बिहार विधानसभा चुनाव : वो छोटे खिलाड़ी जो बिगाड़ या बना सकते हैं किसी का खेल
नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा चुनाव होने में बस अब कुछ दिन होने को बचे हैं। ऐसे में चुनावी समीकरणों के लिए राजनीतिक गठजोड़ तेज हो चुके हैं। विधानसभा में जो तस्वीर सामने है उसके मुताबिक अभी नीतीश के नेतृत्व में सत्तारूढ़ एनडीए और राजद और कांग्रेस के महागठबंधन के बीच ही मुकाबला नजर आ रहा है। एनडीए में प्रमुख रूप से जेडीयू, बीजेपी और लोजपा हैं तो महागठबंधन में राजद और कांग्रेस साथ हैं। ये तो हुई बड़ी पार्टियां लेकिन बिहार की राजनीति में छोटे खिलाड़ी भी हैं जो चुनाव में बाजी पलट भले न सकेें लेकिन बिगाड़ या बना जरूर सकते हैं। झारखंड में ऐसे ही दल के हाथों से झटका खाकर सत्ता से बाहर होने वाली बीजेपी ये जरूर समझती होगी।
छोटे दलों को छोड़कर बढ़ना पड़ सकता है भारी
झारखंड के विधानसभा चुनाव में भाजपा का आखिरी दौर में सीटों को लेकर आजसू भाजपा से नाराज हो गई। भाजपा ने भी आजसू को छोटा दल समझकर ज्यादा भाव नहीं दिया। आजसू और भाजपा अलग-अलग लड़े। नतीजे आए तो झारखंड मुक्ति मोर्चा गठबंधन आगे निकल गया और सरकार बना ली। इसमें खास बात यह थी कि जेएमएम गठबंधन (कांग्रेस+आरजेडी) को 34.02 प्रतिशत वोट मिले। वहीं बीजेपी को 31.26 प्रतिशत वोट मिले जबकि वो आजसू जिसको बीजेपी ने हल्के में लिया उसे 3.68 प्रतिशत वोट मिले। 3.68 प्रतिशत वोट भाजपा के 31 के मुकाबले तो बहुत कम हैं लेकिन अगर इसे भाजपा के साथ जोड़कर देखिए तो ये जेएमएम नीत गठबंधन से ज्यादा हो जाता है। बीजेपी अगर आजसू के साथ लड़ी होती तो तस्वीर दूसरी भी हो सकती थी। ऐसे में छोटे दलों से इस बार हर कोई साथ जोड़कर चलना चाहता है।
2015 की तरह नहीं होंगे ये विधानसभा चुनाव
नीतीश भाजपा और लोजपा के साथ भले सत्ता में हैं लेकिन वे जानते हैं कि इस बार बिहार के विधानसभा चुनाव 2015 जैसे नहीं होने वाले हैं। 2015 में नीतीश, लालू और कांग्रेस साथ आ गए थे और महागठबंधन बन गया था। महागठबंधन की सबसे बड़ी ताकत थी कि बहुजन वोटों के बिखराव को रोकना। यादव, कुर्मी और कोइरी के साथ ही मुसलमान मतदाता भी महागठबंधन के साथ रहे। 2010 में जहां 79 सवर्ण विधायक जीते थे, 2015 में इनकी संख्या घटकर 51 रह गई। ये बहुजन वोटों पर नजर ही है जिसके चलते नीतीश कुमार ने हिंदुस्तानी अवाम पार्टी के मुखिया जीतन राम मांझी से हाथ मिलाया है। नीतीश कुमार ने ये तब किया है जब इस फैसले से लोजपा में नाराजगी है। लोजपा को लगता है कि इससे उसकी मोलभाव की ताकत घटेगी फिर भी नीतीश ने मांझी को साथ रखने का फैसला किया है। लेकिन सिर्फ मांझी की इस खेल में नहीं है कुछ और दल भी हैं जो छोटे तो हैं लेकिन फिर भी खेल को इधर-उधर कर सकते हैं।
उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा और मांझी की हम
उपेंद्र कुशवाहा जिस कोइरी समाज से आते हैं उसकी आबादी बिहार में लगभग 8 प्रतिशत है। यही वजह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें अपने साथ जोड़ा। मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मंत्री बने लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले सीटों के मुद्दे पर एनडीए से नहीं बनी और अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा हो गए। इस बार भी उनके महागठबंधन के साथ रहने की उम्मीद है।
जीतन राम मांझी बिहार की राजनीति में ऐसे नेता हैं जो ज्यादातर समय सत्ता में रहे। प्रदेश की महादलित जाति मुसहर से आने वाले मांझी के साथ समय ऐसा अनुकूल रहा कि नीतीश ने जब 2014 में इस्तीफा दिया तो मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। बाद में जीतन राम मांझी से पद से हटने को कहा गया तो वे बगावत पर उतर आए। नीतीश का विश्वास टूटा तो मांझी से रिश्ता भी टूट गया। पद से हटे तो पार्टी से भी जाना पड़ा। उन्होंने अपनी पार्टी बना डाली। नाम रखा हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा सेकुलर यानि हम (एस)। 2015 के चुनाव में भाजपा के साथ आए लेकिन कुछ खास फायदा नहीं दिला पाए। 21 सीटों में से एक पर जीत मिली लेकिन अपने तेवर से अपनी मुसहर जाति में उनकी पहचान जरूर बनी। 2015 के विधानसभा चुनाव में मुसहर जाति के 6 विधायक जीतकर आए।
पप्पू यादव की जाप और वीआईपी सहनी
राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव अपने अंदाज से चर्चा में बने रहते हैं। पटना में बाढ़ हो या छात्र अधिकारों के मुद्दे उनकी जन अधिकार पार्टी (जाप) खूब सक्रिय रहती है। पप्पू यादव पांच बार से लोकसभा के लिए चुने गए। 2014 में उन्होंने दिग्गज नेता शरद यादव को पटखनी दी लेकिन 2019 में मधेपुरा से हार का सामना करना पड़ा। हार के बावजूद पप्पू यादव पूरी सक्रियता से बने हुए हैं। इस बार भी उम्मीद है कि उनकी पार्टी अकेले की चुनाव लड़ेगी क्योंकि उनकी राजद और एनडीए दोनों से समान दूरी है।
कभी बॉलीवुड में फिल्मों के लिए सेट डिजायनर के रूप में पहचान बनाने वाले मुकेश सहनी बिहार में अपना सेट अप बनाने में लगे हैं। मल्लाह का बेटा के नाम से मशहूर सहनी ने विकासशील इंसान पार्टी बनाकर बिहार की राजनीति में उतरे हैं। 2014 लोकसभा और 2015 के विधानसभा में भाजपा के लिए प्रचार करने वाले सहनी ने जब 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले अपनी पार्टी वीआईपी बनाई तो महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ा। तीन सीट पर चुनाव लड़े, एक पर भी जीत नहीं मिली लेकिन सहनी की पार्टी चर्चा में खूब रही।
औवैसी की एआईएमआईएम भी जगह बनाने की जुगत में
हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी आल इंडिया मजलिस-ए-एत्तेहादुल मुस्लिमीन पिछले कई चुनाव से बिहार में मुस्लिम मतदाताओं में सेंध लगाने की फिराक में है। 16.9 प्रतिशत आबादी के साथ मुस्लिम समुदाय प्रदेश की राजनीति में बड़ा असर रखता है। परंपरागत रूप से अब तक मुस्लिम मतदाता राजद के साथ रहा, जबकि राम विलास पासवान की लोजपा भी मुस्लिम वोट पर पकड़ रखती है। ऐसे में ओवैसी की नजर इस बात पर होगी कि अगर मुस्लिम वोटर के साथ कुछ और वोटर उनकी तरफ खिचते हैं तो पार्टी प्रदेश में सीट निकाल सकती है।
इन छोटे दलों के लिए अभी जो समीकरण हैं इन्हें ज्यादा सीटें तो नहीं मिलने वालीं हैं। ऐसे में इनका महत्व भी कम रहता है लेकिन अगर एनडीए और महागठबंधन में कांटे की टक्कर रहती है। जैसा कि पड़ोसी राज्य झारखंड और मध्यप्रदेश में हुआ तो इन दलों की महत्व बढ़ जाएगा। वहीं जिन सीटों पर जीत का अंतर कम होता है वहां इन्हें मिलने वाला वोट किसी भी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है। खैर देखना ये है कि इस बार के चुनाव ये भी तय करेंगे कि छोटे दलों के लिए अभी मौके बने हुए हैं या फिर इनका समय खत्म हो गया है।