रजनीकांत की फ़िल्म 2.0 के डर में कितनी सच्चाई
माइकल ने कहा था, "बेस स्टेशन की पावर कम करने का भारत का फ़ैसला ख़तरा कम नहीं करेगा. अगर आप बेस स्टेशन की पावर कम कर देते हैं तो आपका मोबाइल ज़्यादा फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिट करता है, ताकि आपका फ़ोन नेटवर्क से जुड़ा रहे. फोन शरीर के पास रहता है, तो इससे उसे नुक़सान हो सकता है."
माइकल ने कहा सरकार के इस फ़ैसले से टेलिकॉम कंपनियों का भार भी बढ़ा है. उन्हें ज़्यादा टावर लगाने पड़ रहे हैं, जिससे उनका अधिक खर्चा हो रहा है.
एक शख़्स मोबाइल टावर पर चढ़ा और फांसी लगा ली. फिर हज़ारों पक्षी उस टावर के इर्द-गिर्द मंडराने लगे, मानों उस शख़्स की मौत का विलाप कर रहे हों.
फिल्म स्टार रजनीकांत की मूवी 2.0 यहीं से शुरू होती है. मूवी के अगले सीन में अचानक लोगों के फ़ोन हवा में उड़ने लगते हैं. हर इंसान का फ़ोन ग़ायब हो चुका है. सरकार ने पूरी पुलिस फ़ोर्स को मोबाइल ढूंढने के काम पर लगा दिया है, लेकिन किसी को पता नहीं चल पा रहा कि फ़ोन आख़िर गए कहां?
फिर उन्हीं मोबाइल से बना एक शख़्स सामने आता है. ग़ुस्से से भरी आंखों से वो कहता है, "सेल फ़ोन रखने वाला हर व्यक्ति हत्यारा है."
वो हर 'हत्यारे' को सज़ा देना चाहता है. उसका दावा है कि मोबाइल फ़ोन टावर से निकलने वाली रेडिएशन पक्षियों की मौत का कारण है. सारी फ़िल्म इसी दावे के इर्द-गिर्द घूमती है. फ़िल्म में क्या है, ये देखने के लिए तो आपको थिएटर जाना होगा.
लेकिन जैसे ही फ़िल्म देखकर आप थिएटर से बाहर आएंगे, आपको किसी मुजरिम जैसा महसूस होगा.
आप सोच में पड़ जाएंगे कि क्या आप सच में एक 'हत्यारा' हैं. उन बेज़ुबान परिंदों के 'हत्यारे'! आपके मन में कई तरह के सवाल उठेंगे कि क्या सच में मोबाइल टावर रेडिएशन से पक्षियों की मौत हो जाती है...?
बीबीसी ने आपके इन्हीं सवालों के जवाब निकालने की कोशिश की.
'फ़िल्म में सच्चाई दिखाई गई है'
पक्षियों की डॉक्टर और वन्यजीव विशेषज्ञ डॉ. रीना देव कहती हैं कि कई चीज़ें जो फ़िल्म में दिखाई गई हैं वो सच हैं.
डॉ. रीना के मुताबिक़ पक्षी दो तरह के होते हैं- एक तो वो जो हमारे आसपास रहते हैं और एक वो जो यहां बाहर से आते हैं. बाहर से आने वाले पक्षियों को माइग्रेटरी बर्ड्स यानी प्रवासी पक्षी कहा जाता है.
कुछ पक्षी दूसरे देशों से मीलों का सफर तय करके पहुंचते हैं. वो धरती के चुंबकीय क्षेत्र (मैग्नेटिक फ़ील्ड) की मदद से अपना रास्ता ढूंढते हैं. उनका ख़ुद का नेविगेशन सिस्टम होता है. लेकिन जब वो मोबाइल टावर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड रेडिएशन के संपर्क में आते हैं तो भ्रमित हो जाते हैं.
डॉ. रीना एक वाक़या सुनाती हैं, ''एक बार मुझे एक मास्कड बूबी (प्रवासी पक्षी) मुंबई में अंधेरी इस्ट के इंडस्ट्रियल एरिया में मिला था. वो समुद्री पक्षी है इसलिए उसका इंडस्ट्रियल एरिया में मिलना हैरानी भरा था. शायद वो अपना रास्ता भटककर यहां आ गया था. साल दर साल इस स्थिति में मिलने वाले पक्षियों की तादाद बढ़ती जा रही है."
रीना के मुताबिक़ रेडिएशन की वजह से पक्षियों की प्रजनन क्षमता, अंडों के आकार, अंडों के छिलके की मोटाई पर भी फ़र्क़ पड़ता है.
रीना कहती हैं, "विदेशों में मोबाइल टावर के पक्षियों पर बुरे असर को लेकर कई शोध हुए हैं लेकिन भारत में ऐसे और रिसर्च की ज़रूरत है ताकि पुख्ता तौर पर पता लगाया जा सके कि सच में मोबाइल टावर से ऐसे नुक़सान हो रहे हैं."
पक्षी विज्ञानी पंकज गुप्ता भी ऐसी स्टडी की ज़रूरत बताते हैं. वो कहते हैं कि ऐसी बातें आई तो हैं, लेकिन अब तक विदेशों में भी ऐसी कोई स्टडी नहीं है जो इस बात की 100 फ़ीसदी पुष्टि करती हो कि मोबाइल टावर की रेडिएशन से पक्षियों को नुक़सान होता है.
पंकज के मुताबिक शहरों में पक्षी इसलिए नज़र नहीं आते क्योंकि जंगल कम हो रहे हैं, पानी के तालाब कम हो रहे हैं. उनके पास खाने को नहीं है, रहने को नहीं है.
उन्होंने कहा, "कई प्रवासी पक्षी इसलिए भटक जाते हैं क्योंकि वो हज़ारों किलोमीटर का सफर तय करके आ रहे होते हैं. ऐसे में कई बार वो तूफ़ान या खऱाब मौसम की वजह से इधर-उधर हो जाते हैं."
तो क्या रेडिएशन का बिल्कुल असर नहीं होता ?
तमिलनाडु में मदुरै के अमरीकन कॉलेज में जीवविज्ञान के प्रोफ़ेसर एम. राजेश ने बीबीसी से कहा कि ऐसा भी नहीं है कि रेडिएशन का असर नहीं पड़ता. लेकिन ये असर जानलेवा नहीं होता.
राजेश कहते हैं कि मोबाइल टावर तो पक्षियों के लिए ख़तरनाक है क्योंकि उनसे टकराकर उनकी मौत हो जाती है. लेकिन मोबाइल टावर से निकलने वाली रेडिएशन इतनी ख़तरनाक नहीं होती.
जब लैब में पक्षियों को इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड रेडिएशन में रखकर प्रयोग किया जाता है तो उन पर असर दिखता है?
इस पर प्रोफ़ेसर एम राजेश कहते हैं कि लैब में रेडिएशन पक्षियों पर सीधे पड़ती है इसलिए पक्षियों के शरीर पर उसका बुरा असर होता है, लेकिन असल में जो मोबाइल टावर हैं, उनसे निकलने वाला रेडिएशन वातावरण में फैल जाता है. यह जीव-जंतुओं पर सीधा नहीं पड़ता. इसलिए वो इतना नुक़सान नहीं पहुंचाता.
एम्स के रेडियोथेरेपी और ओन्कोलॉजी डिपार्टमेंट के पूर्व डीन डॉ प्रमोद कुमार जुल्का भी प्रोफ़ेसर राजेश से सहमति जताते हैं.
वो कहते हैं कि रेडिएशन दो तरह की होती है-एक आयनाइज़िंग और दूसरी नॉन आयनाइज़िंग.
एक्स-रे की रेडिएशन आयनाइज़िंग होती है, जो कि शरीर के लिए नुक़सानदायक हैं और इससे कैंसर हो सकता है. वहीं मोबाइल टावर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड रेडिएशन लो एनर्जी रेडिएशन होती है. ये इतनी ख़तरनाक नहीं होती.
इसका रेडिएशन इतना शक्तिशाली नहीं होता जिससे डीएनए को नुक़सान पहुंचे. ये एक मिथक है कि घर के आस-पास लगे टावर बहुत ख़तरनाक हैं. जब तक कोई पुख़्ता स्टडी सामने नहीं आती, तब तक इसे माना नहीं जा सकता.
लेकिन आबादी वाले इलाक़ों में बढ़ते मोबाइल टावरों का लगातार विरोध होता रहा है. मोबाइल टावरों के विरोध में अभिनेत्री जूही चावला ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका भी दाख़िल की थी.
इस तरह के विरोधों को देखते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने कुछ साल पहले एक समिति बनाई थी, जिसे पक्षियों और मधुमक्खियों समेत वन्यजीवों पर मोबाइल टावर से होने वाले असर को पता लगाने का काम सौंपा गया था.
इसमें पाया गया कि भारत सेलफ़ोन का सबसे बड़ा बाज़ार बनने को है, लेकिन सेलफ़ोन टावर की लोकेशन को लेकर कोई नीति नहीं है.
समिति ने रेडिएशन के असर से जुड़ी 919 रिपोर्टों का अध्ययन किया. इनमें से 81% रिपोर्टें इंसानों पर असर से जुड़ी थीं जबकि तीन फ़ीसदी ने पक्षियों पर असर का अध्ययन किया था. इनमें से 30 अध्ययनों में से 23 में पाया गया कि इलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड रेडिएशन का पक्षियों पर बुरा असर होता है.
इस समिति के अध्यक्ष रहे असद रहमानी से बीबीसी ने बात की. रहमानी ने बताया कि समिति के सदस्यों ने लिटरेचर सर्वे (मौजूदा लिखित सामग्री) के आधार किया था. वक़्त की कमी के चलते वो फ़ील्ड वर्क या बाहर जाकर प्रयोग नहीं कर पाए.
उनका कहना है कि लिखित सामग्री को कोई सीधा सबूत नहीं माना जा सकता. इसलिए उनकी समिति ने इस मसले पर वैज्ञानिक अध्ययन करने का सुझाव दिया था, जिसमें बड़ा सैंपल लेकर रिसर्च की जाए.
रहमानी के मुताबिक, "रिसर्च में रेडिएशन एक्सपर्ट, इंसानों और जानवरों की फिज़ियोलॉजी का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ होने चाहिए. ऐसे प्रयोग हों, जिनमें पक्षियों को अलग-अलग स्तर की रेडिएशन दी जाए और देखा जाए कि उन पर इससे क्या असर होता है."
'रेडिएशन नहीं कीटनाशक से मर रहे पक्षी'
रहमानी कहते हैं कि पक्षी इंसानों की बहुत मदद करते हैं. वो बीज को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं, जिससे पौधे उगते हैं.
वो कीड़ों को खाकर पेस्ट कंट्रोल करते हैं. लेकिन अब फसलों और फलों को बचाने के लिए जो कीटनाशक डाले जा रहे हैं. उससे कीड़े मर जाते हैं. कीटनाशक वाले फलों को खाने से उनके शरीर में भी कीटनाशक चला जाता है जिससे उनमें कैल्शियम की कमी हो जाती है और इसका असर उनके अंडों पर पड़ता है.
पक्षी शहरों में इसलिए भी नहीं आते क्योंकि उन्हें घोंसले बनाने की जगह नहीं मिलती और खाने को नहीं मिलता.
पक्षी विज्ञानी पंकज गुप्ता कहते हैं, ''कई लोग गौरैया को शहरों में ढूंढते हैं, उन्हें गांवों में जाकर देखना चाहिए, वो आज भी वहां मिलती हैं. वो कच्चे घरों में छोटे-छोटे छेद कर घोसले बनाती हैं. खेतों में जाकर खाती हैं, तो शहरों में कैसे मिलेंगी? कुछ देशों में तो गौरैया की इतनी तादाद हो गई है कि उन्हें खाना देने पर बैन लगा दिया गया है.''
असर रहमानी कहते हैं, ''कई पक्षियों के घोसले मोबाइल टावरों के पास होते हैं, वो तो नहीं मरते. कुछ तो टावर पर ही घर बना लेते हैं. कबूतर-कौओं को देखिए, वो तो शहरों में टावरों के बीच ख़ूब फल फूल रहे हैं.''
हालांकि डॉ. रीना देव कहती हैं कि कबूतर शहरी पक्षी हैं, वो हमारे रहन-सहन में ढल चुके हैं इसलिए उन्हें इतनी परेशानी नहीं होती. डॉ. रीना और असद रहमानी दोनों ही ये मानते हैं कि इस विषय पर विस्तृत रिसर्च हो जिससे ठोस जानकारी सामने आए.
भारत में भी हुए हैं कुछ अध्ययन
ऐसा नहीं है कि भारत में मोबाइल टावर से निकलने वाली रेडिएशन पर कोई रिसर्च नहीं हुई है.
डॉ. सीवी रमन यूनिवर्सिटी के जीव विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉ आरके सिंह ने कर्नाटक के बीजापुर समेत कई इलाकों में अध्ययन किया है.
बीबीसी से बातचीत में डॉ. सिंह ने बताया कि उन्होंने बीजापुर में लगे अलग-अलग टावरों के नज़दीक जाकर कुछ घंटे सुबह और कुछ घंटे शाम को बिताए. ऐसा उन्होंने तीन महीने तक किया. वहां उन्होंने देखा कि कौन-कौन से पक्षी कितनी तादाद में हैं.
साथ ही उन्होंने आसपास के लोगों में सर्वे किया और पूछा कि पिछले पांच-तीन सालों इन इलाक़ों में कौन-कौन से पक्षी हुआ करते थे जो आज नहीं दिखते.
रिसर्च पूरी होने के बाद उन्होंने पाया कि टावरों की वजह से पक्षी उन इलाक़ों से गांव और जंगल की ओर चले गए.
डॉ आरके सिंह की स्टडी ने दावा किया कि नॉन आयनाइज़िंग रेडिएशन के असर में भी अगर लगातार रहा जाए तो नुक़सान होता है. उन्होंने कहा कि 2.0 मूवी में दिखाई गई चीज़ें सही हैं.
वहीं सेलुलर ऑपरेशन्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ फ़िल्म सर्टिफिकेशन को चिठ्ठी लिखकर इस फ़िल्म पर आपत्ति जताई है.
सीओएआई के डायरेक्टर जनरल राजन ए मैथ्यू ने बीबीसी को बताया कि हमने सीबीएफसी को लिखा है कि इस फ़िल्म ने मोबाइल फ़ोन और टावर के बारे में ग़लत जानकारी फैलाई है.
मोबाइल टावर का पावर कम करने का निर्देश
सरकार ने एक सितंबर से मोबाइल टावर की रेडियो फ्रीक्वेंसी का पावर कम करने का आदेश जारी किया था.
इसके मुताबिक दूरसंचार विभाग को रेडियो फ्रीक्वेंसी फील्ड (1800 MHz) की एक्सपोज़र लिमिट मौजूदा स्टैंडर्ड 9.2 से घटाकर 0.92 वाट पर स्क्वेयर मीटर करने के लिए कहा गया था.
साथ ही ये भी कहा गया था कि दो टावरों के बीच की दूरी एक किलोमीटर से कम नहीं होनी चाहिए.
सरकार लोगों और जानवरों की सेहत की चिंताओं को देखते हुए बीते कई सालों से मोबाइल सर्विस ऑपरेटरों पर सख्ती कर रही है, लेकिन इससे मोबाइल फोन यूज़र्स को ख़राब नेटवर्क और कॉल ड्राप की समस्याएं भी झेलनी पड़ रही हैं.
2013 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के रेडिएशन एक्सपर्ट माइकल रेपाचोली भारत आए थे. उन्होंने कहा था कि भारत सरकार ने रेडिएशन के नुक़सान को कम करने के लिए मोबाइल टावर की रेडियो फ्रीक्वेंस की पावर कम करने का जो आदेश दिया है, उसका उलटा नुक़सान हो रहा है.
उन्होंने दावा किया कि टावर की पावर कम करके से लोगों के स्वास्थ्य पर उल्टा बुरा असर पड़ रहा है.
माइकल ने कहा था, "बेस स्टेशन की पावर कम करने का भारत का फ़ैसला ख़तरा कम नहीं करेगा. अगर आप बेस स्टेशन की पावर कम कर देते हैं तो आपका मोबाइल ज़्यादा फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिट करता है, ताकि आपका फ़ोन नेटवर्क से जुड़ा रहे. फोन शरीर के पास रहता है, तो इससे उसे नुक़सान हो सकता है."
माइकल ने कहा सरकार के इस फ़ैसले से टेलिकॉम कंपनियों का भार भी बढ़ा है. उन्हें ज़्यादा टावर लगाने पड़ रहे हैं, जिससे उनका अधिक खर्चा हो रहा है.
इन तमाम दावों के बीच मोबाइल टावर से निकलने वाली रेडिएशन को लेकर चिंताएं अब भी कायम हैं. सच्चाई क्या है, ये जानने के लिए विशेषज्ञ साइंटिफिक स्टडी कराने के सुझाव देते हैं.