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'मनमोहन सिंह को बेचना बीएमडब्लू कार बेचने जैसा था'

"वाजपेयी सामान्य निर्देश दे कर पीछे हट जाते थे और सारा काम अधिकारियों पर छोड़ देते थे. ब्रजेश मिश्रा एक तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय को चलाते थे. लेकिन मनमोहन सिंह का स्टाइल बिल्कुल अलग था. वो ज़्यादा से ज़्यादा समय मीटिंग्स में बिताते थे."

"नरेगा, भारत निर्माण, सर्वशिक्षा अभियान किसी की कोई बैठक हो रही हो, मनमोहन सिंह वहाँ हमेशा मौजूद रहते थे. ये काम क़ायदे से कैबिनेट सचिव या प्रधानमंत्री सचिव को होना चाहिए, प्रधानमंत्री का नहीं."

By BBC News हिन्दी
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द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर
The Accidental Prime Minister Poster
द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर

अगर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल पर किताब लिखने वाले उनके प्रेस सलाहकार रहे संजय बारू की बात मानी जाए तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के संबंधों की पहली परीक्षा हुई थी जब 15 अगस्त, 2004 को उन्हें लाल क़िले की प्राचीर से देश को संबोधित करना था.

बारू से कहा गया कि वो भाषण से एक दिन पहले उसके ड्रेस रिहर्सल यानी पूर्वाभ्यास में भाग लें. जब वो लाल क़िले पर पहुंचे तो उन्होंने जिज्ञासावश भाषण के दौरान होने वाले 'सिटिंग अरेंजमेंट' पर नज़र दौड़ाई.

भाषण मंच से थोड़ा पीछे मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरन कौर की कुर्सी थी. उसके बाद वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी थी. पहली पंक्ति से सोनिया गांधी की कुर्सी नदारद थी.

जब बारू ने रक्षा मंत्रालय के अधिकारी से पूछा कि सोनिया को कहाँ बैठाया जाएगा तो उसने चौथी या पांचवी पंक्ति की तरफ़ इशारा कर दिया जहाँ उनकी बग़ल में नजमा हेपतुल्लाह को बैठाया जाना था.

बारू ये सुन कर अवाक रह गए. उन्होंने मन में सोचा कि इससे मनमोहन सिंह को व्यक्तिगत तौर पर बहुत शर्मिंदगी होगी और सोनिया गांधी भी अपमानित महसूस करेंगी.

बहरहाल समय रहते सोनिया गांधी की सीट बदल कर उन्हें सबसे आगे कैबिनेट मंत्रियों के साथ बैठाया गया और संभावित बदमज़गी टल गई.

मनमोहन और सोनिया

संजय बारू ने अपनी किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर - द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह' में मनमोहन सिंह को कहते बताया है कि उनकी नज़र में पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से अधिक महत्वपूर्ण है.

मैंने संजय बारू से पूछा कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के संबंधों में सिर्फ़ यही एक जटिलता थी या कुछ और भी?

बारू का जवाब था, "काफ़ी साफ़-साफ़ संबंध था दोनों का. मनमोहन सिंह बहुत आदर से उनसे पेश आते थे और सोनिया गांधी भी उनसे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की तरह व्यवहार करती थीं. लेकिन मनमोहन सिंह ने ये मान लिया था कि पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से अधिक महत्वपूर्ण था. हमारे देश में ये पहली बार हुआ था."

"पचास के दशक में आचार्य कृपलानी जब कांग्रेस के अध्यक्ष थे तो उन्होंने नेहरू से कहा था कि पार्टी अध्यक्ष के नाते आपको मुझे बताना होगा कि आप सरकार में क्या करने जा रहे हैं? जवाहरलाल नेहरू ने कृपलानी से कहा कि मैं आपको इस बारे में कुछ नहीं बता सकता."

"अगर आपको जानना है कि सरकार में क्या हो रहा है तो आप मेरे मंत्रिमंडल के सदस्य बन जाइए. नेहरू ने उन्हें बिना विभाग के मंत्री का पद 'ऑफ़र' भी किया. लेकिन कृपलानी ने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया."

"जब कृपलानी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया, तब से ये माना जाने लगा कि प्रधानमंत्री का ओहदा और स्तर पार्टी अध्यक्ष से बड़ा है. मेरा मानना है कि मनमोहन सिंह का ये मान लेना कि प्रधानमंत्री का पद पार्टी अध्यक्ष के पद से एक पादान नीचे है, ग़लत था."

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मनमोहन को अपनी टीम चुनने की छूट नहीं

बारू बताते हैं, "प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बात की छूट नहीं थी कि वो अपनी टीम का ख़ुद चयन करें. रोज़ के स्तर पर सोनिया गाँधी के निर्देश अहमद पटेल या पुलक चटर्जी के ज़रिए मनमोहन सिंह के पास आते थे. पटेल ही उन लोगों की लिस्ट प्रधानमंत्री के पास लाते थे, जिन्हें सोनिया मंत्रिमंडल में रखना या निकालना चाहती थीं."

"एक बार वो सोनिया का संदेश लेकर प्रधानमंत्री द्वारा मंत्रिमंडल फेरबदल में राष्ट्रपति को मंत्रियों के नाम भेजे जाने से तुरंत पहले मनमोहन सिंह के पास पहुंचे. दूसरी लिस्ट टाइप करने का समय नहीं था. इसलिए मूल लिस्ट में एक नाम पर 'व्हाइटनर' लगा कर दूसरा नाम लिखा गया."

"इस तरह आँध्र प्रदेश के सांसद सुबिरामी रेड्डी को मंत्री की शपथ दिलाई गई और हरीश रावत ( जो बाद में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने) का नाम काट दिया गया. सोनिया गांधी का ये भी प्रयास रहता था कि सरकार की सामाजिक नीतियों का श्रेय भी प्रधानमंत्री को न मिल कर पार्टी को मिले."

मैंने संजय बारू से पूछा कि क्या इसके ज़रिए सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को बताना चाह रही थीं कि 'हू इज़ द बॉस?'

बारू का जवाब था, "मेरे ख्याल से ये सोनिया गाँधी की कोशिश नहीं थी, बल्कि पार्टी के दूसरे नेताओं की कोशिश थी. उनका मानना था कि पार्टी प्रधानमंत्री से बड़ी है और इस तरह की चर्चा कांग्रेस नेताओं में होती थी. प्रधानमंत्री की तरफ़ से कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया गया."

राजनीतिक रूप से बहुत नज़दीकी से काम करने के बावजूद सोनिया और मनमोहन सिंह के बीच एक तरह की सामाजिक दूरी थी और वो आपस में घुलमिल नहीं पाते थे.

बारू कहते हैं, "दोनों परिवारों के बीच आना-जाना नहीं था. मैं नहीं समझता कि वो कभी चाय पर बैठ कर गप मारते थे. मैने मनमोहन सिंह की बेटियों को कभी राहुल गांधी या प्रियंका गाँधी से बात करते नहीं देखा. मेरे ख्याल में दोनों परिवारों के बीच जो थोड़ा बहुत रिश्ता था, वो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही शुरू हुआ."

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पंजाब विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के पद से अपने करियर की शुरुआत करने वाले मनमोहन सिंह ने कैंब्रिज में भारत के निर्यात और आयात पर अपना शोध किया था. कैंब्रिज से वापस आने पर उन्हें विदेश व्यापार विभाग में बतौर सलाहकार रखा गया था.

मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह उनकी जीवनी 'स्ट्रिक्टली पर्सनल-मनमोहन एंड गुरशरन' में लिखती हैं, "मेरे पिता अपनी नम्रता को त्याग कर खुलेआम कहा करते थे कि उस समय विदेशी व्यापार के मुद्दों पर भारत में उनसे अधिक जानने वाला कोई नहीं था. उस समय उनके मंत्री थे ललित नारायण मिश्र."

"एक बार वो मनमोहन सिंह से नाराज़ हो गए, क्योंकि वो कैबिनेट को भेजे जाने वाले एक नोट से सहमत नहीं थे. मनमोहन सिंह ने कहा कि वो दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में प्रोफ़ेसर की अपनी नौकरी पर वापस चले जाएंगे."

"प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सचिव पीएन हक्सर को इसकी भनक लग गई. उन्होंने कहा कि तुम वापस नहीं जाओगे. उन्होंने उन्हें वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार का पद 'ऑफ़र' कर दिया. इस तरह मंत्री से लड़ाई उनके लिए प्रमोशन लेकर आई."

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नरसिम्हा राव ने चुना वित्त मंत्री के रूप में

मनमोहन सिंह ने इसके बाद योजना आयोग के सदस्य और उपाध्यक्ष, रिज़र्व बैंक के गवर्नर और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के प्रमुख के तौर पर काम किया. साल 1991 में नरसिम्हा राव ने उन्हें भारत का वित्त मंत्री बनाया.

नरसिम्हा राव के जीवनीकार विनय सीतापति बताते हैं, "नरसिम्हा राव के पास विचारों की कमी नहीं थी. उनको एक चेहरा या मुखौटा चाहिए था, जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और उनके घरेलू विरोधियों की भावनाओं पर मरहम लगा सके. साल 1991 में पीसी एलेक्ज़ेंडर उनके सबसे बड़े सलाहकार थे."

"नरसिम्हा राव ने पीसी एलेक्ज़ेंडर से कहा कि मैं एक ऐसे शख़्स को वित्त मंत्री के रूप में चाहता हूं, जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत धाक हो. एलेक्ज़ेंडर ने उन्हें आईजी पटेल का नाम सुझाया जो एक समय में रिज़र्व बैंक के गवर्नर रह चुके थे और उस समय लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स के डायरेक्टर थे."

"पटेल ने राव की पेशकश को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वो उस समय दिल्ली में रहने के लिए तैयार नहीं थे. फिर पीसी एलेक्ज़ेंडर ने मनमोहन सिंह का नाम लिया. शपथ ग्रहण समारोह से एक दिन पहले 20 जून को एलेक्ज़ेंडर ने मनमोहन सिंह को फ़ोन किया."

https://www.youtube.com/watch?v=FUbuOar6UVQ&t=30s

"उस समय मनमोहन सिंह सो रहे थे, क्योंकि वो सुबह ही विदेश यात्रा से वापस लौटे थे. बहरहाल उन्हें जगा कर बताया गया कि वो भारत के अगले वित्त मंत्री होंगे. मनमोहन सिंह ने मुझे बताया कि उन्हें उस 'ऑफ़र' पर विश्वास नहीं हुआ क्यों कि तब तक नरसिम्हा राव का सीधा फ़ोन उनके पास नहीं आया था."

"अगले दिन सुबह जब मनमोहन सिंह सुबह नौ बजे यूजीसी के दफ़्तर गए. वहाँ उनके पास नरसिम्हा राव का फ़ोन आया कि 12 बजे शपथ ग्रहण समारोह है. आप मेरे पास उसके एक घंटे पहले आ जाइए, क्योंकि मुझे आपसे अपने भाषण के बारे में बात करनी है."

"मनमोहन सिंह जब वहाँ पहुंचे तो नरसिम्हा राव ने उनसे कहा कि अगर हम सफल होते हैं तो हम दोनों को इसका श्रेय दिया जाएगा, लेकिन अगर हम कामयाब नहीं होते तो इसका ठीकरा आपके सिर पर फोड़ा जाएगा."

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मनमोहन सिंह ने उस चुनौती को स्वीकार किया और वो भारत के सबसे सफल वित्त मंत्री कहलाए.

संजय बारू बताते हैं कि मनमोहन सिंह बहुत अंतर्मुखी हुआ करते थे. जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन और चीन के प्रधानमंत्री हू जिन ताओ भी उनकी तरह कम बातूनी हों तो बातचीत आगे बढ़ाने में बहुत मुश्किल होती थी.

बारू कहते हैं, "वो बहुत शर्मीले और चुप्पे थे. जब दूसरे लोग बातें करते थे तो वो बहुत ख़ुश हो जाते थे कि उन्हें बोलना नहीं पड़ रहा है. अंतरराष्ट्रीय बैठकों में भी उन्हें वो नेता पसंद थे जो बहुत बातें किया करते थे, जैसे अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति करज़ाई. वो बहुत बोलते थे और मनमोहन सिंह मुस्कराते हुए चुपचाप उनकी बात सुना करते थे."

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अंडा उबालना तक नहीं आता मनमोहन को

मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने उन पर लिखी जीवनी में उनकी शख़्सियत के दूसरे पक्षों पर भी रोशनी डाली है.

दमन सिंह लिखती हैं, "हर दो महीने पर हमारा पूरा परिवार बाहर खाने जाता था. हम या तो कमला नगर की कृष्णा स्वीट्स में दक्षिण भारतीय खाना खाते थे या दरियागंज के तंदूर में मुग़लाई खाना. चीनी खाने के लिए हम मालचा रोड पर 'फ़ूजिया' रेस्तराँ में जाते थे और चाट के लिए हमारी पसंद होती थी बंगाली मार्केट."

"मेरे पिता को न तो अंडा उबालना आता था और न ही टेलिविजन ऑन करना. हमें उनकी सरकारी गाड़ी पर बैठने का कभी मौक़ा नहीं मिला. अगर हम किसी जगह पर जा रहे हो और वो जगह उनके रास्ते में पड़ रही हो, तब भी वो हमें अपनी सरकारी गाड़ी पर नहीं बैठने देते थे. किन्हीं कारणों से उन्हें अपनी चाल पर नियंत्रण नहीं था."

"एक बार जब वो तेज़ चाल से चलने लगते थे तो उनकी चाल चाहने पर भी धीमी नहीं पड़ती थी और उनके साथियों को उनके साथ चलने में बहुत मशक़्क़त करनी पड़ती थी."

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भाषण का अभ्यास करते थे मनमोहन

मनमोहन सिंह को भाषण देना बिल्कुल नहीं आता था. उनकी आवाज़ बहुत पतली थी और वो सही शब्दों पर ज़ोर नहीं दे पाते थे. शुरू शुरू में देश को संबोधित करने से पहले वो अपने भाषण का अभ्यास करते थे.

संजय बारू बताते हैं, "साल 2004 में जब वो पहली बार लाल क़िले से देश को संबोधित करने वाले थे, तो वो अपने भाषण का अभ्यास किया करते थे. लेकिन जब उनकी आदत पड़ गई तो उन्होंने अभ्यास वग़ैरह छोड़ दिया. उन्हें हिंदी पढ़नी नहीं आती थी. वो अपने भाषण या तो गुरमुखी में लिखते थे या उर्दू में."

"उन्हें उर्दू साहित्य में बहुत रुचि थी. वो अक्सर अपने भाषणों में उर्दू के शेरों का इस्तेमाल करते थे. मुज़फ़्फ़र राज़मी का एक शेर उन्होंने संसद में पढ़ा था और जनरल परवेज़ मुशर्ऱफ़ को भी सुनाया था - ये जब्र भी देखा है, तारीख़ की नज़रों ने.... लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई...."

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'अंडररेटेड' राजनेता

मनमोहन सिंह के बारे में साल 2012 में एक दिलचस्प टिप्पणी कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने की थी, "मुझे पता नहीं कि मनमोहन सिंह एक 'ओवररेटेड' अर्थशास्त्री हैं या नहीं, लेकिन मैं ये ज़रूर जानता हूं कि वो एक 'अंडररेटेड' राजनेता ज़रूर हैं."

संजय बारू कहते हैं, "अगर आप उन्हें अर्थशास्त्र के बुद्धिजीवी के तौर पर देखेंगे तो ठीक है, उन्होंने कैंब्रिज और ऑक्सफ़र्ड में पढ़ाई की है, लेकिन उन्होंने अपनी थीसिस प्रकाशित हो जाने के बाद कोई किताब नहीं लिखी है."

"दूसरी तरफ़ राजनीति में नौसीखिया होने के बावजूद वो 10 साल तक भारत के प्रधानमंत्री रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के बाद सबसे लंबा कार्यकाल उन्हीं का रहा है."

मनमोहन सिंह को ग़ुस्सा भी आता है

मनमोहन सिंह की मुलायम छवि को देखते हुए बहुत कम लोग इस बात का अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उन्हें कभी ग़ुस्सा भी आता होगा.

संजय बारू कहते हैं, "वो बाक़ायदा ग़ुस्सा करते थे. ग़ुस्से में लाल हो जाता था उनका चेहरा. दो तीन बार मुझे भी बहुत डांट पड़ी है उनसे. ग़ुस्से में कई बार उनकी आवाज़ ऊंची हो जाया करती ती. एक बार वो जयराम रमेश पर ख़फ़ा हो गए थे, क्योंकि उन्होंने सोनिया गाँधी की एक चिट्ठी लीक कर दी थी."

"उन्होंने मेरे सामने जयराम रमेश को फ़ोन पर डांटा. जयराम फ़ोन पर अपनी सफ़ाई दे रहे थे, लेकिन उन्होंने उनकी एक नहीं सुनी और फ़ोन को ग़ुस्से में नीचे पटक दिया."

मैंने बारू से पूछा कि प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार का सबसे बड़ा काम होता है लोगों के बीच उनकी बेहतरीन छवि को पेश करना. आपके लिए ये काम कितना मुश्किल था?

बारू का जवाब था, "उनके पहले कार्यकाल में प्रेस के बीच उनकी छवि इतनी अच्छी थी कि मुझे तो कोई मेहनत ही नहीं करनी पड़ी. उनको बेचना बीएमडब्लू कार बेचने की तरह था. वो कार इतनी अच्छी है कि उसके लिए किसी 'सेल्समैन' की ज़रूरत ही नहीं."

मनमोहन और वाजपेयी

वाजपेयी और मनमोहन सिंह के काम करने के ढ़ंग की तुलना करते हुए बारू एक दिलचस्प टिप्पणी करते हैं कि वाजपेयी के ज़माने में उनके प्रधान सचिव ब्रजेश मिश्रा प्रधानमत्री की तरह काम करते थे और मनमोहन सिंह के ज़माने में वो यानी मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के सचिव के तौर पर व्यवहार करते थे.

इसको और समझाते हुए बारू बताते हैं, "एक 'जोक' हुआ करता था हमारे बीच. हमारे साथ कई लोग ऐसे थे जो वाजपेयी के साथ भी काम कर चुके थे. वो कहते थे कि वाजपेयी राजनीतिज्ञ ज़्यादा थे, प्रशासक कम थे. मनमोहन सिंह ज़्यादा प्रशासक थे, राजनीतिज्ञ कम थे."

"वाजपेयी सामान्य निर्देश दे कर पीछे हट जाते थे और सारा काम अधिकारियों पर छोड़ देते थे. ब्रजेश मिश्रा एक तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय को चलाते थे. लेकिन मनमोहन सिंह का स्टाइल बिल्कुल अलग था. वो ज़्यादा से ज़्यादा समय मीटिंग्स में बिताते थे."

"नरेगा, भारत निर्माण, सर्वशिक्षा अभियान किसी की कोई बैठक हो रही हो, मनमोहन सिंह वहाँ हमेशा मौजूद रहते थे. ये काम क़ायदे से कैबिनेट सचिव या प्रधानमंत्री सचिव को होना चाहिए, प्रधानमंत्री का नहीं."

"मैं उन्हें अक्सर चिढ़ाता था कि ब्रजेश मिश्रा के बारे में मशहूर था कि वो तो प्रधानमंत्री के तौर पर काम करते थे और आप के बारे में मशहूर है कि आप तो प्रधानमंत्री के सचिव की तरह काम करते हैं."

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English summary
Selling a BMW car was like selling a car to Manmohan Singh
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