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गोरखपुर में मुज़फ़्फ़रपुर जैसे हालात न पैदा हो जाएं

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य डा. गणेश कुमार बताते हैं कि इस वर्ष एक जनवरी से अब तक इंसेफेलाइटिस के 100 मरीज़ भर्ती हुए जिसमें से 80 को बचा लिया गया लेकिन 20 की मौत हो गई.

गोरखपुर मंडल के अपर निदेशक स्वास्थ्य डा. पुष्कार आंनद ने बताया कि पिछले दो वर्ष से एईएस/जेई के केस और मौतों की संख्या में 60 फ़ीसदी से अधिक कमी आई है.

By मनोज कुमार सिंह
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संतोष साहनी और रंजना
Manoj Singh/BBC
संतोष साहनी और रंजना

गोरखपुर शहर के आज़ाद चौक के सुदर्शन गली में रहने वाले 29 वर्षीय संतोष साहनी की ढाई वर्ष की बेटी साक्षी को 25 जनवरी को सर्दी के साथ बुख़ार हुआ. संतोष चौराहे पर एक निजी चिकित्सक के पास से दवा लाए. दो दिन बाद शाम को साक्षी की तबियत थोड़ी सुधरी. उसने एक केक खाया और चाय भी पी. साक्षी को केक बहुत पसंद था और संतोष अक्सर 14 रुपये वाला एक केक बेटी के लिए ले आते थे.

बेटी की तबियत सुधरने से संतोष और उनकी पत्नी रंजना राहत की सांस ले रहे थे लेकिन 27 जनवरी की सुबह साक्षी पापा...पापा कहते हुए उठ गई.

MANOJ SINGH/ BBC

संतोष-रंजना ने देखा कि साक्षी को पहले दस्त हुआ और फिर उसे झटके आने लगे. संतोष अपने बड़े भाई की मदद से तुरन्त साक्षी को एक प्राइवेट अस्पताल ले गए जहां कुछ देर इलाज करने के बाद बीआरडी मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया गया. मेडिकल कॉलेज में बताया गया कि साक्षी को इंसेफेलाइटिस हैं. मेडिकल कॉलेज में भर्ती होने के 24 घंटे बाद के अंदर ही साक्षी की मौत हो गई.

संतोष रोते हुए कहते हैं कि साक्षी की नींद से उनका उठना-बैठना होता था. अब घर काटने को दौड़ता है. रंजना तो साक्षी की मौत के बाद मानो बोलना तक भूल गई हो. हरदम गुमसुम रहती है.

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साक्षी की ही तरह बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इस वर्ष जनवरी से जुलाई के पहले सप्ताह तक इंसेफेलाइटिस (एईएस/जेई) से 24 लोगों की मौत हो चुकी है जिसमें अधिकतर बच्चे थे.

किसी का नाम आलिया, श्रृष्टि, रागिनी, शालिनी था तो किसी का तिलक, विकास, दुर्गेश, लकी, अंश और अंकुश. ये बच्चे अपनी ज़िंदगी का 15वां बसंत भी नहीं देख पाए.

ये बच्चे गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, महराजगंज, संतकबीरनगर, सिद्धार्थनगर, बस्ती, आजमगढ़, गाजीपुर और बलरामपुर से इलाज के लिए बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुए थे.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एईएस/जेई से बच्चों की मौत का सिलसिला 1978 से चल रहा है. बच्चों के चहेते चाचा देश के प्रहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के नाम से स्थापित मेडिकल कॉलेज के नेहरू चिकत्सालय में चार दशक में दस हज़ार से अधिक बच्चों की मौत हो चुकी है.

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इंसेफेलाइटिस से ग्रसित होने वाले बच्चों के परिजनों की पृष्ठिभूमि लगभग एक जैसी है. सभी बेहद ग़रीब श्रमिक हैं. संतोष साहनी कार ड्राइवर हैं. वे पांच भाई हैं जो चार कमरों वाले घर में रहते हैं. एक भाई बेंगलुरू में पेंट पालिश करता है तो दो भाई गोरखपुर में पलम्बर हैं. एक भाई मैकेनिक है.

संतोष अपना घर दिखाते हुए कहते हैं कि छोटा घर होने के कारण माता-पिता दरवाजे पर सोते हैं. उन्होंने दो-दो बार प्रधानमंत्री शहरी आवास के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें आवास नहीं मिला.

गोरखपुर के सहजनवा क्षेत्र के बड़गो निवासी 39 वर्षीय सुबोध की सात वर्षीय बेटी श्रृष्टि की जापानी इंसेफेलाइटिस से 24 जनवरी को मौत हो गई थी.

सुबोध दिल्ली में मैकेनिक हैं. उनकी महीने की आमदनी आठ हज़ार रुपये है. जब बेटी बीमार पड़ी तो वह दिल्ली में थे. उनकी पत्नी जीतू बेटी को लेकर घघसरा से गोरखपुर तक सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों का चक्कर लगाती रही.

श्रृष्टि का एक महीने से अधिक समय तक इलाज चला फिर भी उसकी जान नहीं बच सकी. वह 4 से 24 जनवरी तक मेडिकल कॉलेज में भर्ती रही. प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराने के कारण 25-30 हज़ार रुपये खर्च भी हो गए.

बेटा मर गया लेकिन पिता दुबई से नहीं आ सके

रामकोला क्षेत्र के मठही गांव के दो वर्षीय अंश की दो फरवरी को बीआरडी मेडिकल कॉलेज में एईएस से मौत हो गई थी. अंश का पिता सत्यवान दो महीने पहले ही कमाने के लिए दुबई चले गये थे. सत्यवान पहले अहमदाबाद में एलमुनियम फैक्ट्री में काम करते थे. कुछ पैसा जुटा कर दुबई चले गये कि अपनी आमदनी बढ़ा सके.

दो वर्षीय अंश और एक माह के बच्चे को लेकर उनकी पत्नी मायके ( पडरौना के पास इनरही गांव ) में थी. जब देश 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मना रहा था, अंश बीमार पड़ा. उसे पहले बुख़ार हुआ, फिर दस्त और झटके आए. उसे पडरौना में एक निजी चिकित्सक से दिखाया गया जिन्होंने इंसेफेलाइटिस का संदेह जताया.

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अंश के नाना दूधनाथ कुशवाहा ने बताया कि हम बच्चे को लेकर सीधे बीआरडी मेडिकल कॉलेज आ गए. उसकी तबियत सुधरने लगी थी और लग रहा था कि दो-तीन दिन में वह ' फ्रेश ' हो जाएगा लेकिन एकाएक तबियत फिर बिगड़ गई और दो फ़रवरी को उसकी मौत हो गई.

दुबई गये सत्यवान बच्चे की बीमारी के दौरान और यहां तक कि मौत के बाद भी घर नहीं आ सके. दूधनाथ कहते हैं कि हम लोगों ने उनसे कहा कि बच्चे की तबियत सुधर रही है. इसलिए वह न आए क्योंकि आने-जाने में बहुत खर्च होगा. बच्चे की मौत के बाद हमने उससे कहा कि अब आने से क्या फायदा जब उनके दिल का टुकड़ा ही नहीं रहा.

एईएस/जेई में कमी आने के सरकारी दावे

बीते दो वर्षों के सरकारी आंकड़े इस बीमारी से मरीज़ों की संख्या और मौत में अंतर दर्शा रहे हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक जुलाई को लखनऊ में संचारी रोग नियंत्रण अभियान और दस्तक अभियान के द्वितीय चरण को शुरू करते हुए कहा कि एक वर्ष के अंदर दिमागी बुख़ार (एईएस/जेई) के रोगियों की संख्या में 35 फ़ीसदी और इस बीमारी से मौतों में 65 फ़ीसदी की कमी आई है.

इसके पहले प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थनाथ सिंह ने भी इसी तरह का दावा किया था.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य डा. गणेश कुमार बताते हैं कि इस वर्ष एक जनवरी से अब तक इंसेफेलाइटिस के 100 मरीज़ भर्ती हुए जिसमें से 80 को बचा लिया गया लेकिन 20 की मौत हो गई.

गोरखपुर मंडल के अपर निदेशक स्वास्थ्य डा. पुष्कार आंनद ने बताया कि पिछले दो वर्ष से एईएस/जेई के केस और मौतों की संख्या में 60 फ़ीसदी से अधिक कमी आई है.

योगी सरकार का दावा है कि दस्तक अभियान के कारण ही इंसेफेलाइटिस पर प्रभावी रोकथाम संभव हुआ है लेकिन ऐसे कई तथ्य उभर कर सामने आ रहे हैं जिसकी अनदेखी बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में चमकी बुख़ार की तरह स्थिति पैदा कर सकती है.

दस्तक अभियान

योगी सरकार ने 10 अगस्त 2017 के ऑक्सीजन कांड के बाद एईएस/जेई के रोकथाम के लिए वर्ष 2018 से दस्तक नाम से अभियान शुरू किया है जो एक वर्ष में दो बार चलाया जाता है. इस अभियान के तहत आशा व अन्य स्वास्थ्य कर्मियों को घर-घर जाकर लोगों को नवकी बीमारी (एईएस/जेई) के बारे में जानकारी देने, घर और उसके आस-पास सफ़ाई रखने, जेई का टीका लगवाने, सुरक्षित पेयजल का प्रयोग करने और बीमार होने पर तुरन्त नजदीकी सरकारी अस्पताल जाने के लिए प्रेरित करने का निर्देश है.

यह भी निर्देश है कि आशा और स्वास्थ्य कर्मी हर दरवाज़े पर जानकारी देने के साथ-साथ वहां दस्तक अभियान का एक स्टीकर पर चिपकाएंगे ताकि पता चले कि यहां जागरूकता अभियान सम्पन्न हो चुका है.

लगातार दूसरे वर्ष दस्तक अभियान इंसेफेलाइटिस प्रभावित प्रदेश के 18 जनपदों में चलाया जा रहा है. इसके अलावा संचारी रोग नियंत्रण अभियान के तहत भी इंसेफेलाइटिस के साथ-साथ डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया, काला-अजार, फाइलेरिया आदि बीमारियों के प्रति लोगों को जागरूक करने का अभियान इस महीने चल रहा है.

अपनी बेटी को खो चुके संतोष ने बातचीत में बताया कि बेटी की मौत के पहले किसी भी सरकारी महकमे का व्यक्ति उनके पास इस बीमारी के बारे जानकारी देने नहीं आया था. बेटी की मौत के बाद स्वास्थ्य विभाग की टीम दो बार आई और उनके घर के आस-पास मच्छरों को मारने के लिए छिड़काव किया गया.

सुबोध ने कहा कि उनके घर भी इस बीमारी के बारे में बताने के लिए कोई स्वास्थ्य कर्मी नहीं आया था. दूधनाथ कुशवाहा के अनुसार बच्चे की मृत्यु के बाद स्वास्थ्य कर्मी उनके घर आए. उसके पहले कोई नहीं आया था.

ये स्थितियां बताती हैं कि जागरूकता अभियान का जितना ढोल पीटा जा रहा है, धरातल पर वह ज़्यादा प्रभावी नहीं है. पूर्व में इंसेफेलाइटिस के रोकथाम अभियान से जुड़े रहे एक चिकित्सक ने बताया कि दस्तक अभियान से जुड़ी आशा को इस कार्य के लिए अलग से कोई प्रोत्सहान राशि नहीं मिलती है. वे पहले से अत्यधिक कार्यबोझ से दबी हैं. इसलिए उनसे घर-घर जाकर जागरूकता का कार्य करने की अपेक्षा करना सही नहीं है.

इलाज की व्यवस्था

दस्तक अभियान के अलावा इलाज की व्यवस्था दुरूस्त करने के लिए गोरखपुर मंडल के चार ज़िलों-गोरखपुर, देवरिया, महराजगंज, कुशीनगर के ज़िला अस्पताल में पीकू (पीडियाटिक इंटेसिव केयर यूनिट) की क्षमता 10 से बढ़ाकर 15 बेड कर दी गई है. इसके अलावा इन्ही ज़िलों के आठ सीएचसी-पीएचसी चौरीचौरा, गगहा, पिपरौली, रूद्रपुर, कप्तानगंज, हाटा, निचलौल, रतनपुर में तीन-तीन बेड का मिनी पीकू बनाया गया है जो संचालित हो रहे हैं. इसके अलावा पहले से चली आर रही व्यवस्था के अनुसार ब्लाक स्तरीय अस्पतालों 104 में दो-दो बेड के ईटीसी (इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर) स्थापित हैं.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज में भी बेड की संख्या काफी बढ़ गई है. बीआरडी के प्रधानाचार्य डा. गणेश कुमार गर्वीले स्वर में कहते हैं कि कई मेडिकल कॉलेज के पास 500 बेड का अस्पताल होता है. हमारे पीडिया वार्ड में ही 428 बेड हैं, 71 वेंटीलेटर हैं.

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ऑक्सीजन कांड के बाद 100 बेड वाले इंसेफेलाइटिस वार्ड के दूसरे तल पर एक नया वार्ड तैयार किया गया. इसके अलावा नेत्र विभाग के एक वार्ड को बच्चों के वार्ड में बदल दिया गया जिसमें हीमोफीलिया, कुपोषित बच्चों का इलाज होता है. एपीडेमिक वार्ड 12 को अब जनरल वार्ड में बदल दिया गया है और 100 बेड वाले इंसेफेलाइटिस वार्ड के भूतल को इमरजेंसी में तब्दील कर दिया गया है. डा. गणेश कुमार का यह भी कहना है कि बीआरडी पर मरीजों का भार पहले के मुकाबले काफी कम हुआ है.

फिर भी डॉक्टरों की कमी बड़ी समस्या बनी हुई है. इंसेफेलाइटिस से सर्वाधिक प्रभावित गोरखपुर और आस-पास के ज़िलों में नियमित चिकित्सकों के 30 फ़ीसदी से अधिक पद रिक्त हैं. खासकर बाल रोग विशेषज्ञों की भारी कमी है.

जिन आठ अस्पतालों में मिनी पीकू बनाया गया है, वहां पर एक-एक बाल रोग विशेषज्ञों की तैनाती की गई है लेकिन मिनी पीकू को 24 घंटे तक एक चिकत्सक के बूते संचालित करना मुश्किल हो रहा है. बाल रोग चिकित्सकों की कमी सीएचसी-पीएचसी में इंसेफेलाइटिस रोगियों के इलाज की व्यवस्था को कमज़ोर कर रही है.

इस मुद्दे पर चल रही सुनवाई में यूपी के स्वास्थ्य विभाग द्वारा दी गई रिपोर्ट से असंतुष्ट राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने चिकित्सकों की कमी और पेयजल के मुद्दे पर स्पष्टीकरण मांगा है. अभी भी सीएचसी-पीएचसी में भर्ती मरीजों की संख्या बहुत कम है.

जापानी इंसेफेलाइटिस के केस का कम न होना

दस्तक अभियान में बच्चों को जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) का टीका लगाने का भी अभियान चलाया जाता है. वैसे अब 2013 से जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका नियमित टीकाकारण में शामिल हो गया है फिर भी छूटे बच्चों को टीका लगाने के लिए कई बार अभियान चलाया जाता है जिसकी 100 फ़ीसदी सफलता के दावे किए गए हैं.

नियमित टीकाकारण और विशेष टीकाकारण अभियानों के बावजूद जेई के केस कम नहीं हो रहे हैं. इस वर्ष के शुरूआती छह माह में 100 इंसेफेलाइटिस मरीज़ों में जेई के 20 मरीज़ मिले और इसने सात वर्ष पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया है.

इसके पहले वर्ष 2011 में जनवरी से जून तक के छह महीने में जेई के 26 केस सामने आए थे. इसके बाद यह संख्या वर्ष 2012 में एक, 2013 और 2014 में एक भी नहीं, 2015 में 11, 2016 में 4, 2017 में 7 और 2018 में 4 रही है लेकिन इस वर्ष जेई का कुल इंसेफेलाइटिस मामलों में 20 फ़ीसदी होना किसी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए लेकिन इसकी अनदेखी की जा रही है.

वर्ष 2018 में भी जनवरी से सितम्बर माह तक नौ महीने में बीआरडी मेडिकल कॉलेज में जेई के 110 केस रिपोर्ट हुए थे. जेई के केस बढ़ने का मतलब है कि टीकाकरण अभियान में कमी है.

इंसेफेलाइटिस
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शहरी क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस

गोरखपुर शहर में इंसेफेलाइटिस रोगियों की बढ़ती संख्या ने एक नई चिंता पैदा की है. अभी तक यह माना जा रहा था कि यह बीमारी गांवों में अधिक है लेकिन वर्ष 2018 में गोरखपुर शहरी क्षेत्र में इंसेफेलाइटिस के 25 केस मिले.

शहरी क्षेत्र में हुमायूंपुर, बक्शीपुर, दक्षिणी बेतियाहाता, गीता वाटिका, डेयरी कालोनी, गोरखनाथ, चिलमापुर, राजकीय सम्प्रेषण गृह, लच्छीपुर, उत्तरी जटेपुर, पुराना गोरखपुर, टीपी नगर अमरूतिया, निजामपुर, तिवारीपुर, जामियानगर, शिवपुर सहबाजगंज, मिर्जापुर पचपेड़वा, आरपीएफ कालोनी, राजेन्द्र नगर पश्चिमी, भैरोगंज में इंसेफेलाइटिस के केस रिपोर्ट हुए हैं.

ये वे क्षेत्र हैं जहां पाइप लाइन से पेयजल की आपूर्ति हो रही है. यह भी देखने को मिला है कि इंसेफेलाइटिस प्रभावित शहरी क्षेत्र में गंदगी, जलजमाव की स्थिति बेहद बुरी है.

इंसेफेलाइटिस
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कुपोषण, पेयजल

गांवों में पहले के मुकाबले अब शौचालयों की संख्या जरूर बढ़ी है लेकिन जलजमाव, मच्छरों का प्रकोप और शुद्ध पेयजल का संकट अभी भी बरकरार है.

इंसेफेलाइटिस प्रभावित क्षेत्रों में पाइप लाइन से पानी आपूर्ति की स्थिति अभी भी दयनीय है. इंसेफेलाइटिस प्रभावित गांवों में पेयजल का मुख्य श्रोत देशी हैण्डपम्प ही हैं.

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इंडिया मार्का हैंडपम संख्या में कम हैं और बड़ी संख्या में ख़राब रहते हैं. कई गांवों में लोग पीने के लिए पानी का जार ख़रीदने को मजबूर हैं.

इंसेफेलाइटिस का सीधा सम्बन्ध कुपोषण से है. एईएस व जेई के संक्रमण से कुपोषित बच्चे सबसे पहले संक्रमित होते हैं. एनएचएफएस-4 के आंकड़ों के अनुसार यूपी में पांच वर्ष से कम आयु के 46 फ़ीसदी बच्चे छोटे कद और 39.5 फ़ीसदी कम वजन के हैं.

महराजगंज, कुशीनगर, देवरिया, गोरखपुर, संतकबीरनगर, बहराइच, श्रावस्ती आदि ज़िलों में बच्चों में कुपोषण ज़्यादा है और ये ज़िले इंसेफेलाइटिस से भी सर्वाधिक प्रभावित हैं. इन ज़िलों में कुपोषण के ख़ात्मे के लिए किए जा रहे उपाय अभी तक नाकाफी साबित हुए हैं.

बीआरडी मेडिकल कॉलेज का इंसेफेलाइटिस वार्ड
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बीआरडी मेडिकल कॉलेज का इंसेफेलाइटिस वार्ड

बीआरडी मेडिकल कॉलेज के जेई एईएस के आंकड़े बताते हैं कि यह बीमारी हर तीन-चार वर्ष में अपना रौद्र रूप दिखाती रही है. वर्ष 2000 से 2004 तक गोरखपुर सहित 8-10 ज़िलों में इसके केस बहुत कम रहे लेकिन अचानक 2005 में इस बीमारी से मौतों की संख्या 1500 पार कर गई.

इसके बाद तीन वर्ष तक केस कम आए लेकिन फिर 2009, 2010 व 2011 में मरीज़ों की संख्या बढ़ती गई. इसके बाद से फिर कमी आने लगी. यह भी देखा गया है कि कम-अधिक बारिश से भी इसके रोगियों की संख्या घटती-बढ़ती रही है.

इसलिए दो वर्ष में आंकड़ों में कमी आने को अपनी सफलता मान लेना वैसी ही भूल साबित हो सकती है जैसे बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में चमकी बुख़ार में हुई है.

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English summary
Situations may happen like Muzaffarpur in Gorakhpur
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