दिवाली पर दिल्ली में पटाखों पर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध के बाद ये सवाल उठने लाजिमी हैं
दिवाली आई नहीं है लेकिन पटाखा सुलगाने की कोशिश शुरू हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों की बिक्री पर रोक लगाकर खुद को पटाखे में बदल डाला है।
नई दिल्ली। दिवाली आई नहीं है लेकिन पटाखा सुलगाने की कोशिश शुरू हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों की बिक्री पर रोक लगाकर खुद को पटाखे में बदल डाला है। एक ऐसा पटाखा, जिसे संस्कृति के लिए जानलेवा और हिन्दुत्व पर हमला बताया जा रहा है। देश में इस पटाखे को सुलगाने के लिए जैसे एक तबका बेचैन हो रहा है। किसी तरह इस मुद्दे को बढ़ाने की कोशिश हो रही है। मगर, ये ख़तरनाक है! इसलिए सावधान! कोई इस सुप्रीम पटाखे को सुलगाने की न सोचे, वरना देश में अस्थिरता का ऐसा दौर शुरू हो जाएगा, जो आतंकी वारदातों के अंजाम से भी ख़ौफ़नाक हो सकता है!
मन को मारें पर पटाखों से करें तौबा
पटाखों से भावनाएं जुड़ी हैं। दिवाली का पर्याय हैं पटाखे। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले से उन लोगों का आहत होना स्वाभाविक है जो दिवाली से भावनात्मक और धार्मिक रूप से जुड़े हैं और जिनके लिए दिवाली का मतलब ही पटाखे होते हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले का जो दूसरा पहलू है, उस पर तवज्जो देने के बाद हमें अपने मन को मारना के लिए विवश होना पड़ेगा।
एक सोच ऐसी भी!
पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया, तो मन बेचैन हो उठा। कुछेक कॉमन सवाल मन को कुरेदने लगे- होली न मनाएं कि पानी बचाना है, दिवाली न मनाएं कि प्रदूषण से बचना है! ये बचना-बचाना क्या है! ज़िन्दगी बचाना, जीवन बचाना..क्या केवल हिन्दुस्तान और यहां के सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेवारी है? अंतरराष्ट्रीय अदालत क्यों सोयी रहती है जब युद्ध के नाम पर धमाके होते हैं, इंसान प्रदूषण से पहले धमाके में मर जाता है?
अंतरराष्ट्रीय अदालत से बेहतर है हमारी अदालत
प्रश्न और प्रतिप्रश्न का सिलसिला-सा चल पड़ा। अगर अंतरराष्ट्रीय अदालत सोयी रहे, तो क्या हिन्दुस्तान की अदालत के जागने पर सवाल उठना चाहिए? या उसकी तारीफ होनी चाहिए? सोचा, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तारीफ करें तो कभी मानहानि नहीं बनती, मगर कुछ विरोध में लिख-पढ़ दिया तो मानहानि हो जाएगी। इसलिए मानहानि के झमेले में क्या पड़ना। अधिक सोचना ही बन्द कर दिया जाए। जो होता है वो होने दो, मुझको थोड़ा सा सोने दो। बिल्कुल अन्तरराष्ट्रीय अदालत की तरह।
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धुएं भरी जिन्दगी से माताओं को दी मुक्ति, फिर पटाखों से क्यों नहीं?
लेकिन, सोते हुए भी सोचना कहां बंद होता है। हमें नींद में ही याद आने लगे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके भाषण। हिन्दुस्तान अब सवा सौ करोड़ लोगों का मुल्क है। ये गरीबों की सरकार है, जो उन मां बहनों का दुखदर्द समझती है जो धुएं भरी ज़िन्दगी में बच्चों को मुश्किल से पाल रही होती हैं। ऐसी माताओं-बहनों के घर बीजेपी सरकार मुफ्त में गैस चूल्हे पहुंचाती है। सरकार ने परम्परागत ऊर्जा का इस्तेमाल कम करते हुए सोलर एनर्जी पर ध्यान दिया है जिसकी वजह से देशभर में बिजली होगी, लेकिन वो धुआं नहीं होगा। वाह! कितनी अच्छी है हमारी सरकार!
पटाखा बेचने के बाद अब फोड़ने पर प्रतिबंध की ज़रूरत
नीन्द में ही जागता रहा। मोदी सरकार जनता के हितों का इतना ख्याल रखती है तो वो क्यों नहीं सोचती कि पटाखे फोड़ने से वायु प्रदूषण हो जाएगा, कि पिछली दिवाली के बाद जिस तरह प्रदूषण 16 गुणा बढ़ गया था और लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही थी वैसी स्थिति दोबारा पैदा न हो? अगर सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया है तो मोदी सरकार को पटाखा फोड़ने पर लगाना चाहिए। तभी वायु प्रदूषण पर नियंत्रण हो सकता है।
प्रदूषण तो तब भी रहेगा जी, अकेले दिल्ली में है 1 करोड़ गाड़ियां!
लेकिन मन ने मन से पूछा कि क्या पटाखा बेचने या फोड़ने पर प्रतिबंध लगा भर देने से दिल्ली प्रदूषण मुक्त हो जाएगी? कतई नहीं। सिर्फ दिल्ली में वायु प्रदूषण का एक चौथाई हिस्सा यहां रजिस्टर्ड 1 करोड़ गाड़ियों की वजह से है। दुनिया में कार्बन उत्सर्जन का लगभग छठा भाग हिन्दुस्तान में होता है। कल-कारखानों के धुएं से फैलता प्रदूषण अलग है, हिमालय के जंगलों में लगने वाली आग हो या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रचंड दावानल का रूप लेती आग- इनसे भी वायु प्रदूषण फैलता है। कोयला खदानों में सतत लगी आग भी प्रदूषण को बढ़ाती रहती है।
चलो दिवाली पर मन को मना लें, पर दुनिया में पटाखे फूटने बंद हो जाएंगे?
पटाखों से होने वाला प्रदूषण तो दिवाली पर्व पर एक दिन होता है, लेकिन चुनाव के बाद दुनिया भर में जो पटाखे फोड़े जाते हैं उनसे होने वाले नुकसान का कौन लगाता है अंदाजा? क्या अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की जीत पर धमाकों वाली दिवाली नहीं मनायी गयी थी? क्या पीएम नरेन्द्र मोदी की जीत पर पटाखों से जश्न नहीं मना था? क्या दुनिया के दूसरे हिस्सों में पटाखों पर प्रतिबंध है? अगर ऐसा नहीं है तो एक दिन पटाखा नहीं फोड़ने से क्या प्रदूषण कम हो जाएगा?
कोरिया-अमेरिका-रूस को भी कहे कोई- धमाकों से रहें दूर
अचानक जोरदार धमाके की आवाज़ के साथ नींद खुली। कुछ अनहोनी की आशंका के साथ टीवी खोला, धमाके की कोई ख़बर तो नहीं थी, लेकिन अमेरिकी बम वर्षक विमान उत्तर कोरिया के आसमान से गुजरा था और उत्तर कोरिया ने धमकी दी कि अगर युद्ध हुआ तो जापान का नामोनिशान मिटा देंगे। पटाखे और धमाकों के बीच कुर्सी पर बैठे-बैठे सोचता रहा कि उत्तर कोरिया परमाणु परीक्षण करता रहे, मिसाइलों के टेस्ट करता रहे और भारत के लोग पटाखे भी नहीं छोड़ें? सीरिया में रूस रोज धमाके करे, रूस और अमेरिका में फादर और मदर बम फोड़ने की स्पर्धा हो, दुनिया की सरकारें युद्ध लड़ने के लिए तैयार रहें, आतंकवादी चाहे जितने धमाके करते रहें- सबको स्वतंत्रता है। लेकिन दिल्ली में आप आम पटाखे भी नहीं छोड़ सकते।
अवार्ड वापसी गैंग की पहुंच सुप्रीम कोर्ट तक?
इस बीच एक और ख़बर ने टीवी में सुर्खियां बटोर ली थीं जो पिछली रात से वेबसाइट पर छायी हुई थी। ख़बर थी त्रिपुरा के राज्यपाल ने ट्वीट कर जानना चाहा है कि कहीं ऐसा न हो कि अवार्ड वापसी गैंग याचिका डालकर हिन्दुओं को चिता जलाने और मोमबत्तियां जलाने से भी रोक दे यह कहकर कि इससे भी प्रदूषण होता है। उन्होंने ट्वीट के जरिए जानना चाहा कि कभी दही-हांडी, आज पटाखा और कल कुछ और। मगर, महत्वपूर्ण सवाल ये था कि राज्यपाल साहब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए अवार्ड वापसी गैंग को क्यों जिम्मेदार ठहरा रहे हैं? क्या इस गैंग की सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच है? न बाबा ना, पहुंच हो या ना हो। समझें राज्यपाल महोदय, जानें अवार्ड वापसी गैंग। हमें मानहानि के चक्कर में नहीं पड़ना।
जान की फिक्र करें, या सांस्कृतिक विरासत की?
मगर, मसला हल नहीं हो रहा था। पटाखों की बिक्री पर रोक हमारी सांस्कृतिक विरासत पर धमाका है या इसी संस्कृति में पलते बढ़ते रहे उन लोगों की ज़िन्दगियों को बचाने का प्रयास, जो दिवाली के आसपास बड़ी संख्या में प्रदूषण की वजह से मर जाते हैं। अरे, जो नहीं मर पाते हैं उनके लिए हर सेकेंड काटना कितना मुश्किल होता है। मेरे पड़ोस का वो नन्हा सोनू महज 8 साल का बच्चा, पिछली दिवाली के बाद की सुबह कितना बेचैन था। उसके पिता डॉक्टर हैं फिर भी वह अस्पताल में इस दमघोंटू वातावरण से बीमार होकर 9 दिन तक पड़ा रहा था। खुद मेरी पत्नी इनहेलर लेकर भी सुकुन नहीं महसूस कर रही थीं। और, वो मेरे बहनोई साहब की मम्मी..बेचारी इतनी बीमार हुई कि बस किसी तरह जान बची। आगे से इस मौसम में दिल्ली आने से उन्होंने तौबा ही कर ली।
दुनिया में 30 लाख लोग साल में प्रदूषण से मरते हैं!
हमें याद आने लगा वो रिसर्च, जो पिछले साल दिवाली के मौसम में ही मैंने किया था। दुनिया में मलेरिया और एचआईवी या एड्स से जितनी मौत होती हैं उससे कहीं ज्यादा मौत प्रदूषण के कारण होती हैं। 30 लाख लोग साल में प्रदूषण से मरते हैं। आशंका है कि 2050 तक यह संख्या दुगुनी हो जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े कहते हैं कि 2.5 माइक्रो से कम अल्ट्रा फाइन पार्टिकल्स के स्तर के मामले में भारत सबसे आगे है। दुनिया के 30 सबसे प्रदूषित शहरों में 16 अकेले भारत में हैं। आश्चर्य की बात ये है कि दुनिया के स्तर पर 8 प्रतिशत की दर से पिछले पांच साल में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। दुनिया के 3000 शहरों में वायु प्रदूषण का स्तर ख़तरनाक लेवल से ऊपर है। डब्ल्यू एच ओ के असिस्टेन्ट डायरेक्टर जनरल प्लेविया बुस्ट्रे का कहना है कि शहरों की हवा जैसे जैसे खराब होती है हार्ट अटैक, हृदय रोग, लंग कैंसर और क्रोनिक डिजीज़ का ख़तरा बढ़ता चला जाता है। सांस से संबंधित बीमारियां, जिनमें अस्थमा भी शामिल है, गम्भीर हो जाती हैं। बच्चे, गरीब और बूढ़ों पर इसका सबसे ज्यादा असर होता है।
एक जीवन भी बचे तो पटाखों से तौबा है मंजूर
एक तरफ प्रदूषण के बीच घुटता दम है, दूसरी तरफ संस्कृति पर हुए धमाकों से आहत आत्मा है। अब दिमाग बेचैन हो चुका था। वह कुछ इस तरह से सोचने को मजबूर हो गया है कि अगर अमेरिका पागल हो जाएगा, उत्तर कोरिया सनक जाएगा, रूस की इंसानियत मर जाएगी तो इस नाम पर हम भी अपनी इंसानियत के मरने का इंतज़ार करते रहें? क्या हम भी खुद को पागलों की जमात में खड़ी कर लें। अरे कैसी संस्कृति? अगर मेरे पड़ोसी बच्चे ही न रहें, मेरी पत्नी ही न बचे और मेरे बड़े-बुजुर्ग ही इस दमघोंटू दिवाली में तड़प-तड़प कर दम तोड़ दें। ज़िन्दा बचेंगे तभी तो संस्कृति की बात कर पाएंगे। अगर पटाखा फोड़ना रोककर एक को भी बीमार होने से बचाया जा सकता है, मौत के मुंह में जाने से रोका जा सकता है तो हम तो पटाखा से तौबा करने को तैयार हैं। अब आप बोलिए क्या आप तैयार हैं?