रेटिंग सुधरी, क्या नौकरियों के आएंगे अच्छे दिन?
रेटिंग एजेंसियों के सकारात्मक रुख़ से भारत की माली हालत पर क्या असर, एक आकलन.
हाल ही में क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैन्डर्ड एंड पूअर्स (एस एंड पी) ने भारत की क्रेडिट रेटिंग को 'बीबीबी-' पर बरकरार रखा है. हालांकि एसएंडपी का कहना है कि आने वाले वक्त में भारतीय अर्थव्यवस्था में मज़बूती आ सकती है.
एजेंसी ने माना है कि नवंबर 2016 में हुई नोटबंदी और इस साल 1 जुलाई से लागू किए गए जीएसटी का अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा है और विकास की गति धीमी हुई है. लेकिन जीएसटी के कारण देश के भीतर कारोबार के लिए बाधाएं हटेंगी और सकल घरेलू उत्पाद बढ़ सकता है.
इससे सप्ताह भर पहले क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने भारत की क्रेडिट रेटिंग को बीएए3 से बढ़ाकर बीएए2 कर दिया था. मूडीज़ की रिपोर्ट में नोटबंदी, नॉन परफॉर्मिंग लोन्स को लेकर उठाए गए कदम, आधार कार्ड, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर को इसकी मुख्य वजह बताया गया.
इन क्रेडिट रेटिंग्स के मायने क्या हैं?
मूडीज़ और एसएंडपी अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग संस्थाएं हैं जिनका काम है देशों के आर्थिक हालात का आंकलन करना, जिससे निवेशकों को उस देश में निवेश पर राय बनाने में सहूलियत हो.
विदेशी निवेशकों और संस्थागत विदेशी निवेशकों के लिए ये रेटिंग काफी मायने रखती है. साथ ही रेटिंग इस बात को भी दर्शाती है कि उस देश की कर्ज़ लौटाने की क्षमता क्या है.
नई रेटिंग से क्या बदलेगा?
तो रेटिंग बढ़ जाने से या दूसरी रेटिंग एजेंसी के भारत के प्रति सकारात्मक रुख़ से क्या बदल जाएगा.
लोग कह रहे हैं कि मोदी सरकार को साढ़े तीन साल हो चुके हैं- लेकिन नई नौकरियों के मौके बनने की रफ्तार बहुत कम है. उलटे आईटी सेक्टर में नौकरियां कम हो रही हैं.
लेकिन हक़ीक़त ये भी है कि ख़ुद क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की साख सवालों में है. नौ साल पहले 2008 में एक विश्वव्यापी संकट का दौर शुरू हुआ तो अमरीका समेत दुनिया के कई शेयर बाज़ार भरभराकर गिर गए. उस समय निवेशकों को सलाह देने वाली इन संस्थाओं को हवा भी नहीं लगी कि इस तरह का कोई बड़ा संकट आने वाला है.
ये एजेंसियां अर्थव्यवस्था पर जो विश्लेषण देती हैं उसे हम पसंद करते हैं तो खुश हो जाते हैं, लेकिन जब विश्लेषण हमें पसंद नहीं आते तो हम चुप हो जाते हैं. आपको ये मानना पड़ेगा कि सरकार वो सुनती है जो वो सुनना चाहती है और वो नहीं सुनती जो वो नहीं सुनना चाहती.
हम मानते हैं कि विदेश से पैसा आ रहा है, शेयर बाज़ार में भी पैसा आ रहा है, लेकिन वो ज़मीनी नौकरियों के नए मौकों में तब्दील होता नहीं दिख रहा.
हम ये भी देख रहे हैं कि देश में जो बड़े पूंजीपति हैं शेयर बाज़ार में निवेश कर रहे हैं, विदेश के अलग-अलग देशों में निवेश कर रहे हैं लेकिन अपने देश में कम ही निवेश कर रहे हैं.
कैसे की जाती है क्रेडिट रेटिंग?
ये कंपनियां निजी संस्थाएं है और इनके अपने अर्थशास्त्री हैं जो अर्थव्यवस्था पर नज़र रखते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं. वो विश्लेषण करने के बाद मानते हैं कि अर्थव्यवस्था बढ़ेगी या सकल घरेलू उत्पाद बढ़ेगा तो इसे दर्शाने के लिए रेटिंग बढ़ा देते हैं.
इस विश्लेषण के आधार पर वो निवेश करने की सलाह देते हैं. अगर वो सोचते हैं कि अर्थव्वस्था में निवेश करना बेहतर नहीं होगा तो वो ऐसे में रेटिंग जस की तस रहने देते हैं या फिर कम कर देते हैं.
मूडीज़ और एस एंड पी जैसी संस्थाएं पूंजीवाद/आर्थिक उदारीकरण की नीति या कहें पश्चिमी देशों की आर्थिक विचारधारा पर यकीन करती हैं, जो खुले बाज़ार की नीति में विश्वास करती हैं.
कई लोगों का कहना है कि पूंजीवाद एक बात है, लेकिन हर देश की आर्थिक नीति अलग-अलग होनी चाहिए. ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो नीति एक देश में काम कर रही है उसे अन्य देश में भी लागू कर किया जाए. अब एक ही नाप का जूता सभी के पैरों में तो फिट नहीं बैठ सकता.
क्या अर्थव्यवस्था की मज़बूती दर्शाते हैं रेटिंग्स?
इन रेटिंग्स का दृष्टिकोण काफी संकीर्ण होता है. इन एजेंसी की नज़र पूरी अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से पर ही रहती है, जैसे कि विदेश के निवेशक को शेयर बाज़ार में निवेश करना चाहिए कि नहीं.
इन लोगों की रेटिंग्स का हमारे देश के आम आदमी के लिए सीधे-सीधे कोई मायने ही नहीं हैं.
आम नागरिक के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे कुछ और ही हैं. वो शेयर बाज़ार में कम निवेश करते हैं. उनके लिए महंगाई बड़ा मुद्दा है, रोज़गार बड़ा मुद्दा है. तो ऐसे में ये रेटिंग्स अच्छे हों या बुरे उनका अर्थव्यवस्था पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता है.
(वरिष्ठ पत्रकार और आर्थिक मामलों के जानकार परंजॉय गुहा ठाकुरता से बातचीत पर आधारित. उनसे बात की बीबीसी संवाददाता मानसी दाश ने.)