Rani Lakshmibai:'अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए', मृत्यु से पहले रानी लक्ष्मीबाई ने कही थी ये बात
Rani Lakshmibai:'अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए', मृत्यु से पहले रानी लक्ष्मीबाई ने कही थी ये बात
नई दिल्ली, 18 जून: "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी" कवयित्री शुभद्रा कुमारी चौहान की कविता "झांसी की रानी" की ये पंक्तियां रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी के सम्मान में सबसे सटीक है। भारतीय इतिहास में रानी लक्ष्मीबाई को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक माना जाता है। भारत के 'जोन ऑफ आर्क' के रूप में लोकप्रिय रानी लक्ष्मीबाई ब्रिटिश सेना के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी और भारतीय इतिहास पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव छोड़ा। आज यानी 18 जून रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि है। 1858 में आज ही के दिन 18 जून को झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते-लड़ते अपना जीवन बलिदान कर दिया। लेकिन अपनी आखिरी सांस तक रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के हाथ नहीं लगी थीं, अपनी आखिरी सांस से पहले भी उन्होंने अपने शुभचिंतकों को कहा था कि- 'अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए'।
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रानी लक्ष्मीबाई के जीवन से जुड़ीं कुछ बातें
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी शहर में हुआ था। वह एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुई थीं। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था और उनकी मां का नाम भागीरथी सप्रे था। रानी लक्ष्मीबाई जब 4 साल की थीं, तो उनकी मां का देहांत हो गया था। रानी लक्ष्मीबाई के पिता बिठूर जिले के पेशवा बाजीराव द्वितीय के काम करते थे और कल्याणप्रांत के युद्ध के कमांडर थे। रानी के पिता बचपन में उनको मणीर्कणीका बुलाते थे। रानी लक्ष्मीबाई की पढ़ाई, तीरंदाजी, घुड़सवारी, तलवारबाजी और मल्लखंभा सब घर पर हुई थी।
14 साल की उम्र में मई 1842 में मणीर्कणीका का विवाह झांसी के राजा गंगाधर नेवलकर से हुआ। उसके बाद ही देवी लक्ष्मी के सम्मान में उनका नाम बदलकर रानी लक्ष्मीबाई रखा गया था।
भारत के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने रानी के दत्तक पुत्र को झांसी का उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता नहीं दी। गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने आदेश दिया कि झांसी को कब्जा में लिया जाए। लेकिन रानी लक्ष्मीबाई ने इसके खिलाफ विद्रोह कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से जंग करने का फैसला किया और नारा दिया '' "मैं मेरी झांसी नहीं दूंगी।''
झांसी को नहीं छोड़ने के दृढ़ संकल्प के साथ 1858 के जंग में लगभग 2 हफ्ते तक घेराबंदी के दौरान रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी। रानी लक्ष्मीबाई युद्ध के मैदान में अपने छोटे बेटे दामोदर राव को अपनी पीठ पर बांधकर, अपने दोनों हाथों में तलवारें लेकर युद्ध किया। अग्रेजों में सबसे पहले कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने जंग के मैदान में रानी लक्ष्मीबाई को लड़ते हुए देखा था।
रानी लक्ष्मीबाई के अंतिम पल
रानी लक्ष्मीबाई जब जंग के मैदान में बुरी तरह घायल हो गईं तो उन्होंने सोचा कि वह किसी ऐसी जगह चली जाएंगी, जहां उनको अंग्रेज पकड़ ना सके। रानी के शरीर पर इस वक्त तक तलवार से कई वार किए जा चुके थे और राइफल की एक गोली लगी थी। लेकिन रानी ने ठान ली थी कि कुछ भी हो जाए, वो अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगी।
'द वॉरियर क्वीन' के मुताबिक घायल रानी लक्ष्मीबाई पर एक अंग्रेज ने वार किया, जिसमें रानी लक्ष्मीबाई का सिर फट गया, सिर से खून इतना निकलने लगा कि उनको कुछ दिखाई नहीं दे रहे था। लेकिन उस स्थिति में भी रानी ने अंग्रेज सैनिक पर वार किया लेकिन वह उसे घायल नहीं कर सकी। इतने में रानी घोड़े ने नीचे गिर गई थीं। इसी दौरान रानी का एक सैनिक वहां आया और रानी को लेकर पास के एक मंदिर में पहुंचा। रानी लक्ष्मीबाई उस वक्त तक जीवित थीं। लेकिन रानी धीरे-धीरे अचेत हो रही थीं। रानी की एक आंख चोज की वजह से नहीं खुल पा रही थी। मुश्किल से उन्होंने अपना दूसरा आंख खोला और अपने सैनिकों को लड़खड़ाते हुए कहा, ''दामोदर (बेटा) की रक्षा करना''
इसके बाद रानी की सांस फूलने लगी थी और उन्होंने मंदिर के पुजारी को कहा, "अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए।" ये कहते ही लक्ष्मीबाई एकदम से शांत हो गईं। रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई। वहां मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फानन में कुछ लकड़ियां जमा की और रानी के पार्थिव शरीर को अग्नि दी।