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सपा-बसपा गठबंधन टूटा, अब अखिलेश यादव क्या करेंगे?

सोमवार को मायावती की गठबंधन तोड़ने की घोषणा के बाद यह कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया अखिलेश यादव के सामने राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है. वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि जब कोई पार्टी चुनाव नहीं लड़ती है तो उसके तमाम ज़िले और गांव स्तर के कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों की ओर रुख़ कर लेते हैं.

By अभिमन्यु कुमार साहा
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सपा बसपा
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  • 20 अप्रैल 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीः जनता खोखली दोस्ती करने वालों का सच जानती है और इन दोनों की दोस्ती टूटने की तारीख़ 23 मई तय हो चुकी है.
  • 23 जून 2019 को मायावतीः लोकसभा चुनावों के बाद सपा का व्यवहार ठीक नहीं था. अतः पार्टी के हित में बसपा आगे सभी चुनाव अकेले लड़ेगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान की गई यह भविष्यवाणी उनकी तय तारीख़ से ठीक एक महीने बाद सच साबित हो गई.

बीते सोमवार को बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने एक के बाद एक कई ट्वीट कर सपा से रिश्ते तोड़ने का आधिकारिक ऐलान कर दिया.

अपने सभी पुराने शिकवे और शिकायत भूलकर दोनों पार्टियां बीजेपी को केंद्र की सत्ता से बेदख़ल करने के मक़सद से लोकसभा चुनावों से पहले साथ आईं थी और दोनों ने उत्तर प्रदेश में मिलकर चुनाव लड़ा था.

मायावती ने ट्वीट किया, "बसपा ने प्रदेश में सपा सरकार के दौरान हुए दलित विरोधी फ़ैसलों को दरकिनार कर देशहित में पूरी तरह गठबंधन धर्म निभाया. चुनावों के बाद सपा का व्यवहार सोचने के लिए मजबूर करता है कि क्या ऐसा करके बीजेपी को आगे हरा पाना संभव होगा? जो संभव नहीं है. अतः पार्टी के हित में बसपा आगे होने वाले सभी छोड़े-बड़े चुनाव अकेले अपने बूते पर ही लड़ेगी."

दोनों पार्टियों ने इसी साल 12 जनवरी को साथ आने की घोषणा की थी. इस घोषणा के बाद रालोद भी गठबंधन में शामिल हुआ था.

जातीय गणित के आधार पर बना यह गठबंधन चुनावों में अपना कमाल नहीं दिखा पाया और बीजेपी यहां भी जीत का परचम लहराने में कामयाब रही.

बसपा कुल 10 सीटों पर जीत हासिल कर पाई, वहीं सपा की झोली में काफी मशक्क़त के बाद पांच सीटें आईं.

सपा बसपा
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कितना बड़ा राजनीतिक संकट

सोमवार को मायावती की गठबंधन तोड़ने की घोषणा के बाद यह कहा जा रहा है कि समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया अखिलेश यादव के सामने राजनीतिक संकट खड़ा हो गया है.

विश्लेषक मानते हैं कि अखिलेश के सामने पार्टी को मज़बूत करने और अंदरूनी कलह को ख़त्म करने की बड़ी चुनौतियां होंगी.

वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि जब कोई पार्टी चुनाव नहीं लड़ती है तो उसके तमाम ज़िले और गांव स्तर के कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों की ओर रुख़ कर लेते हैं.

सपा ने उत्तर प्रदेश की आधी सीटों पर चुनाव नहीं लड़ा था और जहां लड़ा, वहां भी बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई.

रामदत्त त्रिपाठी एक दूसरी चुनौती भी गिनाते हैं, "पहले से ही सपा में पारिवारिक कलह है, जिसकी वजह से उनके चाचा शिवपाल यादव ने एक अलग पार्टी बनाई और जिस तरह से मुलायम सिंह यादव और उनके लोगों को पार्टी में किनारे लगाया गया, उन्हें फिर से साथ ला पाना मुश्किल भरा काम होगा."

वहीं वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी गठबंधन के टूटने को अखिलेश के लिए बड़ा और लंबे समय तक चलने वाले संकट के तौर पर नहीं देखते हैं.

वो कहते हैं, "अखिलेश यादव के लिए राजनीतिक संकट तात्कालीक रूप से दिखाई तो देता है लेकिन मुझे नहीं लगता है कि आने वाले दिनों में उनके सामने बहुत बड़ा संकट आएगा."

"मैं ये मानता हूं कि संकट मायावती के लिए ज़्यादा बड़ा होगा. अखिलेश अभी युवा हैं, अपनी पारी शुरू कर रहे हैं. उन्होंने एक प्रयोग किया था और उम्मीद ये थी कि ये बीजेपी को रोकने में कामयाब होगा, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि मोदी की लहर थी और वोटिंग की तरीक़ा बदल रहा है."

सपा बसपा
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ठगे गए अखिलेश?

गठबंधन के कमज़ोर प्रदर्शन के बाद यह भी कहा जा रहा है कि इससे बसपा को ज़्यादा फ़ायदा हुआ. पार्टी का लोकसभा में एक भी सांसद नहीं था, जो इस बार दस हो गए. वहीं, सपा वहीं की वहीं पांच सीटों पर रह गई.

क्या अखिलेश इस गठबंधन में ठगे गए?

इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि चुनाव के नतीजों को अगर देखें तो लगता है कि सपा ठगी गई है और यह दो स्तरों पर हुआ है. अखिलेश शुरू से ही अपने क़दम मायावती से पीछे रख रहे थे.

उन्होंने कहा, "वो मायावती का व्यवहार और चरित्र जानते थे कि वो कैसे बिदकती हैं. अखिलेश ने मायावती से कहा कि कुछ सीटें कम भी मिले तब भी हम गठबंधन करेंगे, जिसका मायावती ने पूरा फायदा उठाया."

"उन्होंने वो सीटें हासिल की, जहां सपा की पकड़ ज़्यादा थी और चुनौतियों से भरी सीटें अखिलेश के लिए छोड़ीं. बसपा को जिन दस सीटों पर जीत मिली है उसका बड़ा कारण यह भी है कि वो अपेक्षाकृत आसान सीटें थीं सपा-बसपा गठबंधन के लिए. ऐसे में कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव थोड़ा ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे."

अखिलेश यादव
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अखिलेश यादव

अब आगे क्या

सपा-बसपा ने 26 साल पहले 1993 में एकसाथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा था और सरकार बनाई थी, लेकिन 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद गठजोड़ टूट गया.

इस बार के लोकसभा चुनाव में दोनों पार्टियां साथ थीं, लेकिन कामयाब नहीं मिल पाईं. नतीजों से स्पष्ट होता है कि दोनों एक-दूसरे को अपना मत पूरी तरह नहीं दिलवा पाई, वहीं बीजेपी का मत पचास फीसदी के क़रीब पहुंच गया.

मायावती का कहना है कि अखिलेश ने उन्हें अधिक मुस्लिम उम्मीदवार न उतारने की सलाह दी थी.

आने वाले दिनों में राज्य में विधानसभा उपचुनाव होने हैं और मायावती की रणनीति यह है कि वो मुस्लिम वोटरों को सपा से अलग कर अपने पाले में लाए.

समाजवादी पार्टी को अब आधार मज़बूत करने की चुनौती होगी. अखिलेश ने दो प्रयोग किए, पिछले विधानसभा चुनाव में वो कांग्रेस के साथ लड़े थे, उससे कोई लाभ नहीं हुआ फिर उन्होंने बसपा के साथ चुनाव लड़ा, वो भी सफल नहीं हो पाया.

वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि अखिलेश को अब जनता से जुड़ने के लिए नए उपायों को आज़माना होगा.

वो कहते हैं, "पार्टी तब तक सफल नहीं होगी, जब तक वो लोगों से जुड़ती नहीं है. इसके लिए लोगों से जुड़े मुद्दे पर कोई बड़ा आंदोलन करना होगा. अखिलेश यादव के सामने चुनौती सबसे बड़ी ये है कि वो उत्तर प्रदेश की जनता की जो समस्याएं हैं, उन पर आंदोलन-प्रदर्शन करें, जैसा उनके पिता किया करते थे, ताकि जनता का विश्वास फिर से हासिल किया जा सके."

वहीं वरिष्ठ पत्रकार नवीन जोशी कहते हैं कि अखिलेश को परंपरागत समाजवादी पार्टी की जो राजनीति है उससे अपना रास्ता थोड़ा अलग करना होगा. पिछड़ों, ख़ासकर यादवों में जो नई पीढ़ी उभर कर सामने आई है उसे सिर्फ़ यादव बना कर रखने से उनकी राजनीति बहुत नहीं चमकेगी.

"उनकी महत्वकांक्षाओं को भी पूरा करना होगा और उसके हिसाब से राजनीति की दिशा बदलनी होगी."

BBC Hindi
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English summary
SP-BSP coalition broke, now what will Akhilesh Yadav do?
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