Job Employment: यकीन मानिए, भारत में तैयार होते है सर्वाधिक नॉन स्किल्स डिग्री होल्डर!
बेंगलुरू। गुरूकुल शिक्षा संस्कृति और विश्व को नालंदा-तक्षशिला विश्वविद्यालय जैसे विरासत सौंपने वाली भारतीय शिक्षा पद्धतियों का अचानक हुई घटना नहीं है। पेशेवर शिक्षा नीति और संस्कृति को दोष देने से पहले खुद को आईने में देखने की जरूरत है। केंद्रीय श्रम और रोजगार मंत्री संतोष गंगवार के बयान पर उबलने और ऊल-जूलुल बोलने से पहले यह जानने की जरूरत अधिक है कि उनके बयान का निहितार्थ क्या है।
अभी कुछ दिन पहले जारी हुए ग्लोबल यूनीवर्सिटी रैंकिंग में भारतीय विश्वविद्यालयों की हालत अब किसी से छिपी नहीं रह गई है, जिसमें एक अदद इंडियन यूनीवर्सिटी दुनिया के टॉप 300 यूनीवर्सिटी की सूची में जगह बनाने में नाकाम रहीं। यह शर्म का विषय उस भारतीय विरासत के लिए है, जो कभी विश्वगुरू कहलाती है। तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए पूरे विश्व से छात्र पहुंचते थे, लेकिन वर्तमान में भारत में 800 के करीब विश्वविद्यालय कहने को मौजूद हैं, लेकिन वो सभी शिक्षालय से कार्यालय में तब्दील हो चुके हैं।
यूनीवर्सिटी ग्रांट कमीशन की वेबसाइट पर उपलब्ध फरवरी, वर्ष 2017 तक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 789 से अधिक यूनीवर्सटी हैं, 37, 204 से अधिक कॉलेजेज और 11, 443 स्वयंभू शिक्षण संस्थान हैं, लेकिन ग्लोबल यूनीवर्सिटी रैंकिंग में इनमें एक भी संस्थान टॉप 300 में जगह नहीं मिली।
जो यह दर्शाता है कि भारतीय शिक्षण संस्थानों का स्तर कितना दोयम हो चला है। ऐसे संस्थानों से डिग्री लेकर नौकरी की लाइन में लगे छात्रों को तब और निराशा हाथ लगती है, जब नौकरी देने वाली कंपनियां नॉन स्किल थ्योरी के आधार पहले तो वरीयता देती है और देती हैं तो उन्हें औसत दर्ज की सैलरी ऑफर करती हैं।
बड़ा सवाल यह है कि नॉन-स्किल्स की तैयार हो रही खेप के लिए कौन जिम्मेदार है लाखों की डिग्री लेकर नौकरी ढ़ूंढने निकले छात्र अथवा शिक्षण संस्थान, जो शिक्षालय को पैसा कमाने का कार्यालय बनाकर डिग्रियां बांट रही हैं। छात्र ऐसे संस्थानों में डिग्रियां तो हासिल कर लेते हैं, लेकिन प्रोफेशनल ट्रेनिंग के अभाव में प्रैक्टिक्ल लाइफ में फेल होकर घर बैठने को मजूबर हो जाते हैं। केंद्रीय मंत्री संतोष गंगवार शायद इन्हीं नॉन स्किल लेबर की बात कर रहे हैं, जिन्हें स्टार्ट टू रन कंडीशन में नौकरी पर रखने से कंपनियां कतराती हैं, क्योंकि कंपनियां ट्रैनिंग के नाम पर किसी भी इंप्लॉयी पर समय और पैसा दोनों खर्च नहीं करना पसंद करती हैं।
देश की अग्रणी आईटी कंपनियां मसलन इंफोसिस, विप्रो और टीसीएस नए इंप्लॉयी की ट्रैनिंग पर आज भी पैसा खर्च रही हैं, लेकिन ज्यादातर कंपनियां इंप्लॉयी पर पैसा और समय दोनों खर्च से बेहतर स्किल्ड इंप्लॉयी पर फोकस कर रही हैं। संतोष गंगवार का यह कहना कि भारत में नौकरियां मौजूद हैं, लेकिन कतार में खड़े लोगों में रोजगारोन्मुख स्किल्स कमी के चलते रोजगार हासिल नहीं हो रहा है। कुछ हद तक उनकी बात सही भी है, लेकिन उनके द्वारा दिखाई जा रही यह तस्वीर एक दशक पुरानी है। अभी रोजगारोन्मुख ट्रैनिंग के लिए कंपनियां इंप्लॉयी पर खुशी-खुशी निवेश करने लगी हैं और लगातार कर भी रही हैं।
मूल बात यह है कि क्या भारतीय शिक्षण संस्थान जहां से छात्र डिग्रियां लेकर बाजार में नौकरी के लिए उतर रहे हैं, क्या वो संस्थान बदलते दौर के साथ मानक प्रोफेशनल शिक्षा छात्रों को उपलब्ध कराने में सक्षम हैं। क्योंकि शहरों ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच खड़ी हजारों शिक्षण संस्थान आज भी शिक्षालय के नाम पर पैसा कमाने का कार्यालय चला रही हैं और डिग्रियां रद्दी के भाव बांट रही हैं। ऐसे संस्थान जो शिक्षा का व्यवसायीकरण के करोड़ों कमाकर अपना घर भर रहीं है, उनकी मॉनिटरिंग के लिए सरकारें अथवा मॉनिटरिंग एजेंसी कुछ कर रही हैं, यह अभी तो कहीं नजर तो नहीं आता है।
दूसरी मूल समस्या यह है कि छात्रों की एक पूरी खेप जो हर वर्ष निजी और सरकारी संस्थानों से डिग्री लेकर बाहर निकल रहे हैं उनके प्रोफेशनिल स्टडीज में थियोरोटकल और प्रैक्टिक्ल नॉलेज का बैलेंस बनाने के लिए गर्वनिंग बॉडी क्या कर रही हैं, क्योंकि प्रोफेशनल स्टडीज में थियोरोटिकल नॉलेज में 100 फीसदी मार्क से पास हुए छात्र के पास इंडस्ट्री का प्रैक्टिकल नॉलेज नहीं है, तो वह नॉन स्किल लेबर की गिनती में पहुंच जाता है, जहां थियोरॉटिकल नॉलेज की सिर्फ अचार बन सकता है, क्योंकि प्रैक्टिकल नॉलेज से लबरेज एक हुनरमंद मैकेनिक की तुलना में बीटेक, एमबीए और एमसीए डिग्री पास होल्डर भी नॉन स्किल लेबर कहलाएगा।
आईटी और हॉस्पिटैलिटी संस्थान से जुड़ी कंपनियां तो नॉन स्किल्ड डिग्री होल्डर को खपाने के लिए कदम उठा रही हैं और उन्हें स्किल मैनेजमेंट कोर्स के जरिए उन्हें अपने संस्थान के काम लायक तैयार कर ले रही हैं, लेकिन सरकार उन शिक्षण संस्थानों, यूनीवर्सिटीज और कॉलेजों के लिए रेग्युलेटरी कब तैयार करेगी, जो लाखों रुपए लेकर छात्रों से लेकर रद्दी के बराबर डिग्रियां बांट रही हैं।
समय बदल चुका है, तो संस्थानों को भी इसके लिए तैयार होना पड़ेगा, क्योंकि निजी संस्थान हीं नहीं, अब सरकारी संस्थान भी ट्रेनिंग सेंटरों पर ताला जड़ दिया है। संस्थान रेडी टू मूव यानी स्किल्ड इंप्लॉयी पर दांव लगा रही हैं, तो शिक्षण संस्थानों को भी थियोरोटकल नॉलेज और प्रैक्टिकल नॉलेज पर बैलेंस बनाना होगा ताकि बदते हुए समय में छात्रों पर नॉन स्किल्स के तमगे से बचाया जा सके।
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