अमेरिका-तालिबान समझौते पर उठे सवाल, कौन जीता अमेरिका या आंतकवाद?
बेंगलुरू। पिछले चार दशकों से पाकिस्तान पोषित तालिबानी चरमपंथियों के चलते गृहयुद्ध से जूझता आ रहा अफगानिस्तान एक बार उसी मुहाने पर खड़ा है, क्योकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तालिबानी चरमपंथियों के आगे लगभग हथियार डाल चुके हैं।
ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि जिस तालिबान को अफगानिस्तान से निकाल बाहर करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में गोले बरसाए थे, अब उसी तालिबान को अमेरिकी राष्ट्रपति पद के अपने दूसरे टर्म के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सीढ़ी बना लिया है।
दरअसल, अमेरिका ने अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ शुरू कई गई लड़ाई लगभग हार चुका है और अब महाशक्ति अमेरिका में तैनात 13000 अमेरिको सैनिकों की हमवतन वापसी के लिए अफगानिस्तान को उसके हाल पर छोड़ने को तैयार हो गया है।
अभी हाल में तालिबानी की मौजूदगी में अफगानिस्तान में शांति स्थापना की कहानी कतर की राजधानी दोहा में लिखी गई। दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच समझौते के मसौदे पर एक हस्ताक्षर हुए और अब वहां से अगले कुछ ही महीनों में अमेरिकी व सहयोगी देशों के सैनिकों की वापसी शुरू हो जाएगी।
दिलचस्प बात यह है कि तालिबान और अमेरिका के बीच हुए समझौते में अफगानिस्तान के मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी शामिल नहीं थे। माना जा रहा है कि समझौते के साथ ही अफगानिस्तान में तालिबानी चरमपंथियों के सत्ता में प्रवेश का रास्ता भी खुल जाएगा। यानी पिछले चार दशकों से अफगानिस्तान को आंतकवाद की नरक में झोंकने वाले पाकिस्तान पोषित तालिबानी चरमपंथी अब अफगानिस्तान में चुनाव लड़ सकेंगे और वहां के सर्वोच्च पद पर सुशोभित हो सकेंगे।
अमेरिका और तालिबान के बीच हुए यह समझौता एक तरह से आंतकवाद की लड़ाई अमेरिकी की लड़ाई का ही मजाक उड़ा रही हैं, जहां आंतकी को कहा जा रहा है कि आओ राजा बनो।
गौरतलब है पाकिस्तान पोषित तालिबानी के अफगानिस्तान की सत्ता में आने से सबसे अधिक खतरा पड़ोसी देश भारत को है, क्योंकि इस समझौते से भारत की सुरक्षा पर व्यापक असर पड़ने की संभावना जताई जा रही है। हालांकि मौजूदा दौर में जब जम्मू-कश्मीर की सुरक्षा को कमजोरी माने जा रहे अनुच्छेद 370 और 35 ए को निष्प्रभावी बना दिया गया है तो भारत पहले की तुलना में आतंक और आतंकी गतिविधियों पर बेहतर तरीके से निपट सकेगा।
वैसे अफगानिस्तान की मौजूदा अशरफ गनी सरकार ने तालिबान और अमेरिका समझौते पर अपनी असहमति जता चुके है। तालिबान और अमेरिकी के बीच हुए समझौते पर अमेरिका के मुख्य वार्ताकार खलीलजाद और तालिबान के मध्यस्थ मुल्ला बरादर ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी शामिल नहीं हैं।
पिछले दिनों अफगानिस्तान के राष्ट्रपति चुने गए अशरफ गानी को फिलहाल तालिबान खारिज कर चुका है। शायद इसीलिए उसे समझौते में पार्टी नहीं बनाया गया है। तालिबान और अमेरिकी के बीच समझौते की खबरों के बाद अफगानिस्तान ने रोड़ा अटकाते हुए कहा कि अफगानिस्तान उन 5000 तालिबानी चरमपंथियों को नहीं छोड़ेगा, जो अभी अफगानिस्तान के विभिन्न जेलों में बंद हैं।
उल्लेखनीय है अमेरिका और तालिबान की पिछले कई महीनों से चल रही बातचीत में मौजूदा अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया। समझौते के बाद तालिबान का कहना है कि अब उसकी तरफ से अफगानिस्तान में न ही कोई हिसा की जाएगी और किसी तरह के आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम दिया जाएगा।
समझौते के बाद अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो ने उम्मीद जताई कि तालिबान वादे के अनुसार अल-कायदा के साथ सारे संपर्क तोड़ लेगा। उन्होंने यह भी इशारों में कहा कि हालात बिगड़ने पर अमेरिका के पास सैन्य हमला करने का अधिकार आगे भी रहेगा। इस करार के दौरान भारत समेत दुनियाभर के 30 देशों के प्रतिनिधि मौजूद रहे।
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भारत की मुश्किलें बढ़ा सकता है अमेरिका और तालिबान समझौता
अमेरिका और तालिबाने के बीच हुए हालिया समझौते से भारत की मुश्किल बढ़ गई है। समझौते के बाद अफगानिस्तान के वॉर जोन में अभी 13 हजार अमेरिकी सैनिक मौजूद हैं और डील के तहत अमेरिका करीब साढ़े चार हजार अमेरिकी सैनिकों को वापिस बुलाएगा। इस समझौते से अफ़ग़ानिस्तान में अमन लाने की उम्मीदों पर इसलिए सवाल उठ रहे हैं क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति की चुनावी मजबूरियों के चलते दो दशक से चली आ रही दुश्मनी को ढंकने की कोशिश की है। अमेरिकी के इस फैसले ने भारत की पेशानी पर लकीरें बना दी हैं। अफगानिस्तान में तालिबानियों के सत्ता में आने से कश्मीर में सुरक्षा हालात को बिगड़ने तय हैं, क्योंकि कौन नहीं जानता है कि अफगानिस्तान में तालिबान को पाकिस्तान ने पैदा किया है।
तालिबान को वैधता से आंतकवाद की लड़ाई के खिलाफ गलत सन्देश गया
अमेरिका जिस अफ़ग़ान शांति समझौते को नई नज़ीर बनाकर पेश कर रहा है उसके दोनों पक्षों यानी अफगानिस्तान और तालिबान बीच अब भी आपसी अविश्वास के तार साफ नजर आते हैं। कतर में हुए करारनामे में तालिबान ने खुद को अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामिक आमीरात बताया है जबकि समझौते के शीर्षक में अमेरिका आमीरात को मान्यता नहीं दी है। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन भी समझौते पर सवाल उठा चुके हैं। उन्होंने कहा तालिबान को वैधता देकर आईएसआईएस, अल-कायदा और अमेरिका का दुश्मनों को गलत सन्देश दिया गया है।
पाकिस्तान की दखल बढ़ने को लेकर भारत की हैं अपनी चिंताएं
अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाकों की रिहाई और तालिबानी दामन पकड़कर पाकिस्तान की दखल बढ़ने को लेकर भारत की चिंता बढ़ गई हैं। अफ़ग़ानिस्तान में भारत के रणनीतिक हितों, व्यापक विकास परियोजनाओं और बड़े राजनयिक मिशन के चलते भारत की फिक्र का दायरा भी बड़ा है। भारतीय खुफिया एजेंसियों को इस बात की आशंका है कि पाकिस्तान की आईएसआई, अमेरिका के साथ सुलह कराने में मदद की अपनी फीस तालिबान से कश्मीर में जेहादी सहायता के तौर पर वसूल कर सकती है। साथ ही पाक की कोशिश तालिबान की मदद से भारत का प्रभाव अफ़ग़ानिस्तान में घटने पर भी होगा।
भारत का सुरक्षा तंत्र कश्मीर में पहले के मुकाबले काफी मजबूत
अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद जम्मू-कश्मीर का सुरक्षा-तंत्र पहले के मुकाबले काफी मजबूत हुआ है। इसलिए अब पाकिस्तान समर्थित आंतकी गतिविधियों को कश्मीर घाटी में प्रवेश मुश्किल होगा। साथ ही अफगानिस्तान में भी तालिबान और पाकिस्तान के लिए पूरी तरह मनमानी कर पाना मुमकिन नहीं है। हालांकि भारत की चिंताएं लाज़िमी हैं क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में उसका बहुत बड़ा राजनयिक मिशन है। साथ ही करीब 3 अरब डॉलर की विकास परियोजनाओं में उसका निवेश है। जलालाबाद, काबुल, हेरात में भारतीय दूतावास पर हुए हमलों का इतिहास देखते हुए भारत की फिक्र अपने राजनयिक मिशन को लेकर हैं. वहीं बीते साल एक बिजली परियोजना की साइट पर काम कर रहे मजदूरों के अपहरण के चलते विकास परियोजनाओं के भविष्य की भी चिंताएं हैं.
तालिबान की नीयत को डोनाल्ड ट्रंप भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हैं
माना जा रहा है कि तालिबान-अमेरिका समझौते को लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी तालिबान की नीयत को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। यही वजह है कि समझौते का स्वागत करने के साथ ही उन्हें यह चेतावनी भी देना पड़ी कि अमेरिका स्थितियों का आकलन कर फैसला लेगा। अगर तालिबान ने समझौते की शर्तों को तोड़ता है तो अमेरिका अपनी सेना की वापसी का फैसला बदल भी सकता है। राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि अगर कुछ खराब होता है तो हम वापस जाएंगे,मैं लोगों को बता दूं कि हम इतनी तेजी से और इतनी बड़ी संख्या में वापस जाएंगे कि किसी ने देखा न होगा। हालांकि बाद में उन्होंने कहा कि लेकिन इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी।
ट्रंप के दोबारा व्हाइट हाउस पहुंचने की कोशिशों का हिस्सा है करार
यह जगजाहिर है कि अमेरिका और तालिबान के बीच हुआ यह शांति समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति की दोबारा व्हाइट हाउस पहुंचने की कोशिशों के हिस्सा है। ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव में जाने से पहले अमेरिकी फौजियों को अफ़ग़ानिस्तान से बुलाने का जनता से किया वादा पूरा करना चाहते है। अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से पूरी तरह अपने पैर नहीं हटाना चाहेगा, खासकर ऐसे में जबकि वहां से उसे चीन, रूस, ईरान और पाकिस्तान पर सीधी निगरानी का मौका मिलता हो.
अफगानिस्तान में गत 22 फरवरी से शुरू हुआ था आंशिक संघर्ष विराम
अफगानिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा समिति के प्रवक्ता जावेद फैसल ने बीते सप्ताह कहा था कि अफगान सुरक्षा बलों और अमेरिका व तालिबान के बीच हिंसा में कमी जल्द ही हो जाएगी। उन्होंने शनिवार 22 फरवरी से हिंसा में कमी आने का दावा करते हुए कहा था कि यह कमी एक सप्ताह तक जारी रहेगी। हालांकि उन्होंने माना था कि हिंसा के पूरी तरह खत्म होने में समय लगेगा।
तालिबान-अमेरिका शांति वार्ता पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा
तालिबान के साथ अमेरिका की शांति वार्ता और समझौता पाकिस्तान के लिए फायदे का सौदा है। इसलिए इन दोनों ध्रुवों के बीच पाकिस्तानी सरकार और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई बिचौलिए का काम कर रही थी। अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों के वापस जाते ही पाकिस्तान तालिबान की मदद से कश्मीर में आतंकी घटनाओं को अंजाम दे सकता है। यह भी भारत की मुश्किल बढ़ाने वाली बात ही है।दरअसल, तालिबान को अमेरिका के साथ बातचीत की मेज पर पाकिस्तान ही लेकर आया, क्योंकि वह अपने पड़ोस से अमेरिकी फौजों की जल्द वापसी चाहता है। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका-तालिबान की वार्ता में शामिल होने के लिए ही पाकिस्तान ने कुछ महीने पहले तालिबान के उप संस्थापक मुल्ला बारादर को जेल से रिहा किया था।
भारत-ईरान के चाबहार परियोजना पर भी बढ़ेगा खतरा
ईरान के चाबहार पोर्ट के विकास में भारत ने भारी निवेश किया हुआ है, ताकि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, रूस और यूरोप के देशों से व्यापार और संबंधों को मजबूती दी जा सके। इस परियोजना को चीन की वन बेल्ट वन रोड परियोजना की काट माना जा रहा है। ऐसे में यदि तालिबान सत्तासीन होता है तो भारत की यह परियोजना भी खतरे में पड़ सकती है क्योंकि इससे अफगानिस्तान के रास्ते अन्य देशों में भारत की पहुंच बाधित होगी।
अफगानिस्तान में तालिबान चरमपंथी को बढ़ाने में है पाकिस्तान का हाथ
पाकिस्तान की मदद से दक्षिण-पश्चिम अफगानिस्तान से तालिबान ने बहुत तेजी से अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया और सितंबर 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे अफगानिस्तान के हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। इसके एक साल बाद तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगानिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 1998 आते-आते अफगानिस्तान के लगभग 90 फीसदी इलाकों पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था।
पाकिस्तान इस बात से इनकार करता रहा है कि तालिबान के उदय के पीछे उसका ही हाथ रहा है। लेकिन, इस बात में कोई शक नहीं है कि तालिबान के शुरुआती लड़ाकों ने पाकिस्तान के मदरसों में शिक्षा ली।
90 के दशक से लेकर 2001 तक जब तालिबान अफगानिस्तान में सत्ता में था तो केवल तीन देशों ने उसे मान्यता दी थी- पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब। तालिबान के साथ कूटनीतिक संबंध तोड़ने वाला भी पाकिस्तान आखिरी देश था।
9/11 का बदला लेने के लिए अमेरिका ने किया था अफगानिस्तान पर हमला
न्यूयॉर्क में 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद अमेरिका समर्थित गठबंधन सेना ने अक्तूबर 2001 में अफगानिस्तान पर हमला कर दिया था। अमेरिका में हुए आतंकी हमले में ओसामा बिन लादेन के संगठन अलकायदा का हाथ था, जो अफगानिस्तान से संचालित हो रहा था। 9/11 के कुछ समय बाद ही अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान में सत्ता से बेदखल कर दिया, हालांकि वह तालिबान के नेता मुल्ला उमर और अल कायदा के बिन लादेन को नहीं पकड़ सका था। हालांकि 2 मई 2011 को पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिका के नेवी सील कमांडो ने ओसामा बिन लादेन को मार गिराया था।
US सैनिकों के जाते ही अफगानिस्तान में हो सकता है तालिबान वर्चस्व
अफगानिस्तान से विदेशी सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान का अफगानिस्तान में फिर से वर्चस्व स्थापित हो सकता है जो भारत की सुरक्षा चिंताओं को बढ़ा सकता है। यह क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौतियां खड़ी कर सकता है। पाकिस्तान से तालिबान की नजदीकियों को देखते हुए तालिबानी आतंकी पाकिस्तान के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश कर सकते हैं। कई सुरक्षा एजेंसियों इसकी आशंका पहले ही जता चुकी हैं। भारत शुरुआत से ही तालिबान का खुले तौर पर विरोध करता रहा है। जब तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया था तो भारत ने उसे मान्यता नहीं दी थी। भारत तालिबान के साथ हुई शांति वार्ता में भी कभी शामिल नहीं हुआ।