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राहुल सांकृत्यायनः हिन्दी साहित्य के एक कालजयी रचनाकार

राहुल सांकृत्यायन को हम कैसे याद करें और इस स्मरण के पीछे की भावनाओं और उसके पाठक के ऊपर पड़ने वाले दबावों और प्रभावों को किस रूप में समझें!

वे उत्तर प्रदेश के पूरब के एक छोटे से गांव में पैदा होकर बिना किसी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित हुए थे. वे लगभग 30 भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं 

By BBC News हिन्दी
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राहुल सांकृत्यायन
Rahul Vangmaya Meri Jeevan Yatra
राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन को हम कैसे याद करें और इस स्मरण के पीछे की भावनाओं और उसके पाठक के ऊपर पड़ने वाले दबावों और प्रभावों को किस रूप में समझें!

वे उत्तर प्रदेश के पूरब के एक छोटे से गांव में पैदा होकर बिना किसी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित हुए थे. वे लगभग 30 भाषाओं के जानकार थे. उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं जिनके विषय इतिहास से लगाकर दर्शन तक फैले थे, उन्होंने दुनिया की निरंतर यात्राएं की थीं या कि वे अंततः मार्क्सवाद के ग्रहण तक पहुंचे थे और जनता के अपने लेखक के रूप में प्रसिद्धि पाई थी!

ऐसे कितने ही क्षेत्रों में उन्होंने अभूतपूर्व योगदान दिया था जिसका वर्णन न जाने कितने शोधग्रंथों का प्रेरणास्रोत बन सकता है. व्यक्तित्व के अनंत पहलुओं का यह साक्षात्कार इतना विराट और आह्लाद्कारी है कि इसमें उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति की अतिशयता के अलावा और किसी मूल्यांकन या समीक्ष्य बिंदुओं की कल्पना असंभव है.

हिंदी में राहुल सांकृत्यायन पर हुए अधिकांश विमर्श का यही सार-संक्षेप है. इसमें व्यक्ति और उसके कर्म की ज्वलंत जीवंतता को अंततः पूज्य मूर्ति में बदल दिया जाता है जिसे यदा-कदा समारोहों में पुष्पांजलि के लिए उपयोग में लाया जाता है.

राहुल पर हुए अधिकांश लेखन की यही कहानी है.

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राहुल सांकृत्यायन
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राहुल सांकृत्यायन

'महान' लेखक और विचारक

इसी विमर्श का एक समानांतर पक्ष वह है जब गलदश्रु (रोते हुए) भावुकता में बहुत ही आक्रोश में सत्ता और सांस्कृतिक डिस्कोर्स द्वारा राहुल जैसे 'महान' लेखक, विचारक, व्यक्ति की निरंतर उपेक्षा, अवहेलना और अवमानना की भर्त्सना की प्रतिस्पर्धा ही विमर्श का केंद्रीय स्वर बन जाता है.

उसमें राहुल की उन आधारभूत मान्यताओं तक को भुला दिया जाता है कि शोषण पर आधारित तमाम राज्यसत्ताएं न केवल शोषितों के शोषण, अन्याय और अवमानना पर टिकी हैं, बल्कि उनके पक्षधरों के प्रति भी वही व्यवहार करती हैं. विडंबना तो यह है कि ऐसा करने वालों में अधिकांश में वही बुद्धिजीवी होते हैं जो वर्तमान व्यवस्था को शोषक प्रभुवर्ग की मानते हैं, लेकिन उससे अपेक्षा करते हैं कि वह अपने वर्गशत्रुओं का सम्मान करे!

राहुल सांकृत्यायन के प्रति सत्ताओं और व्यवस्थाओं का व्यवहार इस बात का सबूत तो है ही कि अभी वह समय नहीं आया है जिसमें सामान्य जन के पक्ष में खड़े लेखकों, विचारकों के प्रति पूर्वाग्रहमुक्त, सम्मान विकसित हो सके.

राहुल सांकृत्यायन को इन व्याख्याओं और उच्छ्वासों से न समझा जा सकता है, न उनके जीवन, रचना और कर्म से किसी तरह की जीवंत मुठभेड़ या संवाद स्थापित किया जा सकता है.

अधिक विस्तार में न जाकर यहां हम उन कुछेक विचारणीय बिंदुओं को छूने की कोशिश करेंगे जिनसे उनके व्यक्तित्व और विचार के सरोकारों को अनावृत करने में मदद मिल सकती है. इसमें हम अपने परिवृत्तों और सरोकारों से मुठभेड़ करते हुए ही आगे बढ़ सकते हैं.

विश्व संस्कृति को मिली बहुमुखी प्रतिभा

सभी जानते हैं कि राहुल जी की औपचारिक शिक्षा केवल मिडिल स्कूल तक ही हुई थी. इसमें सामान्य भारतीय परिवारों की तरह परिवार की आर्थिक तंगहाली कारण नहीं थी बल्कि शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं की औपचारिकताओं के प्रति उनके मन में पनपता विद्रोह था जिसके लिए उन्होंने बचपन से बार-बार घर से पलायन किया.

हालांकि इसका खामियाजा उन्हें किसी उच्च शिक्षण संस्थान में औपचारिक पद से वंचित रहकर भुगतना पड़ा, सिवाय रूसी विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी पढ़ाने के निमंत्रण के. यह अच्छा ही हुआ कि विश्व संस्कृति को ऐसी बहुमुखी प्रतिभा मिली जिसके योगदान को एक योग्य अध्यापक की सीमा में रखकर शायद ही देखा जाय.

महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्ञान को हस्तगत करने में कोई भी ज्ञात साधन उतना सहायक नहीं है जितना जीवन को सार्थक और सतत गतिशील रूप में जीने की उत्कट अभिलाषा और आंतरिक जिजीविषा.

इसीलिए जीवन भर नए-नए ज्ञान का अर्जन और लगातार सोपानों को पार करने का क्रम राहुल सांकृत्यायन के संबंध में केवल औपचारिकता में दुहराए जाने वाला मुहावरा नहीं है, बल्कि जीवन संघर्ष के बीच उसकी संगति में और उसको प्रशस्त बनाने वाले ज्ञान की पिपासा और खोज का दस्तावेज है.

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सत्य की खोज

उनके जीवन में, विश्व-दृष्टि में, लेखन सरोकारों में मृत्यु-पर्यंत होने वाले लगातार परिवर्तनों, शोधों, ग्रहण और त्याग का जो सिलसिला है उसे वास्तविक अर्थों में 'सत्य की खोज' की अनवरत और अधूरी यात्रा ही कहा जा सकता है.

सत्तर साल के जीवन में उन्होंने शारीरिक और भौतिक जगत में ही अनगिनत यात्राएं नहीं कीं, बल्कि अंतर्मन और अंतर्जगत, विश्व-दृष्टि और अंतर्दृष्टि, वैचारिक और दार्शनिक सरोकारों में भी एक असीम यात्रा तय की.

कहना होगा कि उनका संपूर्ण जीवन बाह्यजगत और अंतर्जगत के बीच निरंतर चले संवाद, विवाद, समाकलन, स्वीकार और अस्वीकार का असमाप्य सिलसिला है. परंपरागत ब्राह्मण परिवार की रूढ़ियों से मुक्त होने के लिए जीवन के वास्तविक अर्थ को खोजने में वे पहले राम उदार बन सनातनधर्मी हुए कि शायद ईश्वर प्राप्ति ही उसका एकमात्र लक्ष्य हो.

वहां से विफलता की आत्महंता निराशा से नवजागरणकालीन आर्यसमाज में कुछ रोशनी दिखाई दी तो उसको ग्रहण कर उसका संपूर्ण ज्ञान अर्जित किया. उससे भी जीवन की वास्तविक समस्याओं, तर्क और विवेक का हल नहीं मिला तो बौद्धधर्म की तर्काधारित मान्यताओं को स्वीकार कर राहुल सांकृत्यायन बने.

वहां भी संतुष्टि नहीं मिली तो विश्व में उस समय की सबसे वैज्ञानिक, तर्काधारित विचारधारा मार्क्सवाद को अपनाया. लेकिन जब उसमें भी अनेकानेक अंतर्विरोध, न्यूनताएं और अंधविश्वास दिखाई दिए तो उससे आगे जाने का प्रयास किया.

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आस्था और विश्वास की यात्रा

देखने की बात यह है कि यह स्वीकार और त्याग किसी वायवी, करियरधर्मी, पैशन या फैशन के तकाजों से नहीं व्यक्तिगत-सामाजिक जीवन, सामान्य मानव की वास्तविक स्वतंत्रता और समानता के गहरे सरोकारों, बौद्धिक-तार्किक तकाजों के ठोस व्यवहार से पैदा हुआ था. उनके लिए ये तमाम आस्थाएं, विचार और सिद्धांत जीवन-जगत के वास्तविक मर्म को समझने या उसे स्वस्थ, सुंदर और संपूर्ण बनाने के लक्ष्य तक पहुंचाने वाले साधन या कश्तियां थे.

इस यात्रा में उन्होंने एक-एक कर जीवन नद को पार करने के लिए न जाने कितनी कश्तियों का प्रयोग किया और आगे बढ़ गए. मजेदार बात यह है कि इन मतवादों के अधिकांश अनुयायी जीवन भर इन कश्तियों को बोझ की तरह ढोते रहे और आज भी ढो रहे हैं.

इसी में उनके जीवन का समय पूरा हुआ और हम यह नहीं देख पाए कि इससे आगे का रास्ता क्या है! शायद इसके आगे अभी कोई स्पष्ट मार्ग हो ही नहीं या यह भी हो सकता है कि समस्त मार्गों की निस्सारता पर ही राहुल जैसा व्यक्ति पहुंचता.

फिर भी राहुल सांकृत्यायन ने इस यात्रा के इन अनेकानेक महत्वपूर्ण पड़ावों को इनमें मिली निराशा और हताशा की भेंट नहीं चढ़ने दिया. रास्ते की तमाम खोजों को उन्होंने पूरे प्राणपण से जिया, उसके लिए जीवन समर्पित कर उसमें उपलब्ध समस्त ज्ञान-विज्ञान को अपने अध्ययन-मनन से समृद्ध किया और अंततः अपने जीवन-व्यवहार से सिद्ध किया कि इनमें से कोई भी संपूर्ण और एकमात्र सत्य नहीं है.

आस्था-विश्वासों की इस यात्रा में उन्होंने हरेक में इतना व्यापक योग दिया कि जो चाहे वह उसपर न केवल गर्व कर सकता है बल्कि राहुल सांकृत्यायन पर अपना अधिकार जमा उन्हें अपने मार्ग का महान प्रवक्ता घोषित कर सकता है.

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मध्य एशिया का इतिहास लिखने वाले पहले भारतीय

उनकी अर्जित विद्वत्ता ने सभी को समृद्ध किया. प्राचीन भारतीय संस्कृति और धर्म के विश्वासियों को जिन्होंने उन्हें 'महापंडित' की उपाधि दी; बौद्धमत के अनुयायियों को जिसके लिए उन्होंने अपनी अनगिनत यात्राओं में न केवल अलभ्य विपुल सामग्री को उपलब्ध कराया बल्कि उसपर प्रामाणिक भाष्य भी लिखे; मार्क्सवाद को अपनी दर्जनों पुस्तकों और आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी से.

यही नहीं दो खंडों में पहले-पहल मध्य एशिया का इतिहास लिखने वाले वे भारत के पहले लेखक हैं जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला. उनका यह रचनात्मक योगदान और वास्तविक जीवन की सक्रियता इन सबके रिक्थ में बड़ा योगदान है.

उनका जीवन एक अनवरत यात्री का जीवन है. उनके अनुसार यात्रा मनुष्य को स्वतंत्र, ऊर्ध्वगामी उदार, तर्कशील और मानवीय बनाती है. इन आधारों पर वे किसी भी बड़े-से-बड़े विश्वास, आस्था को उत्तर-आधुनिक अर्थों में विखंडित करने का साहस रखते हैं बल्कि उसकी सीमाओं से मुक्त हो नई दिशाओं में बढ़ने का जोखिम भी उठाते हैं.

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English summary
Rahul Sankrityayan A classical composer of Hindi literature
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