पोस्टर विवाद: योगी के अध्यादेश से अब क्या होगा
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में जारी पोस्टर विवाद की सुनवाई के दौरान ही एक नया अध्यादेश पास किया है. यूपी सरकार की कैबिनेट ने इस ऑर्डिनेंस के तहत सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने वालों से हर्जाना वसूलने के नियम बनाने का फ़ैसला किया है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण
उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट में जारी पोस्टर विवाद की सुनवाई के दौरान ही एक नया अध्यादेश पास किया है.
यूपी सरकार की कैबिनेट ने इस ऑर्डिनेंस के तहत सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने वालों से हर्जाना वसूलने के नियम बनाने का फ़ैसला किया है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इसे असंवैधानिक बताते हुए यूपी सरकार के इस क़दम की आलोचना की है.
आख़िर क्या है मामला?
कुछ दिनों पहले यूपी सरकार ने सार्वजनिक स्थानों पर उन लोगों के पोस्टर लगाए थे, जिनके ख़िलाफ़ यूपी में सीएए विरोध के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुंचाने के आरोप हैं.
यूपी सरकार के इस क़दम की आलोचना के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मामले को स्वत: संज्ञान लेते हुए इसके ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया.
कोर्ट ने यूपी सरकार से ये पूछा कि ये पोस्टर किस क़ानून के तहत लगाए गए हैं.
लेकिन कोर्ट को सरकार की ओर से इसका जवाब नहीं मिल सका.
इसके बाद कोर्ट ने इस मामले में फ़ैसला सुनाते हुए इस तरह के पोस्टर हटाने का आदेश दिया.
हाई कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा, "हमें कोई शक नहीं कि राज्य सरकार ने इस मामले में जो किया वो लोगों की निजता में नाजायज़ दखलंदाज़ी है. इसलिए ये संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है."
लेकिन इसके बाद राज्य सरकार ने होर्डिंग हटाने के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने चुनौती दी.
सुप्रीम कोर्ट की वेकेशन बेंच (अवकाश पीठ) ने इस मामले की सुनवाई करते हुए इसे बड़ी बेंच के पास भेजने का फ़ैसला किया है.
यूपी सरकार का अध्यादेश क्यों
यूपी सरकार के अध्यादेश लाने के फ़ैसले को लेकर अलग-अलग तबकों में आलोचना और समर्थन के स्वर सुनाई दे रहे हैं.
लेकिन सवाल ये उठता है कि जब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है तो सरकार का ये ऑर्डिनेंस लाने की वजह क्या है.
न्यूज़ वेबसाइट इंडिया टुडे से बात करते हुए यूपी सरकार के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने इस ऑर्डिनेंस को लाने की वजह बताई है.
उन्होंने कहा, "सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में कहा है कि अगर किसी प्रदर्शन या विरोध के दौरान सरकारी या निजी संपत्ति को नुक़सान होता है तो इसे रोकने के लिए कड़े नियम बनाए जाने चाहिए. हमारी सरकार ने इसे लेकर एक आदेश दिया था लेकिन सीएए-होर्डिंग मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि ये क़दम किस क़ानून के तहत उठाए गए हैं. इसी वजह से हम एक ऑर्डिनेंस लेकर आए हैं जिसे बाद में क़ानून में बदला जाएगा."
कितना उचित है सरकार का ये फ़ैसला?
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने यूपी सरकार के इस क़दम को असंवैधानिक बताते हुए इसकी आलोचना की है.
After a tight slap from Allahabad HC on Dhongi's attempt to victimise peaceful protestors by arresting them, issuing recovery notices & putting up their posters, he decides to issue Ordinance to regularise illegally. Totally unconstitutional. Will be struck down https://t.co/5rW98Jks6V
— Prashant Bhushan (@pbhushan1) March 14, 2020
अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर भूषण लिखते हैं, "शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे लोगों को प्रताड़ित करने, उन्हें गिरफ़्तार करने, रिकवरी के नोटिस भेजने और उनके पोस्टर लगाने से जुड़े इस ढोंगी के प्रयासों पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की ओर से क़रारे तमाचे के बाद अब इसने एक ऑर्डिनेंस लाकर अवैध ढंग से इसके नियमन का फ़ैसला किया है. ये पूरी तरह असंवैधानिक है और इसे निरस्त किया जाएगा."
लेकिन एक सवाल अब भी बना हुआ है कि क्या ये क़ानून पोस्टर लगाए जाने को वैधता देगा.
इस विषय को लेकर अब तक सरकार की ओर से स्पष्टीकरण नहीं आया है.
क्योंकि सरकार अभी भी इस ऑर्डिनेंस को अमल में लाए जाने वाले नियमों को बना रही है.
ऐसे में ये साफ़ नहीं है कि इस ऑर्डिनेंस के तहत अभियुक्त बनाए गए लोगों की तस्वीरें और पोस्टर सार्वजनिक स्थानों पर चस्पा की जा सकती हैं या नहीं.
एक अहम सवाल ये है कि क्या किसी ऑर्डिनेंस की तहत उस तरह के कदम उठाए जा सकते हैं जिनसे संविधान का उल्लंघन होता हो.
यूपी सरकार की ओर से पोस्टर में एक तस्वीर सामाजिक कार्यकर्ता सदफ़ जाफ़र की भी है.
वे कहती हैं, "उत्तर प्रदेश सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का साफ़ तौर पर उल्लंघन किया है. किसी भी व्यक्ति की निजी जानकारी सार्वजनिक कर उसकी प्राइवेसी और जीवन के अधिकार को ख़तरे में नहीं डाला जा सकता है."
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की वेकेशन बैंच में हुई सुनवाई में होर्डिंग पोस्टर पर क़ानूनी स्पष्टता सामने आई है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड शादान फ़रासत ने बीबीसी संवाददाता विभुराज से बात करते हुए इसे लेकर कानूनी स्थिति को स्पष्ट करने की कोशिश की है.
शादान फ़रासत कहते हैं, "केस पर बहस के दौरान कोर्ट ने जो भी कॉमेंट्स दिए वो राज्य सरकार के ख़िलाफ़ थे. कोर्ट ने पूछा भी कि आप बिना किसी क़ानूनी आधार के ऐसा कैसे कर सकते हैं."
उन्होंने कहा, "प्राइवेसी का अधिकार मौलिक अधिकार के तहत आता है तो किसी की तस्वीर होर्डिंग पर लगा देने से उसके अधिकार का हनन तो हो ही रहा है. इस बारे में क़ानूनी स्थिति स्पष्ट है कि ऐसा केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के ज़रिए ही किया जा सकता है. इस मामले में ज़िला प्रशासन और पुलिस ने जो किया, उसके लिए जो बुनियादी ज़रूरत है कि इसे वाजिब ठहराने के लिए कोई क़ानून होना चाहिए लेकिन इस मामले में ऐसा कोई क़ानून है ही नहीं जो होर्डिंग लगाने के उनके फैसले को वाजिब ठहराता हो."
लेकिन सरकार के इस कदम को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या होगा, ये तो वक़्त के साथ ही पता चल पाएगा.