दो हफ्ते में PK का चमत्कार, बीजेपी-शिवसेना मिलकर लड़ेंगे लोकसभा चुनाव
नई दिल्ली। दो हफ्ते भी नहीं हुए हैं जब पीके यानी प्रशान्त किशोर ने शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मुलाकात की थी। तारीख थी 5 फरवरी। 18 फरवरी आते-आते बीजेपी और शिवसेना मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला कर बैठे। वनइंडिया.कॉम पर इन पंक्तियों को लेखक ने तभी यह बता दिया था कि पीके अपनी पार्टी जेडीयू या फिर नीतीश कुमार के लिए किसी मदद की उम्मीद में तो गये नहीं थे। पेशेवर काम भी प्राथमिकता में दूसरे नम्बर पर रहा होगा। असल में पीके मध्यस्थ/वार्ताकार/एजेंट के रूप में ही गये थे। यह बात सच निकली और मध्यस्थता भी सफल हुई है।
बीजेपी और शिवसेना 25 और 23 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। विधानसभा चुनाव में आधी-आधी सीटों पर तालमेल होगा और बराबरी के हिसाब से सरकार में जिम्मेदारी भी बंटेगी। पीके के मातोश्री पहुंचने से पहले तक ऐसे समझौते की उम्मीद ख़त्म हो चुकी थी। बल्कि, कहा जाए कि जो चमत्कार एसपी और बीएसपी के बीच गठबंधन के रूप में देखने को मिला था उससे कहीं बड़ा चमत्कार है बदली हुई परिस्थितियों में बीजेपी और शिवसेना के बीच गठबंधन का ताजा एलान।
आखिर पीके ने शिवसेना को क्या समझाया
आखिर पीके ने क्या समझाया होगा कि उसका जादुई असर शिवसेना पर भी दिखा और बीजेपी पर भी। जहां तक बीजेपी की बात है, पार्टी गठबंधन करने को तैयार बैठी थी। मगर, शिवसेना के तेवर अलग थे। शिवसेना का कहना था कि जब महज दो लोकसभा सीट लाने वाली जेडीयू के साथ बिहार में बीजेपी बराबरी पर गठबंधन कर सकती है, 22 सीटों के रहते हुए वह 17 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हो सकती है तो ऐसा ही व्यवहार वह शिवसेना के साथ क्यों नहीं कर सकती?
शिवसेना को समझाने के लिए पीके जैसे व्यक्ति ही उपयुक्त थे। जेडीयू के उपाध्यक्ष के तौर पर उन्होंने नीतीश कुमार की अहमियत बतायी होगी कि बिहार में जिधर नीतीश रहते हैं सरकार उन्हीं की बनती है। यह भी बताया होगा कि नीतीश की सियासत पानी जैसी है जो चाहे कभी भगवा हो जाए और कभी महागठबंधन के रंग में रंग जाए। शिवसेना की स्वीकार्यता पानी जैसी नहीं है। उसकी स्वीकार्यता भगवे के रंग में ही है। शिवसेना चाहे तो भी वह कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं कर सकती।
पीके ही सही व्यक्ति थे जिन्होंने शिवसेना को उनका हित भी समझा सके। अकेले लड़ने से सबसे ज्यादा नुकसान शिवेसना को होना था। तमाम सर्वे का हवाला देकर उन्होंने आसानी से यह बात समझा दी होगी। मगर, मान-सम्मान के लिए शिवसेना जैसी पार्टी नुकसान से भी पीछे नहीं हटती है। ऐसे में पीके ने भविष्य भी दिखलाया। एनडीए में शिवसेना का सुनहरा भविष्य है। क्यों? कैसे? क्या शिवसेना खुद अपना सुनहरा भविष्य देखना नहीं जानती?
चुनाव बाद परिदृश्य समझाने में भी पीके का सानी नहीं
आम चुनाव के बाद का राजनीतिक परिदृश्य समझाने के नजरिए से भी पीके सबसे चमत्कारिक व्यक्ति हैं। उन्होंने एक ऐसी सरकार की सम्भावना सामने रख दी जिसके मुखिया नरेंद्र मोदी से अलग हो सकते हैं। यहां तक कि बीजेपी से भी अलग हो सकते हैं। इसमें नीतीश कुमार की पानी वाली सियासत की उपयोगिता भी उन्होंने समझा दी। कहीं बुरा न मान जाएं इसलिए पीके ने उद्धव ठाकरे का नाम भी इस भूमिका के लिए चर्चा में जरूर रखा होगा। यह उनकी खासियत है। बस, नीतीश का नाम थोड़ी मजबूती से उन्होंने लिया होगा।
एनडीए छोड़ना शिवसेना के लिए तो कहीं से बुद्धिमानी नहीं है। एनडीए में रखते हुए बीजेपी ने शिवसेना को ‘बड़े भाई' से ‘छोटे भाई' में बदल दिया। अगर एनडीए छोड़ना भी है तो इस रुतबे के साथ क्यों छोडे शिवसेना? क्यों नहीं आम चुनाव का इस्तेमाल इस रुतबे को और मजबूत करने में किया जाए और उसके बाद एनडीए में रहने या नहीं रहने का फैसला किया जाए? गठबंधन की मलाई केवल बीजेपी ही क्यों खाए? शिवसेना राजनीतिक रूप से बुद्धू क्यों कहलाए? निश्चित रूप से पीके की बातों ने उद्धव ठाकरे पर असर डाला।
बीजेपी भी करती है पीके पर भरोसा
पीके के पक्ष में एक बात और है कि बीजेपी उन पर अटूट भरोसा करती है। गुजरात में सियासत के दिनों का साथ है। फिर खुद नीतीश कुमार मान चुके हैं कि उनकी पार्टी में उपाध्यक्ष की पोस्ट पीके को इसलिए मिली है क्योंकि अमित शाह ने इसकी सिफारिश की थी। ऐसे में पीके को केवल शिवसेना को मनाना था। शिवसेना को मनाते ही पीके की वैल्यू बीजेपी के लिए और बढ़ गयी। अब वो बीजेपी के लिए ऐसे एसेट हो गये हैं जिनके जरिए उधार में शिवसेना मिल जा रही है। जाहिर है सूद समेत फायदा भी पीके को मिलेगा।
बीजेपी-शिवसेना के बीच गठबंधन हो जाने का श्रेय पीके को मिल चुका है। शिवसेना भी अंदर-अंदर धन्यवाद कर रही होगी क्योंकि सबसे ज्यादा नुकसान में शिवसेना ही रहती। बीजेपी भी दोहरे नुकसान से बच गयी। एक तो बीजेपी का नुकसान और दूसरा एनडीए का नुकसान। एक सीटों के रूप में और दूसरा गठबंधन साथी के रूप में। एक तरह से पीके ने खुद की उपयोगिता बीजेपी, शिवसेना दोनों के लिए साबित कर दी। निस्संदेह जेडीयू के लिए तो वे उपयोगी बने ही हुए हैं।