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मनरेगा के जनक और RJD के सबसे ईमानदार चेहरा थे रघुवंश प्रसाद सिंह

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नई दिल्ली- पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह ने अपनी आखिरी सांसें लेने से कुछ ही दिन पहले उस पार्टी को अलविदा कह दिया था, जिसकी स्थापना में उन्होंने अपना बहुत बड़ा योगदान दिया था। लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल भले ही उनके नाम से जानी जाती हो, लेकिन उसके संगठन को खड़ा करने में रघुवंश बाबू ने अपना खून-पसीना लगा दिया था। उनके निधन के बाद आज शायद लालू यादव को सियासत में उनकी सबसे ज्यादा कमी खल रही होगी। लालू जैसी शख्सियत पर रघुवंश बाबू का प्रभाव इस कदर हावी था कि वही एकमात्र शख्स थे, जो शायद अपनी पार्टी में लालू को उनके सामने सही और गलत के बारे में खुलकर बता सकते थे। लेकिन, इसके बावजूद उन्होंने बिहार की राजनीति में अपनी एक अलग छवि कायम की थी। वह थी एक ईमानदार राजनेता की छवि जो उनके बॉस लालू से बिल्कुल अलग थी। ऊंची जाति से ताल्लुक रखकर भी वह पिछड़ी जातियों में भी उतने ही लोकप्रिय थे।

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Raghuvansh Prasad Passed Away: सादगी का मिसाल थे रघुवंश, ऐसी थी Political Journey | वनइंडिया हिंदी
मनरेगा से मिली राष्ट्रीय पहचान

मनरेगा से मिली राष्ट्रीय पहचान

रघुवंश प्रसाद सिंह को बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर के जमाने से ही बड़ी पहचान मिल चुकी थी। लेकिन, 90 के दशक से उन्होंने अगड़ी जाति (राजपूत) का नेता होकर भी पिछड़ी जाति की राजनीति की और 32 वर्षों तक लालू जैसे नेता के पीछे हर परिस्थियों में चट्टान बनकर खड़े रहे। लेकिन, उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में तब बड़ी पहचान मिली जब 2005 में वह यूपीए-1 में मनमोहन सिंह सरकार की सबसे बहुप्रचारित कल्याणकारी योजना नेशनल रूरल एम्पलॉयमेंट गारंटी स्कीम (मनरेगा) के मुख्य वास्तुकार बने। यूपीए-1 में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए उनके मंत्रालय से जो यह योजना लागू हुई, उसके लिए कांग्रेस और यूपीए के दल आजतक खुद को दाद देते नहीं थकते। इस बात में कोई दो राय नहीं कि इस योजना ने देश के सोशल सेक्टर के लिए सोचने का सरकार का नजरिया बदल दिया है। यही नहीं, विकलांगों, विधवा और बुजुर्गों के लिए पेंशन योजना लागू करवाने में भी इनकी अहम भूमिका रही है। इसके अलावा इन्हीं कार्यकाल में भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसे यूपीए के दूसरे कार्यकाल में मूर्त रूप दिया गया।

32 साल तक दिया लालू यादव का साथ

32 साल तक दिया लालू यादव का साथ

रघुवंश बाबू 32 साल से राजनीति में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के साथ उनकी परछाई की तरह जुड़े रहे। उन्होंने उस दौरान भी लालू का साथ नहीं छोड़ा, जब मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति अगड़ों-पिछड़ों में विभाजित हो गई। ना ही लालू के भ्रष्टाचार के मामलों में घिरने के बाद ही उन्होंने उनसे सियासी तौर पर अपना पीछा छुड़ाया। उनकी खासियत ये थी कि वह लालू के साथ भी थे, लेकिन फिर भी उनके लिए कभी-कभी अपनी बात बड़ी बेबाकी से कह जाते थे। एक बार उनसे पूछा गया कि लालू की कामयाबी के बारे में उनका क्या सोचना है तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि पॉलिटिकल मैनेजमेंट में 10/10 लेकिन, एक प्रशासक के रूप में जीरो से ज्यादा नहीं। राष्ट्रीय जनता दल में लालू की ऐसी निष्पक्ष आलोचना करने की किसी में भी कभी हिम्मत नहीं रही। लालू के कुछ करीबियों ने जब रघुवंश की शिकायत उनसे की तो लालू ने शिकायतकर्ताओं से कहा, 'हां, उन्हें यह बात सार्वजनिक रूप से नहीं कहनी चाहिए, लेकिन उन्होंने जो भी कहा है वह गलत नहीं है।' लालू की ओर से मिला यही सम्मान था कि वे तीन दशकों से भी ज्यादा समय तक वो उनसे जुड़े रहे।

मौत से चार दिन पहले राजद छोड़ दी थी

मौत से चार दिन पहले राजद छोड़ दी थी

बीते गुरुवार की ही बात है, जब लालू यादव के सक्रिय राजनीति से मजबूरन दूर होने के बाद रघुवंश बाबू को यह लगा कि उन्हें लालू-राबड़ी के बच्चों की पार्टी में वही सम्मान नहीं मिल पा रहा है तो कुछ शब्दों में ही दिल्ली के एम्स अस्पताल के बेड से पार्टी अध्यक्ष को खत लिखकर 32 साल का साथ छोड़ने देने की बात कह दी। एम्स में उन्हें कोविड-19 के संक्रमण के बाद एडमिट करवाया गया था। दरअसल, रघुवंश प्रसाद सिंह बिहार के बाहुबली नेता रामा किशोर सिंह के पार्टी में शामिल किए जाने के चर्चे से नाराज थे। पहले उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष का पद छोड़ दिया था। उन्हें लालू के छोटे बेटे तेजस्वी यादव के पार्टी को हैंडल करने के तरीके पर आपत्ति थी। ऊपर से लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप ने उपाध्यक्ष पद छोड़ने के बाद उनपर यह कह कर तंज कस दिया था कि समुद्र से एक लोटा पानी निकलने से कुछ नहीं होगा। बात लालू तक पहुंची तो उन्होंने बेटे को रघुवंश बाबू से माफी मंगवाई और उन्हें मना भी लिया था। लेकिन, गुरुवार को पार्टी छोड़ने वाली उनकी चिट्ठी में बहुत ज्यादा मायूसी भरी थी। हालांकि, तब भी लालू ने उनसे अपनी आत्मीयता का हवाला देकर उन्हें जवाबी खत दिया था कि आप कहीं भी नहीं जा रहे, यह बात जान लीजिए। उन्होंने कहा कि पहले आप स्वस्थ हो जाइए फिर बात करेंगे। लेकिन, इससे पहले ही उनके निधन की खबर आ गई।

राजद में सबसे ईमानदार नेता की छवि थी

राजद में सबसे ईमानदार नेता की छवि थी

रघुवंश प्रसाद यादव लालू की पार्टी के सबसे ईमानदार नेता माने जाते रहे। राजपूत जाति से होते हुए भी उनका प्रभाव पिछड़ों पर राजपूतों से जरा भी कम नहीं था। वो राजनीति में आने से पहले गणित के प्रोफेसर थे। उनके पास डॉक्टरेट की डिग्री भी थी। बावजूद इसके 2019 के लोकसभा चुनाव के एफिडेविट के मुताबिक उनकी कुल संपत्ति, 78.57 लाख रुपये की थी, जिसमें 70 लाख रुपये की अचल संपत्ति थी। जबकि, करीब 10 लाख रुपये की उनपर देनदारी भी थी। वो पूर्व सांसद और बाहुबली नेता रामा सिंह को पार्टी में शामिल करने का विरोध इसीलिए कर रहे थे क्योंकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने वैशाली से उन्हें हराया था। इसके अलावा उन जैसे नेता को पार्टी में शामिल करने का मतलब ये होता कि रघुवंश प्रसाद को अपने प्रभाव वाले इलाके में अपनी छवि के साथ समझौता करना। लेकिन, लालू के छोटे बेटे और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री अंत-अंत तक इसीलिए रामा सिंह को लाने पर अड़े रहे, क्योंकि उनकी अपनी विधानसभा सीट राघोपुर को बचाने के लिए आने वाले विधानसभा चुनाव में उन्हें रघुवंश बाबू से ज्यादा बाहुबली ने की जरूरत ज्यादा महसूस हो रही थी। अब ये भी खुलासा हो चुका है कि अस्पताल के बेड से लालू को आखिरी चिट्ठी लिखने से पहले उन्होंने एक और खत लिखा था, जिसमें कहीं ना कहीं उन्होंने लालू यादव के पुत्रमोह पर उन्हें आईना दिखाने की कोशिश की थी। पत्र में उन्होंने लिखा था, 'संगठन को मजबूत करने के लिए मैंने पत्र लिखा तो उसे ताक पर रख दिया गया। पढ़ने का भी कष्ट नहीं किया। जिस समाजवादी मंच से हम कहते रहे हैं कि रानी के पेट से नहीं बैलेट के बक्से से राजा पैदा होता है। मगर वहां पर क्या हो रहा है, लोग सब देख रहे हैं।'

नीतीश को भी लिखी थी चिट्ठी

नीतीश को भी लिखी थी चिट्ठी

इस बीच उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू अध्यक्ष नीतीश कुमार को भी चिट्ठी लिखी थी, जिसके बाद उनके एनडीए में जाने की अटकलें लगाई जा रही थीं। तर्क यह दिया जा रहा था कि वैशाली की सीट जो पिछले दो लोकसभा चुनाव से वो हार रहे हैं, उनपर एनडीए से लड़ने से उनकी जीत पक्की हो जाएगी। इस चिट्ठी में उन्होंने नीतीश कुमार के सामने मुख्यतौर पर तीन मांगें रखी थीं। पहली मांग के तहत उन्होंने मनरेगा कानून में आम किसानों की जमीन में काम करने का संशोधन अध्यादेश लाने की मांग की थी। दूसरी मांग में उन्होंने दुनिया के प्रथम गणतंत्र वैशाली को बताते हुए 26 जनवरी को मुख्यमंत्री द्वारा वहीं तिरंगा फहराने का आह्वान किया था। गौरतलब है कि बिहार में मुख्यमंत्री द्वारा 15 अगस्त को पटना के गांधी मैदान में झंडोलन की परंपरा है। वहीं, तीसरी मांग में रघुवंश प्रसाद सिंह ने भगवान बुद्ध के पवित्र भिक्षापात्र को अफगानिस्तान से वैशाली लाने की अपील की थी। उनका कहना था कि भगवान बुद्ध अंतिम बार वैशाली छोड़ने के समय अपना भिक्षापात्र स्मृति-चिन्ह के रूप में वैशाली में अपने भक्तों को देकर गए थे। जानकारी के मुताबिक एएसआई के पहले महानिदेशक कनिंघम ने 1883 में लिखी किताब में इसका जिक्र किया है। कहा जाता है कि दूसरी शताब्दी में राजा कनिष्क इसे पेशावर ले गए थे। अभी काबुल के संग्रहालय में है।

राजनीतिक सफर की शुरुआत

राजनीतिक सफर की शुरुआत

रघुवंश प्रसाद सिंह का राजनीतिक सफर 1977 में शुरू हुआ जब वो विधायक बने और बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार में ऊर्जा मंत्री बने। वैशाली को अपना संसदीय क्षेत्र बनाने से पहले उन्होंने लगातार 5 बार सीतामढ़ी जिले के बेलसंड विधानसभा का प्रतिनिधित्व किया।

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English summary
Raghuvansh Prasad Singh was the father of MNREGA and the most honest face of the RJD
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