वैश्विक मंदी: भारतीय मध्यमवर्ग ने सिर्फ लग्जरी सामानों से किया है किनारा!
बंगलुरू। एक बार फिर वैश्विक मंदी की आहट में भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी मंदी की आशंका गहराने लगी है। भारत में मंदी से प्रभावित हो रहे जिन तीन सेक्टर्स के नाम प्रमुखता से लिए जा रहे हैं, उनमें ऑटो सेक्टर पहले पायदान पर है जबकि दूसरे पायदान पर है टेक्सटाइल इंडस्ट्री और रियल एस्टेट सेक्टर्स तीसरी इंडस्ट्री है, जो मंदी की मार झेल रही है। यह बात दीगर है कि मंदी की मार झेल रहे तीनों सेक्टर्स लग्जरी प्रोडक्ट्स बनाती है। मसलन पैसेंजर गाड़ियां, ब्रांडेड कपड़े और हाउसिंग सोसाइटी, जो कि खाटी भारतीयों की परचेजिंग मानसिकता की प्राथमिकता से प्रायः कोसो दूर होते हैं।
मंदी की आहट में लहूलुहान हुए तीनों सेक्टर्स के धड़ाम होने के पीछे विश्लेषकों का तर्क है कि लोगों की आय वृद्धि दर में उत्तरोत्तर आई कमी इसके लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि आय वृद्धि दर गिरने से तीनों सेक्टर्स में निर्मित प्रोडक्ट्स के खरीदार कम हो गए हैं, जिससे मांग और आपूर्ति के हिसाब से बढ़ाए गए प्रोडक्शन लक्ष्य को कंपनियों को कम करने पड़ रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आय वृद्धि दर में कमी होने से लोग जरूरी चीजों की ओर सिमट गए और शेष पैसों को सेविंग में निवेश करने लगे हैं, जिससे लग्जरी प्रोडक्ट में बहुसंख्यक मध्यम वर्ग के पैसों का प्रवाह रुक गया है। कंपनियां जिसे मंदी करार दे रही हैं, दरअसल यह भारतीय मध्यमवर्गीय परिवारों का सर्वकालिक मूल व्यवहार है।
आय
बढ़ते
ही
लग्जरी
बाजारों
में
लौट
आएगा
मध्यमवर्ग
सभी जानते हैं कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार भारतीय अर्थव्यस्था की रीढ़ की हड्डी है, जो बचत को आज भी प्राथमिक रूप से प्रोत्साहन देती है। मध्यवर्गीय परिवारों के बचत प्रोत्साहन की विशेषता ही पिछले कई वैश्विक मंदियों में भी भारतीय अर्थव्यवस्था का बाल बांका नहीं कर सकी थीं। वर्तमान समय में भी भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मध्यमवर्ग का ऊंट करवट है। आय घटते ही मध्यमवर्ग अपनी खोल में लौट गई, वह लग्जरी चीजों को छोड़कर पुनः मूल जरूरतों पर केंद्रित हो गई है और जब आय बढ़ेगा तो फिर वह लग्जरी बाजारों में रौनक लौटाने वापस आ जाएगी।
गिरावट दर्ज होते ही मंदी-मंदी चिल्लाने लगती है कंपनियां
बाजार व्यवहार को समझने वाले जानते हैं कि मांग और आपूर्ति सामान्यतया कंपनियों के प्रोडक्शन लक्ष्य को बढ़ाने और घटाने के प्रमुख कारक होते हैं। दिलचस्प बात यह है कि बढ़ती मांग की आपूर्ति के लिए कंपनियां प्रोडक्शन लक्ष्य को महीने दर महीने ऊंचा करने में एक बार भी नहीं सोचती हैं, लेकिन डिमांड में गिरावट दर्ज शुरू होते ही यही कंपनियां मंदी-मंदी चिल्लाने लगती है जबकि होना यह चाहिए था कि डिमांड में गिरावट दर्ज होते ही उन्हें अपने प्रोडक्शन लक्ष्य में तब्दीली के बारे में सोचना चाहिए।
लक्ष्य घटाने के बजाय कामगारों को घटा देती हैं कंपनियां
मसलन, डिमांड बढ़ा तो सप्लाई पूरी करने के लिए कंपनियां अपना प्रोडक्शन लक्ष्य को बार-बार बढ़ाती जाती हैं, लेकिन डिमांड घटते ही प्रोडक्शन लक्ष्य घटाने के बजाय वो स्लो डाउन, मंदी और कास्ट कटिंग का शिगूफा छोड़ना शुरू कर देती है। यानी मीठा-मीठा गप, कड़ुवा-कड़ुवा थूक। कंपनियां बढ़ती डिमांड की सप्लाई पूरा करने के लिए कामगारों की भीड़ जुटाती हैं और अंधाधुंध मुनाफा कमाती हैं, लेकिन डिमांड गिरते ही जब उन्हें कामगारों को कमाएं मुनाफे में भरण-पोषण की जरूरत होती है तो उन्हें वो दूध में मक्खी की तरह निकाल फेंक देती हैं, जो नैतिक और व्यवसायिक दोनों कसौटियों पर खरी नहीं उतरती है।
दरअसल, ये कंपनियां मंदी का रोना रोकर ट्रेडिंग प्रोफेशनिल्जम से पीछा छुड़ा रही होती हैं और विलाप पॉलिसी के जरिए अपनी जिम्मेदारी से भाग रही होती हैं। इतना ही नहीं, कॉस्ट कटिंग के नाम पर कामगारों की नौकरी भी छीनने में हिचकती हैं, जिसका श्रम मंत्रालय का संज्ञान लेना चाहिए। स्लो डाउन और मंदी का रोनाकर अपनी अमानवीय हरकतों को छुपाने वाली यही कंपनियां प्रोडक्शन लक्ष्य बढ़ाते समय भारतीय अर्थव्यवस्था को श्रेय देना भूल जाती हैं, लेकिन प्रोडक्ट्स के डिमांड गिरते ही सारा ठीकरा भारतीय अर्थव्यवस्था पर फोड़ने में देर नहीं लगाती है।
स्लो डाउन और मंदी की आड़ में मनमानी करती हैं कंपनियां
एक कंपनी दोगुना और चौगुना लाभ कमाने के लिए बढ़ती डिमांड की सप्लाई के लिए हजारों लोगों को नौकरी पर रखती है, लेकिन डिमांड गिरने पर प्रोडक्शन लक्ष्य में कटौती न करके कामगारों की बलि ले लेती है। यह एक किस्म का दोगलापन ही है, जिस पर अभी तक कोई सरकारी अंकुश तक नहीं है। अफसोस कि कंपनी पॉलिसी और श्रम कानून भी कंपनियों को ऐसा करने से रोकने में सक्षम नहीं हैं, जो कंपनियों के गैर मानवीय हरकतों पर लगाम लगा सकें।
2009
में
वैश्विक
मंदी
के
बावजूद
स्थिर
रही
भारतीय
अर्थव्यवस्था
याद कीजिए 2009 की आई वैश्विक मंदी और भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट में लग्जरी सामान बनाने वाली कंपनियों ने कितने कामगारों की नौकरी ले ली थी जबकि वैश्विक मंदी के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था स्थिर थी। भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मंदी का बिल्कुल असर नहीं पड़ा था जबकि अमेरिका, यूरोप समेत कई देशों में मंदी का बुरा असर देखा गया था। मंदी की आहट और मंदी की अफवाह में विभिन्न कंपनियों से निकाले गए कामगारों को कितना मुश्किल का सामना करना पड़ता है, लेकिन मीठा-मीठा गप और कड़ुवा-कड़ुवा थूक की पॉलिसी पर चल रहीं कंपनियां हर हाल में मुनाफे में रहती हैं।
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टाटा मोटर्स, मारुति सुजुकी और महिंद्रा के शेयर में 55% की गिरावट
आर्थिक मंदी ने ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री को पिछले एक साल से बुरी तरह जकड़ा हुआ है। दरअसल, वर्ष 2015 बाद खासकर भारतीय मध्यम वर्ग की आय वृद्धि दर में लगातार कमी आती गई है, जो मौजूदा दौर में ऑटो मोबाइल समेत अन्य लग्जरी सामान बनाने वाली इंडस्ट्री में आई मंदी के लिए जिम्मेदार हैं। आय वृद्धि दर में उत्तरोतर आई कमी के चलते उन्हीं सेक्टर से जुड़े इंडस्ट्री को मंदी का नुकसान पहुंच रहा है, जो लग्जरी सामान बनाते हैं। लग्जरी सामान सीधे तौर पर उपभोक्ता के निवेश और बचत शक्ति से जुड़े हुए हैं। टाटा मोटर्स, मारुति सुजुकी और महिंद्रा जैसी बड़ी कंपनियों के शेयर में भारी लगभग 55% की गिरावट आयी है। इस दौरान करीब तीन माह के अंतराल में विभिन्न कंपनियों ने कुल 2 लाख लोगों को नौकरी से निकाल दिया है।
जुलाई 2019 में यात्री वाहनों की बिक्री 30.9% गिरावट दर्ज की गई
सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरर्स (SIAM)के आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई 2019 में यात्री वाहनों की बिक्री जुलाई 2019 में 30.9% गिरकर 2,00,790 इकाई पर आ गई। दिसंबर 2000 के बाद से यह सबसे ज़्यादा गिरावट है। उस समय करीब 35.22 प्रतिशत की गिरावट आई थी। मौजूदा मंदी में SIAM ने कहना है कि कॉमर्शियल वाहनों की बिक्री 25.7% गिरकर 56,866 इकाई रही। मोटरसाइकिल और स्कूटर की बिक्री 16.8% घटकर लगभग 1.51 मिलियन यूनिट हो गई, जबकि यात्री कार की बिक्री 36% गिरकर 122,956 यूनिट रह गई है। ऑटोमेटिव कॉम्पोनेन्ट मनुफेक्चर्स एसोसिएशन (ACMA) ने सीधे-सीधे धमकी दी है अगर ऑटोमोबाइल उद्योग से जुड़े 10 लाख कामगारों की नौकरी पर खतरा है।
कपड़ा उद्योग से जुड़े हैं 10 करोड़ से अधिक कामगार
कपड़ा मिल संगठनों द्वारा दिए गए एक विज्ञापन में नौकरियाँ खत्म होने के बाद फ़ैक्ट्री से बाहर आते लोगों का स्केच बनाया है और इसके नीचे बारीक़ आकार में लिखा है कि देश की एक-तिहाई धागा मिलें बंद हो चुकी हैं, और जो चल रही हैं उनकी स्थिति ऐसी भी नहीं है कि वे किसानों का कपास ख़रीद सकें। अनुमान है कि आने वाली कपास की फ़सल को शायद कोई ख़रीदार भी न मिले। अनुमान है कि 80,000 करोड़ रुपए का कपास उगने जा रहे है, जिसकी ख़रीदारी न होने पर इसका असर किसानों पर भी पड़ेगा। कपड़ा उद्योग देश में करीब 10 करोड़ से ज्यादा लोगो को रोज़गार देता है। अभी पिछले दिनों टेक्सटाइल एसोसिएशन के अनिल जैन ने बताया कि टेक्सटाइल सेक्टर में 25 से 50 लाख के बीच नौकरियाँ गई हैं। धागों की फ़ैक्ट्रियों में एक और दो दिन की बंदी होने लगी है, धागों का निर्यात 33 फीसदी कम हो गया है।
बिस्कुट कंपनी के 10000 कर्मचारियों पर लटकी तलवार
एक ओर जहां खाने-पीने के सामान फ़ास्ट मूविंग कंजूमर गुड्स (FMCG) की मांग तेजी से बढ़ रही थी, वहीं अप्रैल-जून तिमाही में वोल्यूम ग्रोथ में गिरावट होने लगी हैं। ज्यादातर मांग में कमी ग्रामीण क्षेत्रों में आयी है। ग्रामीण क्षेत्रों में मांग की कमी धन की कम उपलब्धता के कारण हो रही है। इनमें पारले ग्रुप के पारले जी बिस्कुट का नाम प्रमुख हैं। कंपनी मंदी के बहाने करीब 10000 कामगारों को किनारे लगा सकती है। कंपनी के एक अधिकारी मुताबिक ग्रामीण इलाकों में पारले जी बिस्किट की डिमांड घटी है, जिसके कारण उत्पादन में भी कमी आई है।
हिंदुस्तान लीवर ने दर्ज की मात्र 5.5 प्रतिशत की वृद्धि
एफएमसीजी की प्रमुख कंपनी हिंदुस्तान लीवर की अप्रैल-जून तिमाही में मात्र 5.5 प्रतिशत की वृद्धि आयी हैं, जबकि पिछले साल यह 12 प्रतिशत थी। डाबर में पिछले साल 21 प्रतिशत वृद्धि के मुकाबले 6 प्रतिशत की ही वृद्धि आयी है। ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज़ ने पिछले साल के समान समय में 12 प्रतिशत के मुकाबले 6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। साथ ही उपभोक्ता सामान से अलग एशियन पेंट्स में पिछले साल अप्रैल-जून की तिमाही की वोल्यूम ग्रोथ 12 फीसदी से घटकर 9 फीसदी रह गई है ।
रुका पड़ा है 220 प्रोजेक्ट्स के 1.74 लाख घरों का निर्माण
एनारॉक प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स के आंकड़ों पर भरोसा करें तो देश के रियल एस्टेट इंडस्ट्री बहुत बुरे दौर से गुजर रही है। देश के शीर्ष सात शहरों में 220 प्रोजेक्ट्स के लगभग 1.74 लाख घरों का निर्माण रुका पड़ा है। नेशनल रियल स्टेट डेवलपमेंट काउंसिल की मानें तो रियल स्टेट में करीब तीन लाख नौकरियाँ गई हैं और अगर साल के अंत तक सुधार नहीं किए गया तो 50 लाख नौकरियाँ खत्म हो सकती है। वर्ष 2013 और उससे पूर्व लॉन्च हुए बिल्डिंग प्रोजेक्ट्स पर कोई निर्माण कार्य नहीं हो पा रहा है। जिन घरों का निर्माण रुका हुआ है उनकी कुल कीमत लगभग 1,774 अरब की है। कहा जा रहा है इसके लिए सरकार की नीतिया जिम्मेदार है, जिसके कारण लोगों की ख़रीदारी की क्षमता बहुत कम हुई है।