शरद पवार: आख़िर कहां से आया उनमें ये जुझारुपन?
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार का वो आख़िरी दिन था और सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हो रही थी. ये तस्वीर शरद पवार की थी. सतारा में एक चुनाव प्रचार के दौरान की तस्वीर, जिसमें मूसलार बारिश में बिना रुके पवार भाषण दे रहे थे. अब हालांकि परिणाम सबके सामने हैं लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि जो भी परिणाम आए हैं, उनमें इस तस्वीर की अहम भूमिका रही.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार का वो आख़िरी दिन था और सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हो रही थी. ये तस्वीर शरद पवार की थी. सतारा में एक चुनाव प्रचार के दौरान की तस्वीर, जिसमें मूसलार बारिश में बिना रुके पवार भाषण दे रहे थे.
अब हालांकि परिणाम सबके सामने हैं लेकिन ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि जो भी परिणाम आए हैं, उनमें इस तस्वीर की अहम भूमिका रही. इस तस्वीर ने गेम चेंजर का काम किया. इस तस्वीर के वायरल होने के साथ ही लोगों ने पवार के जुझारुपन और उनकी डटे रहने की क्षमता के बारे में बातें करनी शुरू कर दीं.
और अब परिणाम हम जानते हैं.
इस बार एनसीपी का रिकॉर्ड कैसा रहा इसे जानने का सबसे सही तरीक़ा है पुराने चुनाव परिणामों पर एक नज़र डालना.
साल 2014 में हुए चुनावों में एनसीपी को 41 सीटें मिली थीं, इस बार यह आंकड़ा 54 है. हालांकि चुनाव परिणामों की घोषणा हो चुकी है, सरकार की रुपरेखा क्या होगी, मुख्यमंत्री कौन होगा, ये सारी बातें तो हो ही रही हैं लेकिन अगर किसी एक बात की सबसे अधिक चर्चा है तो वो है 78 साल के पवार की और उनके जुझारुपन की.
चुनावों की तैयारी शुरू हो चुकी थी. लेकिन शरद पवार इस शुरुआती वक़्त में कहीं नज़र नहीं आ रहे थे. वो पिक्चर में तब आए जब प्रवर्तन निदेशालय का विवाद उनसे जुड़ा. इसके बाद उनका जो रूप सामने आया, उसकी चर्चा दूर-दूर की महफ़िलों में भी है. चुनावों के दौरान जब ख़बर आई कि प्रवर्तन निदेशालय ने महाराष्ट्र सहकारी बैंक घोटाला मामले में शरद पवार के ख़िलाफ़ एआईआर की है, उनका रुख़ सभी को चौंकाने वाला था. उन्होंने घोषणा की कि वो ख़ुद ईडी के दफ़्तर जाएंगे. उनकी इस घोषणा ने महाराष्ट्र की राजनीति में खलबली मचा दी.
बाद में मुंबई पुलिस कमीश्नर के आग्रह करने के बाद वो ईडी के ऑफ़िस तो नहीं गए और ख़ुद ईडी ने भी उनसे कहा कि उन्हें ऑफ़िस आने की आवश्यकता नहीं है. महाराष्ट्र की राजनीति पर क़रीबी नज़र रखने वाले बहुत से जानकारों का मानना है कि प्रवर्तन निदेशालय और शरद पवार के बीच हुए इस एपिसोड ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों को पूरी पलट कर रख दिया.
इसके बाद पवार ने ताबड़तोड़ राज्य का दौरा किया और बड़े पैमाने पर सत्तारुढ़ बीजेपी और शिवसेना के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किया. इतने बड़े पैमाने पर चुनाव प्रचार, वो भी ऐसे वक़्त में जब उनके लंबे वक्त के साथी रहे पद्मसिंह पाटिल, विजय सिंह, मोहित पाटिल, गणेश नाइक, उदयनराजे भोंसले, जयदत्त क्षीरसागर उन्हें छोड़कर बीजेपी या शिवसेना में चले गए. एनसीपी के भीतर ख़ुद झगड़े दिखे. लेकिन उन्होंने सिर्फ़ दर्शक की तरह इसे देखना स्वीकार नहीं किया और पूरी ताक़त से चुनाव प्रचार किया.
वरिष्ठ पत्रकार प्रताप आस्बे शरद पवार की राजनीति और रणनीति पर क़रीबी नज़र रखते आए हैं. उनका कहना है "पवार का ये रूप और जुझारुपन कोई नया नहीं है."
वो कहते हैं "साल 1980 में शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे. उस वक़्त उन्होंने दिल्ली में इंदिरा गांधी से मुलाक़ात की. इंदिरा गांधी ने उन्हें सलाह दी कि वो संजय गांधी के नेतृत्व में काम करें बजाय की यशवंतराव चव्हाण की अगुवाई में काम करने के. लेकिन पवार ने इंदिरा गांधी के इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. वो अच्छी तरह से जानते थे कि इंदिरा गांधी के प्रस्ताव को ठुकराने के क्या मायने हो सकते हैं लेकिन उन्होंने वही फ़ैसला लिया जो उन्हें ठीक लगा. इसके बाद जब अगले दिन पवार वापस महाराष्ट्र लौटे तब तक केंद्र सरकार ने राज्य में उनकी सरकार को ख़ारिज करने का फ़ैसला कर लिया था."
आस्बे उस वक़्त का भी ज़िक्र करते हैं जब पवार को सोशलिस्ट कांग्रेस को लेकर मुसीबतों का सामना करना पड़ा था और किस तरह पवार ने अपनी क्षमता से उस गंभीर स्थिति को काबू किया था.
"साल 1980 के विधानसभा चुनावों में पवार की सोशलिस्ट कांग्रेस ने 54 सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन यशवंतराव चव्हाण ने सोशलिस्ट कांग्रेस के बहुत से विधायकों को अपनी ओर खींच लिया था और ऐसे में पवार के पास मुश्किल से पांच विधायक ही बचे रह गए थे. ये पवार के लिए बहुत कठिन स्थिति थी. लेकिन ऐसी परिस्थिति में हार मानकर टूट जाने के बजाय पवार ने एक राज्यव्यापी दौरा किया. वे लोगों से मिले. उन्होंने एक किसान रैली का आयोजन किया. और अपने इन प्रयासों से उन्होंने एक बार फिर अपने लिए लोगों का समर्थन हासिल कर लिया."
आस्बे आगे जोड़ते हैं कि शरद पवार जितने जुझारु दिखते हैं वो असलियत में उससे कहीं अधिक आक्रामक हैं. आस्बे मानते हैं कि राजनीति में वो संसदीय प्रणाली से बहुत अधिक प्रभावित हैं इसलिए ऐसा बहुत कम ही होता है कि उनका आक्रामक रूप सामने आए.
कैंसर के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई उनकी जीवटता का एक और बेहतरीन उदाहरण है. बीबीसी के डिजीटल एडिटर मिलिंद खांडेकर बताते हैं "साल 2004 के लोकसभा चुनावों का वक्त था. मैं पुणे में शरद पवार की रैली को कवर करने के लिए था. रैली के दौरान ही उन्होंने घोषणा की कि एक बार यह रैली ख़त्म हो जाएगी तो वो सीधे अस्पताल जाएंगे जहां उनका एक इमरजेंसी ऑपरेशन होना है. वो वहां से मुंबई के लिए रवाना हुए. इंटरव्यू के लिए मैं उनके साथ उनकी कार में ही था. वो ब्रीच कैंडी अस्पताल में भर्ती हुए. जब पवार की बीमारी की ख़बर सामने आई तो ऐसा माना जाने लगा कि वो अबसे सक्रिय तौर पर काम नहीं करेंगे, लेकिन अब जो है हमारे सामने है. वो कैंसर से लड़कर खड़े हैं और अब लगभग 15 साल बाद भी वो पर्याप्त सक्रिय हैं. ये उनका आत्मबल नहीं तो और क्या है..."
'ये आक्रामकता, ये जुझारुपन मुझे मेरी मां से मिली है'
अपनी जीवनी में शरद पवार ने कहा था कि उन्हें ये जुझारुपन, ये जीवटता उनकी मां शारदाताई पवार से मिली.
उन्होंने लिखा है, "हमारे गांव में एक आवरा सांड था. उसकी वजह से गांव के लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था. एक दिन किसी ने उसे आग के हवाले कर दिया. जली हुई हालत में वह सड़क के एक किनारे गिर पड़ा. जब अगले दिन मेरी मां सोकर उठी उन्होंने उस घायल सांड को देखा. उसके शरीर से खून बह रहा था. मेरी मां उसके पास गई और बेहद कोमल भावों के साथ उसकी पीठ पर हाथ फेरा. इतने में वो सांड उठ खड़ा हुआ और उसने पूरी ताक़त के साथ मेरी मां को उठाकर एक ओर झटक दिया. अगले पंद्रह मिनट तक वो सांड अपने पूरे वज़न के साथ उन्हें दबाता रहा. इसकी वजह से उनकी जांघों की सारी हड्डियां टूट गई थीं. जब उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया तो डॉक्टर को उनके एक पैर से लगभग छह इंच की एक हड्डी निकालनी पड़ी. वो ऑपरेशन तो सफल रहा लेकिन उस हादसे के बाद वो कभी भी बिना सहारे के चल नहीं सकीं. इतना कुछ हो जाने के बावजूद मेरी मां ने कभी भी दुख नहीं मनाया."
भले ही पवार की जीवटता की चर्चा आज हो रही हो लेकिन कई बार उन्हें अपने बदलते रुख़ की वजह से आलोचन का सामना भी करना पड़ा है. यह वही पवार हैं जिन्होंने बीजेपी सरकार की कमान संभाली और साल 2014 में देवेंद्र फडणवीस को अप्रत्यक्ष समर्थन देकर इस सरकार को बचा लिया. जिस वक्त उन्होंने सोनिया गांधी के विरुद्ध जाकर कांग्रेस से किनारा किया और एनसीपी का निर्माण किया, उनकी तारीफ़ हुई. लेकिन बहुत जल्दी ही उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया और यूपीए सरकार में सोनिया गांधी के नेतृत्व (चेयरमेनशिप) में काम किया. सत्तर के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल का समर्थन करने को लेकर भी उनकी आलोचना हुई.
वरिष्ठ पत्रकार किरण तारे के मुताबिक़, "इस बात में कोई शक़ नहीं है कि शरद पवार जुझारु हैं. यह कई बार देखने को मिला है. लेकिन राजनीतिक मंच पर उनकी विश्वसनीयता उतनी ठोस नहीं है. कोई बहुत आसानी से उन पर यक़ीन नहीं कर सका. अगर वो कहते हैं कि वो किसी को समर्थन कर रहे हैं तो किसी को इस बात पर यक़ीन करने में मुश्किल होगी कि वो अपना समर्थन जारी रखेंगे या नहीं. और इसके साथ ही इसके पीछे उनकी क्या सोच होगी...ये भी कोई विश्वास के साथ नहीं कह सकता. हमने कई मौक़ों पर देखा है कि पवार जो कहते हैं दरअसल वो असल में ठीक उसका उल्टा करते हैं. उनके पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए दूसरी राजनीतिक पार्टियां उन पर बहुत यक़ीन नहीं करती हैं."
क्या पवार की ये ख़ूबी एनसीपी के लिए मददगार साबित होगी?
पवार ने इन विधानसभा चुनावों में जिस भावना का प्रदर्शन किया है उससे एनसीपी को चुनावों में फ़ायदा हुआ है और इस नकारा नहीं जा सकता है. लेकिन अब सवाल यह है कि क्या यह सबकुछ एनसीपी पार्टी की समस्याओं को दूर करने में मददगार साबित हो सकेगा?
वरिष्ठ पत्रकार निखिल वागले कहते हैं सिर्फ़ अकेले इससे कुछ नहीं होने वाला है.
"मुझे लगता है कि शरद पवार इन विधानसभा चुनावों में मैन ऑफ़ द मैच रहे हैं. लेकिन अगर एनसीपी आगे बढ़ना चाहती है तो यह सिर्फ़ पवार के भरोसे नहीं हो सकता है. एनसीपी को अपने मूल खांचे में कुछ बदलाव करने होंगे. पार्टी के दूसरे नेताओं को अपना रवैया बदलना पड़ेगा. पार्टी की छवि महाराष्ट्र की पार्टी के तौर पर है जिसे बदले जाने की ज़रूरत है."
लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर का मानना है कि एनसीपी अब चुनौतियों का सामना और बेहतर तरीक़े से कर सकेगी. वो कहते हैं, "शरद पवार का प्रदर्शन बहुत महत्वपूर्ण है. एनसीपी में बी गुटबाज़ी और मतभेद वाले मुद्दे हैं, जो ज़्यादातर पार्टियों में हैं. अब जैसा कि पवार ने यह दिखा दिया है कि क्या किया जा सकता है तो पार्टी में घुसपैंठ की आशंका घटेगी. अब अजीत पवार भी इस्तीफ़ा प्रकरण जैसा कुछ करने से पहले सावधान रहेंगे. एनसीपी में अब फिलहाल के लिए तो संभावित विद्रोह जैसा नहीं दिखता."
शरद पवार बाघ की तरह जाग तो गए, लेकिन क्या अब देर हो गई है?
शरद पवार की एनसीपी का भविष्य क्या है?
पुणे लोकमत के संपादक प्रशांत दीक्षित कहते हैं "शरद पवार की उम्र को देखते हुए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि एनसीपी के लिए नेतृत्व का चुनाव करना पवार के लिए चुनौतीभरा होगा. एनसीपी के दूसरे नेतृत्व को मज़बूत करने की ज़रूरत है. पवार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आने वाली पीढ़ी का नेतृत्व गुटबाजी और मतभेदों से दूर रहे, जो एनसीपी में भरपूर है."