लड़े तो खूब राहुल पर उनके सामने थी मोदी-शाह की राजनीतिक जोड़ी
नई दिल्ली- गुजरात विधानसभा का नतीजा आने से ठीक पहले जब राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर ताजपोशी हुई, उससे पहले से ही वे पार्टी की कमान अनौपचारिक तौर पर संभाल चुके थे। यूं कहिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव से ही राहुल धीरे-धीरे अपनी मां सोनिया की जगह पार्टी का मुख्य चेहरा बनकर सामने आ चुके थे। अलबत्ता, उस दौरान कांग्रेस को नाकामी भी मिलती थी, तो उसका ठीकरा सीधे राहुल पर फोड़ना मुश्किल था। लेकिन, गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ राहुल भी बदले, उनकी राजनीति का तरीका भी बदला। वे आक्रामक होते चले गए और कई बार लगने लगा कि अब वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व कौशल को बड़ी चुनौती देने के लिए तैयार हो रहे हैं। राहुल ने 22 मई 2019 तक खुद को मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की भरपूर कोशिश की। लेकिन, 23 मई के नतीजों ने उन्हें झकझोर दिया।
बतौर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल की कामयाबी
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने अबतक के सबसे कम 44 की संख्या पर पहुंची तो इसका सीधे दोष राहुल पर नहीं मढ़ा जा सकता। उस समय सोनिया गांधी खुद अध्यक्ष थीं। लेकिन, दिसंबर 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव से राहुल ने कांग्रेस को अध्यक्ष के तौर पर चलाना शुरू किया। गुजरात का रिजल्ट आने से दो दिन पहले ही उन्हें अध्यक्ष बनाया गया और उस चुनाव में कांग्रेस ने गुजरात जैसे राज्य में बीजेपी की बढ़त रोक दी थी। बीजेपी को वहां अपनी लगभग दो दशक पुरानी सरकार को बचाने के लिए सारी ताकत झोंकनी पड़ गई। पार्टी की सत्ता बरकरार रखने के लिए खुद नरेंद्र मोदी को भी मैदान में उतरना पड़ गया। एक साल बाद मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का चुनाव आया। इन तीनों राज्यों में भी राहुल ने कांग्रेस को लीड किया और सभी जगह से बीजेपी सत्ता से बेदखल हो गई। जाहिर है कि इन तीनों राज्यों में एंटी इनकम्बेंसी ने बीजेपी का खेल बिगाड़ा, तो इसमें राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस की मेहनत ने भी रंग दिखाने का काम किया। इन चुनावों की सफलता ने कांग्रेस में जोश भर दिया तो राहुल के उत्साह का भी ठिकाना नहीं रहा।
राहुल की मजबूरियां
तीन विधानसभा चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों तक राहुल ने जिस तरह से कांग्रेस के कैंपेन को लीड किया उसने राजनीतिक विश्लेषकों को भी सोचने को मजबूर कर दिया था। अपने आक्रामक अंदाज से राहुल ने मृतप्राय संगठन में जान फूंकने की पूरी कोशिश की। उन्होंने अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को पूर्वी और पश्चिमी यूपी का प्रभार देकर संगठन को जगाने का जिम्मा सौंपा। उन्होंने खुद अपने दम पर कश्मीर से केरल तक और कच्छ से कामरूप तक पार्टी के प्रचार अभियान की अगुवाई की, क्योंकि इसबार उन्हें बीमारी के कारण मां सोनिया का साथ नहीं मिला। उन्हें भरोसा था कि इसबार गुजरात में भी वे मोदी का तिलिस्म तोड़ देंगे। क्योंकि, विधानसभा चुनाव में वे गुजरात का नरेटिव बदल आए थे। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से तो उन्हें बेहतर नतीजों की उम्मीद वाजिब ही थी। खुद उन्होंने केरल, तमिलनाडु में पूरा जोर लगाया, गठबंधन बनाए। लेकिन, राहुल जिस तरह से संघर्ष कर रहे थे, वैसा साथ न तो उन्हें संगठन से मिल पा रहा था और न ही मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के दिग्गजों से। कुछ बड़े नेता तो अपने परिवार का भविष्य संवारने में ही लगे रह गए। बंगाल में टीएमसी के मुकाबले बीजेपी की बढ़त से पार्टी पहले ही दम तोड़ रही थी। अकेले राहुल के लिए महाराष्ट्र को साधना भी मुश्किल था। बिहार में गठबंधन से आस थी, लेकिन वह भी बगैर लालू के चल नहीं सका। नतीजा ये हुआ कि तमिलनाडु और केरल ने अगर लाज नहीं बचाई होती, तो पार्टी का आंकड़ा 44 तक पहुंचना भी इसबार नामुमकिन ही हो जाता।
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मोदी-शाह की जोड़ी से था मुकाबला
पिछले डेढ़-पौने दो साल की राजनीतिक लड़ाई में राहुल गांधी कभी मेहनत से पीछे हटते नहीं दिखे। उन्होंने बीजेपी को भरपूर चुनौती देने की कोशिश की। लेकिन, उनकी सबसे बड़ी मुश्किल ये थी कि उनका सामना नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी से था। 2014 में अकेले मोदी ने कांग्रेस और बाकी दलों का सामना किया था। इसबार उनके साथ अमित शाह भी जुड़ चुके थे और उस जोड़ी से सामना करने के लिए विपक्ष ने एक तरह से राहुल को अकेला छोड़ दिया था। राहुल सीखते-सीखते यहां तक पहुंचे हैं और नरेंद्र मोदी और अमित शाह की राजनीति से सीखने के लिए पक्ष-विपक्ष के नेता भी लालायित रहते हैं। यानी राहुल के उत्साह और जोश में कोई कमी नहीं रही, लेकिन अनुभव और संगठन में वे इन दोनों के मुकाबले कभी खड़े हो ही नहीं पाए। अनुभवहीनता की वजह से राहुल प्रधानमंत्री मोदी पर जोर-जोर से हमला तो बोलते रहे, लेकिन उन्हें 23 मई के नतीजे आने तक अहसास ही नहीं हुआ कि जो आरोप लगाकर और नारेबाजी करवाकर वे खुश हो रहे थे, उससे ज्यादा खुशी मोदी और अमित शाह को मिल रही थी। 23 मई को कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर राहुल को पता चला कि मोदी ने जो कहा था कि पहले से ज्यादा बहुमत के साथ सत्ता में लौटेंगे वह हो चुका है और उन्होंने उनके गांधी-नेहरू परिवार के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है।
राहुल के पास अभी भी है मौका
राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया है, लेकिन उनके सामने राजनीति करने के लिए अभी भी पूरा भविष्य पड़ा है। उनके पास अभी भी समय है। अगर वह 2024 के लिए तैयार होना चाहते हैं, तो उन्हें कांग्रेस संगठन को सही मायने में नए सिरे से तैयार करना होगा। आरोप-प्रत्यारोप वाली राजनीति की जगह उन्हें सुलझे हुए विपक्षी नेता की भूमिका निभानी पड़ेगी। क्योंकि, बीजेपी से मुकाबला करना है तो सही मुद्दे तलाशने पड़ेंगे। सिर्फ विरोध के लिए विरोध वाली राजनीति पर फिर से विचार करना पड़ेगा। अगर उन्हें वाकई लगता है कि सरकार का कोई फैसला जनता के हित में है, तो उन्हें सरकार के साथ खड़े होने का साहस दिखाना पड़ेगा। अगर सरकार जनहित के मुद्दों से भटकती है, तो उन्हें उसे सही समय पर आगाह करना होगा। क्योंकि, सोशल मीडिया के दौर में जनता बहुत ही जागरूक हो चुकी है। अगर कांग्रेस जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगी, तो जनता भी उसकी बातों को गंभीरता से लेगी। राहुल ने एक तरह की राजनीति करके देख ली है। अब दूसरी तरह की राजनीति करके दिखाएं, तो 52 सांसदों के बावजूद भी शायद देश को वह दमदार विपक्ष दे सकते हैं, जिसका इंतजार पूरे देश को है।
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