रामविलास पासवान, राजनीति के मौसम वैज्ञानिक यूं ही नहीं हैं
इसी साल एससी-एसटी एक्ट पर दबाव बनाने के अलावा, कोई दलित समर्थक, कोई गरीब समर्थक बड़ा फ़ैसला किया या कराया हो, ऐसा नहीं दिखता. सुनने वालों से उनके धन की चर्चा, उनके दफ्तर और घर के बाथरूम में खर्च की चर्चा और उनके लाइफ़स्टाइल की चर्चा ही सुनने को मिलेगी. उनके सूट, उनकी घड़ी और कलम के महंगे ब्रांडों पर बहुत बात होती रही है.
लंबी बीमारी और देश-विदेश के इलाज के बाद, जब केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने बाल-दाढ़ी रंग कर अपने 72वें या 73वें जन्मदिन की सूचना सोशल मीडिया पर दी, तो उनके पुराने साथी और अब राजनैतिक विरोधी शिवानंद तिवारी ने चुटकी ली.
तिवारी ने पूछा, "रामविलास भाई, आप क्या खाकर उमर रोके हुए हैं. जब हम लोग 75 पर पहुंच गए तो आप किस तरह 72 पर ही रुके हुए हैं".
बाबा के नाम से मशहूर शिवानंद तिवारी ने याद दिलाया कि आप तो 1969 में ही विधायक बन गए थे. तब विधायक होने की न्यूनतम उम्र भी आपकी होगी तो उस हिसाब से आप 75 पार कर गए हैं.
1969 से 2019 यानी 50 साल से विधायक और सांसद रहते हुए, सार्वजनिक जीवन में होते हुए भी रामविलास अपनी उम्र घटाकर बताते हैं.
बिहार पुलिस की नौकरी छोड़कर राजनीति के मैदान में उतरे रामविलास पासवान, कांशीराम और मायावती की लोकप्रियता के दौर में भी, बिहार के दलितों के मज़बूत नेता के तौर पर लंबे समय तक टिके रहे हैं.
जब बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव के समय, उनके सुपुत्र चिराग पासवान ने तेजस्वी और तेज प्रताप पर कुछ हल्की टिप्पणी शुरु की तो, लालू के बेटों ने जवाबी हमला करते हुए रामविलास की दूसरी शादी की याद दिला दी, उसके बाद चिराग ने चुप्पी साधना ही बेहतर समझा.
राजकुमारी देवी से शादी और दो पुत्रियाँ होने के बाद उन्होंने रीना शर्मा से शादी की जिनसे चिराग पासवान और एक बेटी है.
बिहार की राजनीति में यह कई बार हो चुका है कि रामविलास अपनी पहली पत्नी, दोनों बेटियों और कम-से-कम एक दामाद के कारण चुप रहने पर मजबूर हुए हैं.
पिछले चुनाव में ही उन्हें आखिरी वक्त में मुजफ्फरपुर की एक सीट से अपना उम्मीदवार बदलकर, एक दामाद को खड़ा करना पड़ा क्योंकि दामाद ने काफी हंगामा मचाया था. फिर हुआ यह कि दामाद की तो ज़मानत जब्त हो गई, पर पुरानी उम्मीदवार निर्दलीय ही जीत गई.
पहुंचे हुए राजनेता हैं रामविलास
निजी जीवन को लेकर होने वाली टीका-टिप्पणी के बावजूद, रामविलास पासवान दरअसल बहुत पहुंचे हुए राजनेता हैं. 50 साल की विधायकी और सांसदी ही नहीं, 1996 से सभी सरकारों में मंत्री रहना, एक ऐसी असाधारण योग्यता है जिसके आगे अजित सिंह भी चित्त हो गए. देवगौड़ा-गुजराल से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी जैसे अनेक प्रधानमंत्रियों को साधना साधारण काम नहीं है.
इसके अलावा, उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं पर ख़ासा ध्यान दिया है और इतने लंबे समय में उनके कार्यकर्ताओं या समर्थकों की नाराज़गी की कोई बड़ी बात सामने नहीं आई है, जो मामूली बात नहीं है. वे जब रेल मंत्री बने तो उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र हाजीपुर में रेलवे का क्षेत्रीय मुख्यालय बनवा दिया.
अपने पिता की बनाई मज़बूत राजनैतिक ज़मीन को हर बार कुछ-कुछ गंवाते अजित सिंह तो अब सरकार और संसद से बाहर हो चुके हैं, पर एक कमजोर दलित परिवार में जन्मे रामविलास जी अपनी राजनैतिक ज़मीन न सिर्फ़ बचाए हुए हैं, बल्कि बढ़ाते भी जा रहे हैं.
2019 के आम चुनाव से पहले एक और पैंतरा लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे हार्ड टास्कमास्टरों को भी उन्होंने मजबूर कर दिया. बिहार में लोकसभा की छह सीटों पर लड़ने का समझौता करने के साथ, असम से ख़ुद राज्यसभा पहुंचने का इंतज़ाम करना कोई मामूली बात नहीं है.
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बड़े नेताओं को होना पड़ा सक्रिय
इस क्रम में उनके काबिल पुत्र चिराग पासवान ने सीटों की बात छोड़कर, नोटबंदी के फ़ायदों पर सवाल उठाकर, राफेल सौदे पर जेपीसी की मांग का समर्थन और राहुल गांधी की तारीफ़ करके बता दिया कि उन्हें एक बार फिर पाला बदलने में कोई दिक्कत नहीं होगी.
शाह-मोदी की जोड़ी को 31 दिसंबर की डेडलाइन दे दी, अरुण जेटली से लेकर नीतीश कुमार को सक्रिय होने के लिए मजबूर कर दिया.
कुछ ऐसा ही काम उन्होंने गुजरात दंगों के बाद अटल सरकार में रहते हुए किया था. वे कहते हैं कि उन्होंने सांप्रदायिकता के सवाल पर सरकार छोड़ी थी, लेकिन उनके विरोधी कई दूसरे कारण गिनाते हैं.
बहरहाल, मौजूदा सरकार में रहते हुए उन्होंने सांप्रदायिकता के मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी. उनके घर पर होने वाली इफ़्तार पार्टी बंद हो गई जो वीपी सिंह वाले दौर से चल रही थी.
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होने को तो वे साठ के दशक से ही संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) में सक्रिय थे, आपातकाल में जेल गए, राजनारायण और चरण सिंह के साथ रहे, 1977 में रिकॉर्ड वोटों से जीतकर लोकसभा में आए पर. मगर उनकी राजनीति चमकी वीपी सिंह के साथ ही जिन्हें मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बाद अपने आसपास शरद यादव और रामविलास पासवान को रखना (एक ओबीसी और दूसरा दलित) अच्छा लगता था.
वीपी सिंह राज्यसभा के सदस्य थे इसलिए रामविलास ही लोकसभा में सत्ताधारी गठबंधन के नेता थे. उस दौर में भारी संख्या वाले ओबीसी और यादव वोट बैंक में शरद यादव तो कोई आधार नहीं बना पाए, पर रामविलास ने बिहार के दलितों, ख़ास तौर दुसाधों और मुसलमानों में एक आधार बनाया जो अब तक उनके साथ बना हुआ है.
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मुश्किलों का दौर
चुनावी जीत का रिकॉर्ड कायम करने वाले पासवान उसी हाजीपुर से 1984 में भी हारे थे जहाँ से वे रिकार्ड मतों से जीतते रहे, पर जब 2009 में उन्हें रामसुंदर दास जैसे बुज़ुर्ग समाजवादी ने हरा दिया तो उन्हें एक नया एहसास हुआ कि वे अपना दलित वोट तो ओबीसी की राजनीति करने वालों को दिला देते हैं, लेकिन उन्हें ओबीसी वोट नहीं मिलता. उन्हें ओबीसी तो नहीं, लेकिन अक्सर अगड़ा वोट मिल जाता है. इस बार एससी/एसटी ऐक्ट पर उनके रुख के कारण अगड़ी जाति के लोग उनसे नाराज़ बताए जाते हैं.
2005 से 2009 रामविलास के लिए बिहार की राजनीति के हिसाब से मुश्किल दौर था. ऐसा 1984 में चुनाव हारने पर भी हुआ था लेकिन तब उनका कद इतना बड़ा नहीं था और 1983 में बनी दलित सेना के सहारे वे उत्तर प्रदेश के कई उप-चुनावों में भी किस्मत आज़माने उतरे थे. हार तो मिली लेकिन दलित राजनीति में बसपा के समानांतर एक छावनी लगाने में सफल रहे.
2005 में वे बिहार विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने या लालू-नीतीश की लड़ाई के बीच सत्ता की कुंजी लेकर उतरने का दावा करते रहे. एक तो नीतीश कुमार ने उनके 12 विधायक तोड़कर उनको झटका दिया और राज्यपाल बूटा सिंह ने दोबारा चुनाव की स्थिति बनाकर उनकी राजनीति को और बड़ा झटका दिया.
नवंबर में हुए चुनाव में लालू प्रसाद का 15 साल का राज गया ही, रामविलास की पूरी सियासत बिखर गई. बिहार में सरकार बनाने की चाबी अपने पास होने का उनका दावा धरा रह गया. वे चुपचाप केंद्र की राजनीति में लौट आए. लालू की तरह वे भी केंद्र में मंत्री बने रहे.
हालांकि 2009 में वे यूपीए से अलग हुए, लेकिन अपनी सीट भी बचा नहीं पाए.
निजी समृद्धि
राजनैतिक चालाकियों और जोड़-तोड़, उचित अवसर की पहचान और दोस्त-दुश्मन बदलने की कला में माहिर रामविलास पासवान की शुरुआती ट्रेनिंग समाजवादी आंदोलन में हुई है.
संसोपा और डॉक्टर लोहिया के दिए नारे उन्हें अब तक याद हैं. आप बस बात छेड़िए और वे 'संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़े पावें सौ में साठ', 'अंगरेजी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा', 'राष्ट्रपति हो या भंगी की संतान, 'सबकी शिक्षा एक समान', 'खुला दाखिला सस्ती शिक्षा, लोकतंत्र की यही परीक्षा' जैसे नारे अब भी बोलते हुए उनका चेहरा चमकने लगता है, जैसे वे परीक्षा में अव्वल आ रहे हैं.
जब सभी लोग इन नारों को भूल गए हैं, डॉ. लोहिया को भूल गए हैं तब यह बात खास लगती है, लेकिन जब आप हिसाब लगाएँ कि 50 साल के संसदीय और सरकारी जीवन में उन्होंने इनमें से किस नारे पर कितना अमल किया है, तो आपको एक बड़ा शून्य ही दिखाई देगा.
और जो चीज़ दिखाई देगी वह है उनकी निजी समृद्धि, अपने परिवार का रंग-ढंग बदलना, घनघोर परिवारवाद और जातिवाद, एक दौर में सेकुलरिज़्म के नाम पर घनघोर मुसलमानवाद का दिखावा और सबसे बढ़कर मौकापरस्ती ही नज़र आएगी.
पहले अपने दो भाइयों को विधायक, सांसद और मंत्री या विधायक दल का नेता बनवाने की चिंता सबसे प्रबल थी, इसी तरह बेटे के फिल्मी कैरियर को लॉन्च करने की चिंता भी एक दौर में काफी थी. कहा यह भी गया कि चिराग की फ़िल्म के लिए फाइनेंस का इंतज़ाम भी किया गया. पर फ़िल्म से पिटने के बाद 'घर की खेती' में उन्हें राजकुमार की हैसियत से उतारा गया. भाई लोग भी पीछे रह गए.
नरेंद्र मोदी नहीं माने वरना लोजपा के लिए दो मंत्रियों की माँग बहुत समय चली. आज जैसी स्थिति होती तो चिराग पासवान भी मंत्री बन ही गए होते. इस बीच पहली शादी वाली संतानों और उनसे बने दामाद, समधियों-समधनों की राजनीति और उनको टिकट से लेकर हर तरह की मदद की बात भी भुलाने लायक नहीं है.
परिवार के बाहर एक भी नेता तैयार नहीं किया
कुल मिलाकर, उन्होंने परिवार से बाहर का एक भी नेता तैयार किया हो, प्रशिक्षित किया हो, आगे बढ़ाया हो इसका प्रमाण नहीं है. लेकिन इस बीच कितने अपराधियों को सांसद-विधायक बनाया, टिकट दिया, प्रकाश झा से लेकर कितने अराजनैतिक लोगों को चुनाव मैदान में उतारा, इसका हिसाब बहुत बड़ा है. जब वे खुद को बिहार की राजनीति में सत्ता का एक दावेदार मानते थे, उस दौर के अनेक अपराधियों से उनका मिलना-जुलना किसी से छिपा नहीं है.
1989 में मंत्री बनने और लगातार सरकार-राजनीति में शीर्ष पर रहते हुए उन्होंने कोई एक भी बड़ा फ़ैसला किया हो, कोई एक भी बड़ी दूरदर्शी नीति लागू की हो. अपने चुनाव क्षेत्र और चुनाव जीतने के जुगाड़ से आगे बढ़कर कोई स्टैंड लिया हो, इसका भी प्रमाण आपको नहीं मिलेगा.
इसी साल एससी-एसटी एक्ट पर दबाव बनाने के अलावा, कोई दलित समर्थक, कोई गरीब समर्थक बड़ा फ़ैसला किया या कराया हो, ऐसा नहीं दिखता. सुनने वालों से उनके धन की चर्चा, उनके दफ्तर और घर के बाथरूम में खर्च की चर्चा और उनके लाइफ़स्टाइल की चर्चा ही सुनने को मिलेगी. उनके सूट, उनकी घड़ी और कलम के महंगे ब्रांडों पर बहुत बात होती रही है.
और आजकल सबसे ज्यादा चर्चा कभी उनके मित्र, कभी विरोधी रहे लालू यादव की दी हुई 'सबसे बड़े मौसम वैज्ञानिक' पदवी की है क्योंकि राजनीति में बदलाव को सबसे पहले और सबसे अच्छी तरह वही भांपते हैं, इसके पीछे उनका लंबा राजनीतिक अनुभव और अपना फ़ायदा देखने की पक्की आदत है.