राहुल गांधी की इफ़्तार पार्टी के सियासी मायने क्या हैं?
राहुल गांधी ने कांग्रेस की इफ़्तार के जरिए क्या राजनैतिक संदेश दिया?जब राहुल गांधी के दफ़्तर से इफ़्तार पार्टी देने की घोषणा हुई तो ख़बरियों समेत सभी के कान चौंकन्ने हो गए. कारण साफ़ था- पिछले दो चुनाव- गुजरात और कर्नाटक में राहुल गांधी ने जिस तरह मंदिरों के चक्कर लगाए तो कयास यही लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस ने अपने पारंपरिक वोट बैंक से किनारा कर लिया है.
जब राहुल गांधी के दफ़्तर से इफ़्तार पार्टी देने की घोषणा हुई तो ख़बरियों समेत सभी के कान चौंकन्ने हो गए. कारण साफ़ था- पिछले दो चुनाव- गुजरात और कर्नाटक में राहुल गांधी ने जिस तरह मंदिरों के चक्कर लगाए तो कयास यही लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस ने अपने पारंपरिक वोट बैंक से किनारा कर लिया है.
लेकिन राहुल गांधी ने इफ़्तार के ज़रिए राजनैतिक संदेश दिया. कांग्रेस अपनी विचारधारा पर कायम है. वो एक धर्मनिरपेक्ष देश की राष्ट्रीय पार्टी है जो सर्व धर्म सम भाव में विश्वास करती है.
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सॉफ्ट हिन्दुत्व की तरफ बढ़ती पार्टी
तो अचानक क्या बदला. पिछले दो चुनाव में राहुल गांधी पूजा पाठ करते दिखाई दे रहे थे. कांग्रेस नेता भी अपने अध्यक्ष को शुद्ध जनेऊधारी पंडित दिखाने में जुटे हुए थे.
हाल के चुनाव, ख़ास तौर से गुजरात में प्रचार के दौरान कांग्रेस के अंदर और उसके समर्थकों के एक हिस्से में यह बात बहुत तेज़ी से प्रचारित-प्रसारित हुई कि राहुल गांधी ने 'सॉफ़्ट हिन्दुत्व' का रास्ता चुना है.
वैसे भी 2014 लोकसभा में करारी शिकस्त के बाद तो कांग्रेस नेता अपने आप से सवाल पूछने लगे थे कि ऐसा क्या हो गया कि पार्टी को इतनी बुरी हार मिली. कांग्रेस ने ए के एंटनी की अगुवाई में कमेटी बनाई, जिसने कहा कि ज़्यादा अल्पसंख्यकवाद करने की वजह से कांग्रेस को नुकसान हुआ. ऐसे में कांग्रेस नेताओं को लगने लगा कि सॉफ्ट हिदुत्व ही बीजेपी की काट है.
गुजरात में कांग्रेस को भले ही चुनावी सफलता नहीं मिली थी, लेकिन बीजेपी को 100 सीटों के भीतर समेटना बाकायदा बड़ी उपलब्धि के तौर पर लिया गया.
अगले बड़े चुनाव कर्नाटक में राहुल गांधी ने फिर मंदिर और मठों के दर्शन किए, लेकिन यहां पर वो अपनी सरकार को बचाने और बीजेपी को कर्नाटक की सत्ता से दूर रखने की कोशिश में थे. वहां सॉफ्ट हिन्दुत्व के नाम पर जीत नहीं मिली. हालांकि बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने में वो सफल रहे.
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दो बड़े चुनाव की समीक्षा
कांग्रेस ने जब हाल फ़िलहाल के दोनों चुनावों की समीक्षा की तो कुछ बातें खुल कर सामने आईं. एक कांग्रेस के सॉफ्ट हिन्दुत्व को लोग ज़्यादा पसंद नहीं कर रहे. मतलब ये कि अगर इसी तरह सॉफ्ट हिन्दुत्व के राह पर कांग्रेस चलती रही तो वो बीजेपी की 'बी' टीम बन जाएगी और अपने पारंपरिक वोटर खो देगी. दूसरे, गुजरात में बीजेपी को शहरी इलाकों में जीत मिली, लेकिन ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस और उनके समर्थित नेताओं को कुल 67 सीटें मिलीं. यानी यहां पर कांग्रेस की जीत के पीछे दलित और ओबीसी वोटर का ज़्यादा हाथ था.
हाल फ़िलहाल कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस को मुसलमान वोटरों ने सहयोग दिया. यानी कांग्रेस को अपनी जीत हासिल करनी है कि तो इस वोट बैंक को फिर से हासिल करना होगा.
इसी के चलते कांग्रेस ने हाल ही में एक ओबीसी सम्मेलन का भी आयोजन किया था. जानकार मानते हैं इफ़्तार का आयोजन भी इसी नीति का हिस्सा है.
नेतृत्व के लिए कांग्रेस की ओर नहीं देख रहे क्षेत्रीय दल?
हाल ही में एक मीडिया सेमिनार में सोनिया गांधी ने कहा था 'बीजेपी ने यह प्रचारित किया कि कांग्रेस मुस्लिम पार्टी है. लेकिन मैं कहना चाहूंगी कि कांग्रेस में बहुसंख्यक नेता हिन्दू हैं और वह भी अलग-अलग जातियों से आते हैं. पार्टी में मुस्लिम भी हैं, लेकिन कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी कहना मेरी समझ से परे है.'
ओबीसी-दलित और मुसलमान वाला
राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी यही संदेश देने की कोशिश में है. बीजेपी ने जिस तरह से मुसलमानों पर निशाना साधा उससे मुसलमान डरे हुए हैं. साथ ही पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा इस बात से डरा हुआ है कि बीजेपी सरकार आरक्षण प्रावधानों को खत्म या उसका दायरा बहुत सीमित न कर दे.
हाल ही में केन्द्र सरकार ने बाकायदा नोटिफ़िकेशन जारी कर कुछ पदों के लिए वैकेंसी निकाली है. जॉइंट सेक्रटरी के पद पर नियुक्ति के लिए बिना यूपीएससी परीक्षा दिए हुए लोगों की भर्ती हो सकती है. यानी यहां पर आरक्षण के नियम भी लागू नहीं होंगे.
मोदी सरकार से दलित-अल्पसंख्यक हटने लगे हैं और दूसरा विकल्प खोजने लगे हैं. इन लोगों को लुभाने में सभी राजनैतिक पार्टियां जुट गई हैं. कांग्रेस भी इन नाराज़ लोगों को अपनी तरफ़ जुटाने में लगी है. कांग्रेस के नेतृत्व पर नज़र डालें तो कांग्रेस की नई नीति ऐसी दिखती भी है.
पार्टी के संगठन में अशोक गहलोत और गुलाम नबी आज़ाद काफ़ी ताक़तवर माने जाते हैं. अशोक गहलोत जाति से माली हैं और जातिगत राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं.
वहीं दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने ओबीसी नेताओं में सिद्धारमैया, भूपेश बघेल, डी के शिवकुमार को आगे बढ़ाया है.
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के साथ गर्मजोशी
इस इफ़्तार से कांग्रेस ये भी जताना चाहती थी पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उनके अपने हैं. मुखर्जी के संघ मुख्यालय जाने के फ़ैसले का कांग्रेसियों ने जमकर विरोध किया था, लेकिन वहां पर उनके भाषण के बाद कांग्रेस ने फटाफट मुखर्जी की विचारधार को कांग्रेस की विचारधारा भी बताया. लेकिन माना जा रहा था कि इस विवाद से कांग्रेस और प्रणब मुखर्जी के रिश्ते तल्ख हो गए हैं.
लेकिन इफ़्तार पार्टी में मुखर्जी की अगवानी करने के बाद राहुल खुद उन्हें लेकर दरबार हॉल में पहुंचे और दोनों पहली टेबल पर अगल-बगल की सीट पर बैठे. इस दौरान राहुल ने दादा के प्रति सम्मान और गर्मजोशी दिखाई.
नागपुर में संघ मुख्यालय में जाने के बाद पहली बार कांग्रेस के कार्यक्रम में शरीक हुए मुखर्जी की राहुल गांधी के साथ दिखी गर्मजोशी के ज़रिए यह संदेश भी दिया गया कि पार्टी अब इस अध्याय को समाप्त कर चुकी है.
प्रधानमंत्री मोदी की विदेशी नेताओं में लोकप्रियता की काट भी इस इफ़्तार में दिखाई दी. राहुल के इफ़्तार में दो दर्जन से ज़्यादा देशों के राजदूतों और उच्चायुक्तों ने भी शिरकत की.
इसमें प्रमुख मुस्लिम देशों के राजनयिकों के अलावा कनाडा, मेक्सिको आदि के राजदूत भी शामिल थे. हालांकि विवादों से बचने के लिए कांग्रेस ने पाकिस्तान के उच्चायुक्त को इफ़्तार का न्यता नहीं भेजा था.
विपक्षी एकता की कोशिश
इस इफ़्तार के जरिए कांग्रेस लोगों में संदेश देना चाहती है कि वो अकेली पार्टी है जो जाति और धर्म से परे है. बीजेपी और उसके समर्थकों के अलावा वो समूचे विपक्ष की एकजुटता की भी ख़बर देना चाहती थी.
कांग्रेस ने 18 पार्टियों को इस इफ़्तार के लिए न्योता भेजा. कांग्रेस ने अपने न्योते में नेताओं से आग्रह किया था कि अगर वो खुद ना आ पाएं तो अपने नुमाइंदे जरूर भेजें. ऐसा शायद इफ़्तार का फ़ैसला काफ़ी देर से लिए जाने की वजह से कहा गया था.
इफ़्तार में विपक्ष के बड़े नेताओं में सिर्फ़ सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और शरद यादव ही दिखे. बाकी पार्टियों ने अपने नुमाइंदे भेजे.
इस बात की चर्चा ज़रूर उठी कि राहुल गांधी के इस कार्यक्रम से दिग्गजों की ग़ैर मौजूदगी पार्टी के लिए क्या 2019 की विपक्षी एकता पर सवालिया निशान है. लेकिन जानकारों का मानना है कि रणनीति बनाने के लिए पार्टियों की सोच अलग होती है.
भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक ज़रूर हैं, लेकिन उनका हिस्सा बहुत बड़ा है. करीब 19 फ़ीसदी. इससे उनकी भागीदारी अल्पसंख्यकों से कहीं ज़्यादा हो जाती है.
अनुमान है कि लोकसभा की 20 फ़ीसदी सीटों के नतीजे मुस्लिम वोटर तय करते हैं. इसके अलावा कई सीटें ऐसी हैं जहां पर निर्णायक फ़ैसला मुसलमान करते हैं. जानकारों के मुताबिक ऐसी क़रीब 183 लोकसभा सीटें हैं जहां पर मुसलमानों का फ़ैसला मायने रखता है.
वहीं मुसलमानों के साथ दलित और ओबीसी वोट जुड़ जाते हैं तो वहां पर जीत पक्की हो जाती है. यानी जिस राजनैतिक पार्टी ने ये वोटर साध लिए उसकी जीत तय सी हो जाती है.
कांग्रेस ने इससे पहले 2015 में इफ़्तार पार्टी दी थी जब सोनिया गांधी अध्यक्ष थीं. हालांकि मोदी सरकार ने राजनैतिक इफ़्तार पार्टियों का सिलसिला 2014 के बाद ही ख़त्म कर दिया था.
आलम ये था कि 2017 में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की राष्ट्रपति भवन की इफ़्तार पार्टी में केन्द्र सरकार की तरफ़ से ना तो कोई मंत्री गया था और ना ही एनडीए के किसी नेता ने शिरकत की थी.
लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी भी इफ़्तार के आयोजन से किनारा कर चुकी है, लेकिन राहुल गांधी के इफ़्तार ने कांग्रेस की बदलती नीतियों की तरफ़ फिर से इशारा किया है. कांग्रेस लोगों के सामने सेक्यूलर 2.0 की छवि पेश करना चाहती है जिसमें सॉफ्ट हिन्दुत्व के साथ-साथ वो अल्पसंख्यक मुसलमानों और ओबीसी-दलितों के लिए उदार पार्टी भी बनना चाहती है.
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