प्रणब मुखर्जीः सोनिया गांधी को धन्यवाद देना चाहिए, जिनसे सीखे थे कभी उन्होंने राजनीति के गुर
नई दिल्ली। भारत रत्न और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने करीब पांच दशकों तक राजनीति में एक उफान को देखा और लंबी बीमारी के बाद आज उन्होंने 84 वर्ष की उम्र में अपना देह त्याग दिया है। प्रणब दा एक ऐसे परिवार से आते हैं, जिनके पूर्वजों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका अदा थी। राजनीति तो उनकी रगों में दौड़ती थी, लेकिन प्रणब मुखर्जी ने अपनी योग्यता के आधार पर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर तेजी से अपनी चमक बिखेरे और साबित किया कि उनकी विलक्षणता दूसरों से जुदा थी।
बंगाल के एक छोटे से गांव से दिल्ली की चकाचौंध राजनीति में पहुंचे
बंगाल के एक छोटे से गांव में एक दीपक की झिलमिलाहट से दिल्ली की चमक दमक वाली दुनिया यात्रा की तय करने के बाद भारत रत्न प्रणब मुखर्जी ने एक बार कहा था कि उन्होंने एक विशाल ही नहीं, बल्कि एक अविश्वसनीय परिवर्तन देखा था। निः संदेह बहुत कम ही ऐसे राजनेता होते हैं, जो न केवल अपनी पार्टी के भीतर, बल्कि दूसरे जगहों पर भी सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं, उनमें दिवंगत प्रणब मुखर्जी एक थे।
जब इंदिरा गांधी प्रणब दा को कांग्रेस में शामिल होने के लिए राजी कर लिया
वर्ष 1969 में उन्होंने पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के निर्दलीय राजनीतिज्ञ वीके कृष्ण मेनन के लिए एक विजयी चुनाव अभियान चलाया। तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के लिए तब इतना पर्याप्त था कि वो उस समय के बंगाल की राजनीति में उभरते 34 वर्षीय सितारे पर ध्यान दें। प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी प्रणब दा को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के लिए राजी कर लिया और उसी वर्ष संसद के राज्यसभा सदस्य के रूप में प्रणब मुखर्जी को दिल्ली में सत्ता के गलियारों में पहुंचा दिया।
जल्द ही तत्कालीनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी विश्वासपात्र बन गए
मैन फॉर ऑल सीजन्स के नाम से मशहूर प्रणब दा जल्द ही इंदिरा गांधी के करीबी विश्वासपात्र बन गए और वर्ष 1973 की कैबिनेट में औद्योगिक विकास उप मंत्री का पद संभालने की जिम्मेदारी मिल गई, लेकिन भारत के राजनीतिक परिदृश्य में उनकी भूमिका उनके कई समकालीनों नेताओं के विपरीत सिर्फ एक पद संभालने तक सीमित नहीं थी। वह दौर भी आया जब प्रणब दा को मुख्यधारा की राजनीति से किनारे लगा दिया गया, लेकिन प्रणब दा हमेशा शांत नदी की पानी की तरह बहते रहे।
मैं उस ऊंचाई पर सहज हूं, जहां भाग्य ने मुझे रखा हैः प्रणब मुखर्जी
बकौल प्रणब दा, मैं एक राजनीतिक परिवार से आता हूं। मेरे पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे। वह इलाके के एक प्रमुख नेता और कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे। उन्होंने 10 साल ब्रिटिश जेलों में बिताए। शाम को, हमारे लिविंग रूम में, जिस एकमात्र विषय पर हम चर्चा करते थे, वह था राजनीति। इसलिए, राजनीति मेरे लिए अपरिचित नहीं थी, मैं उस ऊंचाई पर सहज हूं जहां भाग्य ने मुझे रखा है।
प्रणब मुखर्जीः शाह आयोग से लेकर विपक्ष के नेता तक
इंदिरा गांधी द्वारा 1975-1977 के दौरान देश पर आपातकाल थोपा गया था और आज भी कई लोगों ने इसे एक ड्रेकोनियन हुक्मनामा (Draconian decree) माना है, जब मानवाधिकारों के उल्लंघन से लेकर प्रेस की सेंसरशिप और चुनाव स्थगित किया गया, जिसे आज भी स्वतंत्र भारत का 'काला युग' पुकारा जाता है। इसके बाद देश में पैदा हुई राजनीतिक अशांति कांग्रेस के लिए चेहरे पर एक सख्त जैसी थप्पड़ थी और उसके बाद एक पुरानी पार्टी को ऐसा हश्र हुआ कि कांग्रेस को जनता पार्टी के खिलाफ वर्ष 1977 के आम चुनावों में अपमानजनक हार का सामना करना पड़ा।
शाह आयोग की रिपोर्ट में प्रणब मुखर्जी की खूब आलोचना की गई
1977 में मोरारजी देसाई सरकार ने शाह आयोग की स्थापना की, जिसके प्रमुख भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेसी शाह थे, जिन्होंने आपातकाल के दौरान जारी सभी ज्यादतियों की जांच शुरू की। शाह आयोग की रिपोर्ट में स्थापित मानदंडों और शासन के नियमों को नष्ट करने और अतिरिक्त-संवैधानिक शक्तियों का उपयोग करने के लिए प्रणब मुखर्जी की खूब आलोचना की गई थी, लेकिन इसे प्रणब दा का भाग्य ही कहेंगे कि 1979 में आयोग पर अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर होने का आरोप लगा और मुखर्जी बेख़ौफ़ होकर उससे बाहर आ गए।
प्रणब मुखर्जीः इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा को बचाना
1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के सत्ता में लौटने के बाद प्रणब मुखर्जी राज्यसभा में सदन के नेता बने और गांधी की अनुपस्थिति में कई कैबिनेट बैठकों की अध्यक्षता की, जो पार्टी में उनके प्रवेश के एक दशक के भीतर अर्जित विश्वास का एक स्पष्ट प्रदर्शन था। वर्ष 1979 के आसपास देश गंभीर संकट में था और आपातकाल के बाद गांधी के लिए सत्ता संभालना एक दुष्कर काम था। एकमात्र विकल्प जो बचा था, वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से फंड प्राप्त करना था और IMF द्वारा तीन चरणों में 30,000 करोड़ रुपए (वर्तमान समय के हिसाब से) से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई थी।
इंदिरा सरकार को तबाह हो रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बचाना था
तत्कालीन कांग्रेस सरकार को तबाह हो रहे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बचाना था। साथ ही साथ अन्य देशों के साथ व्यापार को पुनर्गठित करना पड़ा। ऋण समझौते के तौर-तरीकों को 6वीं पंचवर्षीय योजना में बुना गया था, लेकिन, तीसरे चरण के ऋण समझौते से पहले भारत को प्रोग्राम से बाहर कर दिया। इस समय भारत आर्थिक संकट को कम करने और सार्वजनिक क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए एक श्रृंखला में राजकोषीय नीति लाई गई, जिसके लिए पीएम इंदिरा गांधी ने उस समय वित्त मंत्री रहे प्रणब मुखर्जी (1982-1984) को सबसे अधिक धन्यवाद दिया।
प्रणब मुखर्जीः राजीव गांधी की हत्या के बाद पुनरुत्थान
वर्ष 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, मुखर्जी कांग्रेस पार्टी में अकेले पड़ गए, क्योंकि प्रणब दा पीएम इंदिरा गांधी के बेटे राजीव गांधी की तुलना में अधिक अनुभवी थे। निः संदेह इंदिरा गांधी के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब दा अगली पंक्ति के नेता में शुमार थे। इंदिरा गांधी के सही उत्तराधिकारी होने से लेकर कांग्रेस की पश्चिम बंगाल इकाई के प्रबंधन के लिए कार्यभार ग्रहण करने तक करिश्माई नेता के रूप में उभरे प्रणब दा अचानक मुख्य धारा की राजनीति से गायब कर दिए गए।
7 रेस कोर्स रोड (PM आवास) कभी भी मेरा अंतिम लक्ष्य नहीं था: प्रणब दा
उन्होंने एक बार कहा था, 7 रेस कोर्स रोड ( प्रधान मंत्री आवास) कभी भी उनका अंतिम लक्ष्य नहीं था। करीब पांच साल तक मुख्यधारा की राजनीति से दूर रहने के बाद मुखर्जी ने पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार में एक जोरदार वापसी की। पूर्व पीएम राव ने प्रणब दा को योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया और बाद में उनके ही कार्यकाल में वो केंद्रीय विदेश मंत्री पद पर भी रहे।
प्रणब मुखर्जीः सोनिया गांधी को धन्यवाद देना चाहिए
भले ही इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद पार्टी ने उनके साथ तिरस्कार का व्यवहार किया, लेकिन मुखर्जी फिर भी गांधी परिवार के प्रति वफादार रहे और राजीव गांधी की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी ने प्रणब दा के संरक्षण में ही राजनीति के गुर सीखे। एक संरक्षक के रूप में उन्होंने सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए निर्देशित किया और खुद अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के महासचिव के लिए बन गए। लेकिन यह उनकी अंतरआत्मा को गंवारा नहीं था, क्योंकि राजनीति में उनका मकसद सेवा करना था, और वह हमेशा उन्हीं सिद्धांतों पर खरे रहे।
प्रणब मुखर्जीः यूपीए और कांग्रेस का घोटाला
राज्यसभा सांसद के रूप में तीन दशकों के बाद उन्होंने अंततः 2004 में लोकसभा चुनाव लड़ा और पश्चिम बंगाल के जंगीपुर से जीते। मुखर्जी सदन के नेता चुने गए और प्रधानमंत्री के पद के लिए संक्षेप में विचार किए जाने के बाद पार्टी ने डॉ मनमोहन सिंह को उम्मीदवार बनाने का फैसला किया। 1982 में वित्त मंत्री रहे प्रणब दा ने प्रधानमंत्री पद के लिए चुने गए महमोहन सिंह को भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के रूप में नियुक्त किया था।
2004 में कांग्रेस की UPA सरकार भ्रष्टाचार के दलदल में फंसती चली गई
2004 में कांग्रेस की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने एक अच्छी शुरूआत की थी, लेकिन जल्द ही वह भ्रष्टाचार के दलदल में फंसती चली गई। वर्ष 2008 का 1.76 लाख करोड़ रुपए का 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला, वर्ष 2010 का 1.86 लाख करोड़ रुपए का कोलगेट (कोयला आवंटन) घोटाला और 2,300 करोड़ रुपए का सीडब्ल्यूजी घोटाला दीमक की तरह राजकोष को चाट गया। इस अवधि के दौरान मुखर्जी के हाथ में विदेश मंत्रालय (2006-2009) और वित्त मंत्री (2009-2012) का कार्यभार था।
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की प्रचंडता ने भारत के ताने-बाने को नष्ट कर दिया
देश में व्याप्त भ्रष्टाचार की प्रचंडता ने भारत के ताने-बाने को नष्ट कर दिया और कांग्रेस कठघरे में थी। घोटालों में शामिल उच्च प्रोफ़ाइल के राजनेताओं के नाम धूल धूसरित हो गए,, लेकिन ओल्ड गार्ड के रूप में प्रणब दा लगातार कांग्रेस का चेहरा बचाने के लिए अंत तक संघर्ष किया।केंद्रीय वित्त मंत्री होने के नाते वो विपक्ष के सीधे निशाने पर आए, बावजूद इसके लुटियंस दिल्ली में प्रणब मुखर्जी के लिए न्याय परायव व्यक्ति और वफादार गांधीवादी के रूप में पुकारा जाता था। प्रणब मुखर्जी को 2012 में कांग्रेस के दूसरे यूपीए कार्यकाल के दौरान भारत का राष्ट्रपति नियुक्त किया गया था।
प्रणब मुखर्जीः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धांत
कहा जाता है कि प्रणब दा ने जो कुछ भी किया, वह उनकी पार्टी के लिए था और उन्होंने निराशा के सामने भी ईमानदारी का जीवन जीया। उन्होंने वर्ष 1977 के आपातकाल से लेकर कांग्रेस की 2014 की राजनीतिक आत्महत्या तक का दौर देखा, फिर भी वो सभी के लिए पूज्यनीय थे। भारतीय जनता पार्टी, जो कांग्रेस की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी थी, उसने भी उसे अपमानित महिमा मंडित किया। इस राजनेता का करिश्माई व्यक्तित्व ही कहेंगे कि वो जानते थे कैसे सम्मान दिया और अर्जित किया जाता है।
प्रणब दा एक धार्मिक थे, जो कभी दुर्गा पूजा पर गृहनगर जाना नहीं भूले
बतौर राजनेता की उत्कृष्टता के मुख्य आकर्षण के रूप में देखे तों, तो प्रणब दा एक ऐसा धार्मिक व्यक्ति थे, जिसने कभी भी दुर्गा पूजो त्योहारों के समय गृहनगर जाना नहीं भूले। वो अपने कैलेंडर के पांच दिन पश्चिम बंगाल में अपने निवास पर माँ दुर्गा को समर्पित करने के लिए सुनिश्चित किया हुआ था, जहां से वो वर्ष1970 के दशक में भारतीय राजनीति में एक सितारे के रूप में उभरते हुए भारत के राष्ट्रपति के रूप में सफर पूरा किया था।