
बंदी की कगार पर भोपाल गैस त्रासदी का जीता जागता गवाह 'रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम'
1984 के यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के हादसे के पीड़ितों की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनाने वाला रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम बंद होने की कगार पर है.
तीन दिसंबर 1984 के यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के हादसे जिसे लोग भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानते हैं, उससे पीड़ितों की कहानी उन्हीं की जुबानी सुनाने वाला रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम अपनी बंद की ओर है.

फैक्ट्री से लगभग ढाई किलोमीटर की दूरी पर यह संग्रहालय स्थित है. संग्रहालय की बाहरी दीवारों ने पूरी तरह से रंग छोड़ दिया है, दीवारों पर लिखे नारे धुंधले नजर आने लगे हैं, म्यूज़ियम बाहर से एकदम ख़स्ताहाल नज़र आ रहा है.
वैसे यह म्यूज़ियम एक किताब की तरह है इसके पांच कमरों को पांच चैप्टर के रूप में बांटा गया है. पहले कमरा मुख्य रूप से घटना के समय का है. दूसरा कमरा, हादसे के बाद आस पास के पानी और जमीन, जो उस कचरे की वजह से प्रदूषित हुई उसका है. तीसरा कमरा हादसे के बाद के प्रभावों और डॉक्टरों के अनुभव का है. चौथा कमरा बच्चों के संघर्ष का है और पांचवा कमरा पीड़ितों के तब से चले आ रहे संघर्षों के सबूतों से भरा पड़ा है.
म्यूज़ियम की दीवारों में तस्वीरों के साथ दो टेलीफोन भी लगे हैं. ये टेलीफोन, पीड़ित लोगों और उनके परिवारों की कहानी, उन्हीं की जुबानी सुनाते हैं. दूसरे फोन में इन्हीं कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद है. यही फोन और इनकी ओरल कहानियां इस म्यूज़ियम को सबसे ख़ास बनाती हैं.
पहले कमरे पर एक छोटे बच्चे का स्वेटर रखा हुआ है उसके साथ लगा फ़ोन उठाने पर उस बच्ची के पिता मूलचंद की आवाज़ आती है. वे कहते हैं, "ये मेरी बेटी का सूटर (स्वेटर) है, पूजा नाम था उसका, 4 दिसंबर को मेरे दो बच्चे खत्म हुए थे. दो ढाई बजे लड़के की डेड बॉडी लेकर आए थे राकेश की, उसके बाद शाम को आठ बजे करीब पूजा खत्म हो गई."
"उसकी ये आदत थी कि अच्छी मोटी तगड़ी थी घुघरेले बाल थे ऐसा लगता था कोई अंग्रेजन है, सभी लोग हर जगह उसे खिलाते थे. हम लोग उसे इतना चाहते थे कि शायद ही हो कि कोई बच्चे को हो. वो हर चीज़ की फरमाइश करती थी और हम भी उसकी हर फरमाइश पूरी करते थे. बताओ आज हमारा बच्चा होता, जिसके बच्चे चले जाएं, कोई न रहे उसके घर के अंदर उसके दिल से पूछिए."
ऐसी ही एक कहानी बानो बी की है, इस म्यूज़ियम को उन्होंने अपना एक सूट दिया है. वो बताती हैं उनकी नई नई शादी हुई थी. "उस दिन मेरी अचानक से नींद खुली तो ऐसा लगा कि किसी ने बहुत सारी लाल मिर्च जला दी है. मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी. मैंने कहा जलील भाई इतनी रात में लाल मिर्च क्यों जलाई है. उन्होंने कहा यहां कोई मिर्च नहीं जल रही, ये धुआं यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री की तरफ से आ रहा है."
"फिर मेरे पति उठे और बाहर देखने चले गए. फिर वो कभी नहीं लौटे. उन्होंने उसी दिन मुझे यह सूट लाकर दिया था. उन्होंने तभी कहा था मुझे पहन कर दिखाओ, मैने उनसे कहा था कल पहनूंगी लेकिन मुझे नहीं पता था कि ये सूट अब मैं कभी नहीं पहन पाऊंगी." पीड़ितों और उनके संघर्षों की ऐसी न जाने कितनी कहानियां दीवारों पर लगे टेलीफोन के जरिए खुद को बयां करना चाहती हैं. (फोटो)
यह म्यूज़ियम रिमेंबर भोपाल ट्रस्ट द्वारा संचालित किया जाता है. इस ट्रस्ट के प्रबंध न्यासी सुरेश मेलेट्युकोची बताते हैं कि यह म्यूज़ियम लोगों के सहयोग से चलाया जाता है और इसके सारे ट्रस्टी वॉलिंटियर रूप में काम करते हैं.
उन्होंने बताया, "म्यूज़ियम 2014 से ही किराए के मकान में चलाया जा रहा है और यहां काम करने वाला पूरा स्टाफ़ गैस पीड़ित है. 2019 से ही इस म्यूज़ियम को चलाने के लिए पैसों की कमी होने लगी. लेकिन जैसे-तैसे कुछ आउटरीच एक्टिविटीज़ करके स्कूल कॉलेजों में जाकर इस म्यूज़ियम को चला रहे थे. लेकिन कोविड के बाद से हालात और खराब हो गए हैं. लगभग 11 महीनों से हम इसका रेंट नहीं भर पा रहे हैं. स्टाफ की सैलरी देने में भी दिक्कतें आ रही हैं. इसलिए मजबूरन हमें इस म्यूज़ियम को बंद करने का निर्णय लेना पड़ रहा हैं.
यहां काम करने वाली नफीसा भी कहती हैं, "मैं भी गैस पीड़ित हूं यहां आने वाला हर शख़्स यहां की कहानियां जानकर दुखी हो जाता है यहां केवल बिहार, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र से ही नहीं बल्कि कनाडा ऑस्ट्रेलिया और न जाने कहां-कहां से लोग आए हैं."
"यह म्यूज़ियम सरकारों और उन बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए आइना था, जो लोगों को कीड़ों मकोड़ों की तरह देखती हैं. लेकिन क्या करें, अब इसे बंद करना पड़ रहा हैं. यह म्यूज़ियम इसलिए जरूरी था कि आने वाली पीढ़ी इन सब को देख सकें और समझ सकें, जिससे दुनिया में कभी इस तरीके की घटना ना हो."
वरिष्ठ पत्रकार राकेश दीवान कहते हैं, "भोपाल गैस त्रासदी दुनिया की पहली और सबसे बड़ी इंडस्ट्रियल त्रासदी थी, लेकिन सरकारों ने और सेठों ने हमेशा इसे भुलाने की कोशिश की. यहां तक कि समाज में भी इसे हमेशा ही नजर अंदाज करने की कोशिश की है. वे कहते हैं म्यूज़ियम तो जीती-जागती चीज़ है तो वह हमेशा याद दिलाती रहेगी, लेकिन लोगों को जानबूझकर उसे भुलाना है, इसलिए वह बंद हो रहा है और उसकी कोई मदद भी नहीं करता."
चेन्नई की एडवोकेट चित्रा कहती है, "मैं भोपाल इस म्यूज़ियम को देखने आई थी. यह म्यूज़ियम अपने आप में भोपाल गैस त्रासदी की पूरी कहानी बताता है. यहां आने से पहले मुझे पता नहीं था कि त्रासदी के कई साल बाद भी उसके कचरे से विषैले हुए पानी और जमीन के कारण आने वाली पीढ़ियों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है. एक ओर दुनियाभर में वॉर म्यूज़ियम बनाए जाते हैं. वहीं, मानव त्रासदी का यह अनोखा म्यूज़ियम समाज की उदासीनता के कारण बंद हो रहा है, यह बहुत दुखद है."
घटना के चश्मदीद और पीड़ितों का इलाज करने वाले फॉरेंसिक एक्सपर्ट डॉक्टर डी के सतपति कहते हैं, "यह बड़ा ही महत्वपूर्ण म्यूज़ियम था सरकार न जाने ऐसे अनाप सनाप कामों पर कितना ही पैसा खर्च कर देती है. उसे निश्चित तौर पर ऐसे म्यूज़ियम को फंड देकर चालू रखवाना चाहिए. अगर यह बचा तो हमेशा आगे आने वाले लोगों को इस की सच्ची कहानी और पीड़ित लोगों से मिलवाता रहेगा."
इस म्यूज़ियम के मैनेजर ट्रस्टी सुनील जी ने इसकी शुरुआत के बारे में बताया, "गैस पीड़ितों के जो संगठन थे, वे सब आपस में मिलकर गैस त्रासदी से जुड़े फोटोग्राफ और चीजें को बैरसिया रोड स्थित चिंगारी संगठन में 'यादें हादसा' नाम के एक कमरे में प्रदर्शित करते थे. त्रासदी की 30वीं वर्षगांठ से पहले सभी ने मिलकर यह तय किया कि इसे म्यूज़ियम के रूप में बनाया जाए. जिसके लिए चंदा मांगा गया. जिससे रिमेंबर भोपाल ट्रस्ट का निर्माण हुआ और इसी को रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम चलाने की जिम्मेदारी मिली. 2014 में यह म्यूज़ियम बनकर तैयार हो गया."
लेकिन आठ साल के अंदर ही अब यह बंद होने के कगार पर है. गौरतलब है कि भोपाल में 3 दिसंबर 1984 को यूनियन कार्बाइड कीटनाशक कारखाने से ज़हरीले गैस का रिसाव हुआ था, जिसके चपेट में आने से आधिकारिक तौर पर 3,787 लोगों की मौत हुई थी, हालांकि दूसरे आकलनों में यह संख्या कहीं ज़्यादा बतायी जाती रही है. हादसे के 38 साल बाद भी इससे पीड़ितों और उनके परिवारों को पर्याप्त मुआवजा दिया गया या नहीं, यह सवाल आज भी बना हुआ है. 2004 से कई बार राज्य सरकारें भोपाल गैस कांड को लेकर सरकारी स्मारक बनाने का वादा भी करती आयी है, जिस पर आज तक कोई प्रगति नहीं हुई है.