी में एनडीए गठबंधन की ताकत कम हुई यह गठबंधन का ही कमाल है।
Ø एनडीए से 10 सीटें छीन लेना भी कोई छोटी बात नहीं थी।
यही वजह है कि अखिलेश यादव पत्रकारों से कह रहे हैं कि मायावती ने जो कुछ कहा है उसका मूल्यांकन वे खुद करें। यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि यूपी में बीजेपी को छोड़कर सभी दलों के वोट घटे हैं। समाजवादी पार्टी को विगत लोकसभा चुनाव के मुकाबले 4.39 फीसदी वोटों का नुकसान हुआ है तो बीएसपी को मामूली रूप से 0.47 वोटों का।
चुनाव में दिखा है गठबंधन का असर
क्या यह बात उल्लेखनीय नहीं है कि वोट कम होने पर भी बीएसपी के पास आज 10 लोकसभा की सीटें हैं? ऐसा इसलिए सम्भव हुआ क्योंकि गठबंधन में चुनाव लड़े गये। इस बात को मायावती नजरअंदाज कर रही हैं। यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि बीजेपी को वोट शेयर 6.97 फीसदी बढ़ा है लेकिन उसकी सीटें घट गयी हैं। क्यों? क्योंकि बीजेपी को गठबंधन से मुकाबला करना पड़ा। अन्यथा कम वोट पाकर भी बीजेपी ने 2014 में 71 सीटें जीत ली थीं। इतिहास कितनी जल्दी अपने आपको दोहरा देता है। अखिलेश नहीं चाह रहे थे कि गठबंधन टूटे, मगर मायावती गठबंधन तोड़कर चली गयीं। कुछ समय पहले राहुल गांधी नहीं चाह रहे थे कि अखिलेश के साथ उनका गठबंधन छूटे, लेकिन अखिलेश उन्हें छोड़कर मायावती के पास चले गये। अखिलेश ने मायावती के सुर में सुर मिलाकर कांग्रेस को कोसा। मगर, अब अखिलेश को पछताना होगा। एक फैसला विधानसभा चुनाव में लिया, उसे उन्होंने खुद गलत साबित किया जब वे कांग्रेस को छोड़ बैठे। दूसरा फैसला लोकसभा चुनाव में उन्होंने लिया, वह भी गलत साबित हुआ मगर उसके पीछे अखिलेश स्वयं नहीं मायावती जिम्मेदार हैं। अब अखिलेश को क्या कहेंगे भोले नेता?
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