'ऑटो वाले से अँग्रेज़ी बोलूँगा तो वो थप्पड़ मारेगा'
लेखक और राजनेता थरूर अपनी आभिजात्य अँग्रेज़ी के कारण कई बार मुसीबत में पड़ चुके हैं.
किसी ज़बान में ज़्यादा महारत हासिल होना भी अजीब मुसीबतें पैदा कर सकता है और इस बात को शशि थरूर से बेहतर कोई नहीं जानता. अँग्रेज़ी के माहिर लेखक और राजनेता थरूर अपनी आभिजात्य अँग्रेज़ी के कारण ही कई बार मुसीबत में पड़ चुके हैं.
कभी 'फ़रागो' और 'इंटरलोक्यूटर' जैसे दुरूह अँग्रेज़ी शब्दों के इस्तेमाल के कारण तो कभी 'कैटल क्लास' जैसे जुमलों के कारण. बीबीसी हिंदी से एक ख़ास बातचीत में शशि थरूर ने लगभग बच्चों जैसी मासूमियत से कहा, "मैं कोई डिक्शनरी देखकर शब्दों का प्रयोग नहीं करता हूँ. अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मैं सबसे मज़बूत शब्द का इस्तेमाल करता हूँ, पर अगर कोई उस शब्द का अर्थ नहीं जानता तो उसे डिक्शनरी देखनी चाहिए."
शशि थरूर भले ही तीस बरस तक संयुक्त राष्ट्र में ऊँचे ओहदे पर काम कर चुके हों और पश्चिमी रस्मो-राह के क़ायल हों पर उन्हें मालूम है कि कौन सी ज़बान कहाँ और किस तरह इस्तेमाल की जानी चाहिए. जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल की नौचंदी मेले जैसी घिचपिच और शोरगुल के बीच शशि थरूर को इंटरव्यू के लिए थाम लेना आकाशकुसुम हासिल करने जैसा ही था. पर थो़ड़ी ही देर के लिए ही सही पर वो मिले और इंटरव्यू देने को तैयार हो गए.
उन्होंने कहा, "भारतीय यथार्थ अलग-अलग है. शायद गाँव की कहानी लिखनी हो तो अँग्रेज़ी में नहीं लिखी जा सकती है. अगर आप किसी आईएएस अफ़सर की कहानी लिखना चाहें जैसे उपमन्यु चटर्जी ने 'इंग्लिश ऑगस्ट' में लिखी तो अँग्रेज़ी में ही लिखनी चाहिए क्योंकि उसकी सोच अँग्रेज़ी में ही है. अगर मैं ऑटो रिक्शा वाले से अँग्रेज़ी में बात करूँगा तो वो मुझे थप्पड़ मारेगा."
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शशि थरूर...यू आर अ गुड क्वेश्चन
जिस दौर में अँग्रेज़ी में कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले भारतीय लेखकों की अंतरराष्ट्रीय चर्चा होती हो, और उनकी देखा-देखी हर अध्यापक, पत्रकार, एनजीओकर्मी या कंप्यूटर प्रोग्रामर अँग्रेज़ी में उपन्यास लिखकर रातों-रात लाखों डॉलर एडवांस पाने और सेलिब्रिटी बनने का ख़्वाब देखने लगता हो, उसमें शशि थरूर भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य को दुनिया के सामने लाने के काम में लगे हैं.
लंदन से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका 'लिट्रो' के ताज़ा अंक 'ट्रांसलेटिंग इंडिया' के अतिथि संपादक के तौर पर शशि थरूर ने भारतीय भाषाओं में लिखने वाले 11 लेखकों की कहानियाँ चुनीं और उनका दावा है कि दुनिया में जिन 20-25 भारतीय लेखकों का नाम जाना जाता है उनमें से सात या आठ इस लिस्ट में शामिल हैं.
लिट्रो के इस अंक में बांग्ला लेखिका संगीता बंद्योपाध्याय, तमिल के पेरुमाल मुरुगन, मलयालम लेखिका केआर मीरा, मलयालम के ही बेन्यामिन, हिंदी की मनीषा कुलश्रेष्ठ, कन्नड़ के विवेक शानभाग, मलयालम के पॉल ज़कारिया और मानसी और साथ में अँग्रेज़ी की सुष्मिता भट्टाचार्य और अनिता गोवियास की कहानियाँ प्रकाशित की गई हैं.
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अनुवाद की समस्याएं
पत्रिका के संपादकीय में शशि थरूर ने स्वीकार किया है कि भारतीय भाषाओं में लिखे गए साहित्य को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुहैया करवाना आसान नहीं है. बीबीसी से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, "भारतीय भाषाओं के लेखकों को जितनी मान्यता मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल पाती क्योंकि लोग उनके बारे में अज्ञानतावश नहीं जानते क्योंकि उनके लेखन के अच्छे अनुवाद नहीं मिलते हैं."
अनुवाद की समस्याओं की ओर ध्यान दिलाते हुए शशि थरूर कहते हैं, "हर शब्द के पीछे एक सांस्कृतिक सोच होती है. उसे डिक्शनरी में देखकर नहीं समझा जा सकता, जैसे तुम और आप के फ़र्क़ को अँग्रेज़ी में समझाना मुश्किल है और हर शब्द को समझाने के लिए फ़ुटनोट लिखेंगे तो कोई पढ़ेगा नहीं. तो जब भारतीय भाषाओं से अनुवाद किया जाता है तो कई चीजें खो जाती हैं. इसीलिए हमारे साहित्य को समझने के लिए कभी-कभी विदेशियों को दिक्कत होती है."
पर वो लिट्रो पत्रिका के मुख्य संपादक एरिक अकोटो की इस बात से सहमत नहीं हैं कि भारत में अँग्रेज़ी को अकारण ही ऊँचा दर्जा दिया जाता है. जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल में एरिक भी मौजूद थे. उन्होंने बीबीसी से कहा, "क्वींस इंगलिश में हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है. इस पत्रिका के ज़रिए हम भारत से उभर रही आवाज़ों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर लाना चाहते हैं."
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एरिक का मानना है कि भारत में अंग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत मिली हुई है. उन्होंने कहा, "भारत में अँग्रेज़ी को ज़रूरत से ज़्यादा अहमियत दी जाती है. इसे मुट्ठीभर लोग लाए थे और वो अरसा पहले हिंदुस्तान छोड़कर चले गए. जबकि भारत की भाषाएँ पिछले दो हज़ार बरसों से मौजूद हैं."
हालाँकि, शशि थरूर मानते हैं कि भारत में होने वाले अँग्रेज़ी लेखन को ख़ारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि, उनके मुताबिक़, लेखन की क्वालिटी की जाँच करने वालों को मालूम है कि श्रेष्ठ लेखन क्या होता है.
वो कहते हैं, "हिंदुस्तानी भाषाओं में लिखने वाले कई लेखकों में से कई अच्छी अँग्रेज़ी जानते हैं लेकिन उन्होंने अपनी भाषा में लिखने का निश्चय किया. इसका मतलब ये नहीं है कि उन्हें दुनिया भर में अँग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं में लिखे जा रहे साहित्य के बारे में कोई जानकारी नहीं है. कम से कम साठ-सत्तर फ़ीसदी भारतीय लेखक आधुनिक अंतरराष्ट्रीय साहित्य पढ़े हैं. फिर भी वो चाहते हैं कि उनकी भाषा जानने वाले उनके विचारों को अपनी भाषा में ही पढ़ें और समझें."
14 साल बाद मलयालय सीखी
उदाहरण के तौर पर वो हिंदी लेखक निर्मल वर्मा और कन्नड़ लेखक यूआर अनंतमूर्ति का ज़िक्र करते हैं. या फिर ओवी विजयन जो अँग्रेज़ी की पत्रकारिता करते रहे और अँग्रेज़ी में कार्टून बनाते रहे, मगर उन्होंने चौदह साल बाद मलयालम सीखी और फिर अपना पूरा साहित्य उसी भाषा में लिखा.
अँग्रेज़ी को शशि थरूर एक भारतीय भाषा ही मानते हैं. मज़ाक उड़ाने के भाव से नहीं, बल्कि गंभीरता से वो कहते हैं कि जिस तरह की अँग्रेज़ी चेतन भगत लिखते हैं उसे विदेशों में कोई नहीं समझेगा, या जैसी अँग्रेज़ी दिल्ली विश्वविद्यालय में बोली जाती है उसे ऑक्सफ़र्ड या कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में कोई नहीं समझेगा.
शशि थरूर से सीधे सवाल कीजिए, कड़े सवाल कीजिए या हल्के-फुल्के - वो अपने चेहरे से मुस्कुराहट और अपनी आँखों की पारदर्शी चमक को कभी छिपने नहीं देते.
कैसा लगता है जब टीवी का एंकर ललकारने के अंदाज़ में चिंघाड़ता है -- यू कावर्ड शशि थरूर, व्हेअर आर यू हाइडिंग?
इस सवाल का जवाब देने से पहले शशि थरूर ठठा कर हँसते हैं और फिर कहते हैं, "बदतमीज़ लोग जो कहते हैं वो जवाब देने लायक़ नहीं है. मैं जवाब क्यों दूँ. इस देश में कोई मुद्दा कोई समस्या नहीं है जिसपर बोलने को मैं तैयार नहीं हूँ. लेकिन लोगों को समझना चाहिए कि वो तमीज़ से तो बात कर लें."