भारत में क्यों नहीं हो सकता तख़्तापलट?
शुरू में ही सेना का ऐसा पुनर्गठन किया गया कि हस्तक्षेप की सारी संभावनाएं ख़त्म हो गईं. रिटायर्ड लेफ़्टिनेंट जनरल एचएस पनाग की राय.
ज़िम्बाब्वे के राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे को राजधानी हरारे में उनके घर में नज़रबंद कर लिया गया है.
दावा किया जा रहा है कि सेना ने वहां तख़्तापलट कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया है.
इससे पहले तुर्की और वेनेजुएला में तख़्तापलट की असफल कोशिशें हो चुकी हैं.
पाकिस्तान में देश की आज़ादी के कुछ ही दिनों बाद से तख़्तापलट का जो सिलसिला चला वो हाल तक जारी रहा.
क्या इस फैसले से सेना का राजनीतिकरण होगा?
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लेकिन अफ़्रीका और लातिन अमरीका या फिर मध्यपूर्व के कुछ देशों की तरह भारत में तख़्तापलट जैसी कोई घटना नहीं घटी.
भारत की लोकतांत्रिक संस्थाएं इतनी मज़बूत हैं कि भारत में सेना के लिए तख़्तापलट करना बिल्कुल भी असंभव है.
इसके बहुत स्वाभाविक कारण हैं. भारत की सेना की स्थापना अंग्रेज़ों ने की थी और उसका ढांचा पश्चिमी देशों की तर्ज पर बनाया था.
इस बात पर गौर किया जा सकता है कि पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में तख़्तापलट की घटनाएं नहीं हुईं.
हालांकि 1857 की जो बग़ावत के बाद अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने सेना का पुनर्गठन किया. उन्होंने पूरे भारत से सैनिकों की भर्ती की.
हालांकि उन्होंने जाति आधारित रेजिमेंट भी बनाईं लेकिन जो दस्तूर और अनुशासन उन्होंने बनाए वो बिल्कुल एंग्लो सेक्शन कल्चर की तर्ज पर थे.
अनुशासनात्मक फ़ौज
यही कारण रहा है कि भारतीय फ़ौज बहुत अनुशासनात्मक रही है. 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध तक भारती फौज की अच्छी ख़ासी तादाद थी और ऐसा नहीं होता तो फ़ौज को विद्रोह करने से कोई बात नहीं रोक सकती थी.
लेकिन उस समय अलग अलग रजवाड़ों और रियासतों की वजह से उतनी एकता नहीं थी और सेना में भी क्षेत्र और जातीय आधार पर रेजिमेंटें बनीं थीं. यही कारण रहा कि भारतीय फौज बरक़रार रही.
इसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध का समय आया. उस दौरान आज़ाद हिंद फ़ौज के गठन की कोशिश हुई तब भी केवल 12 से 20 हज़ार सैनिक ही आईएनए का हिस्सा बने. जबकि 40 से 50 हज़ार भारतीय सैनिक विरोधियों के कब्ज़े में थे. पर सेना का अनुशासन नहीं टूटा.
साल 1946 में बांबे में नेवी विद्रोह हुआ. लेकिन उस समय तक भारतीय सेना की तादाद 25 लाख के आस पास पहुंच चुकी थी. उस लिहाज से देखें तो नेवी विद्रोह भी एक अपवाद ही था क्योंकि उसमें केवल 10 हज़ार के क़रीब सैनिकों ने हिस्सा लिया वो भी नेवी के.
एक बात ध्यान देने की बात है कि उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध का समय था, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन भी अपने चरम पर था और इससे सैनिक भी अछूते नहीं थे.
नेवी विद्रोह का असर कई जगह रहा लेकिन कुल मिलाकर भारतीय फ़ौज एकजुट ही रही.
अनबन के मामले
इसी तरह का अपवाद 1984 में सामने आया जब स्वर्ण मंदिर पर कार्रवाई के विरोध में कुछ सिख यूनिटों ने विद्रोह कर दिया था.
लेकिन बाक़ी फ़ौज एकजुट रही इसलिए इन विद्रोहों को दबा दिया गया. साठ के दशक में जनरल सैम मानेकशॉ और मौजूदा सरकार के बीच अनबन की ख़बरें आईं, लेकिन उसका भी स्वरूप कोई व्यापक नहीं था.
असल में जब पहली बार अंतरिम सरकार बनी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय सेना को लोकतांत्रिक सरकार के नियंत्रण में रहने का सिद्धांत रखा.
इसके लिए सबसे पहले उन्होंने कमांडर इन चीफ़ का पद ख़त्म कर दिया. इस पद पर अंग्रेज़ी हुक़ूमत में अंग्रेज़ अफ़सर तैनात होते थे और बाद में इस पद पर जनरल करियप्पा को नियुक्त किया गया था.
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नेहरू ने कहा कि जब फ़ौज का आधुनिकीकरण हो रहा है तो थल सेना, नौसेना और वायुसेना की अहमियत बराबर होगी और उसी समय तीनों के अलग अलग चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ बना दिए गए.
इन तीनों के ऊपर रक्षामंत्री को रखा गया जो चुनी हुई सरकार के कैबिनेट के तहत काम करता है.
लोकतांत्रिक सरकार ही सुप्रीम सत्ता
जनरल करियप्पा को पहला थल सेना अध्यक्ष बनाया गया. उस समय कमांडर इन चीफ़ का आवास तीन मूर्ति होता था. बाद में नेहरू ने उसे अपना घर बनाया.
ये एक बहुत ही सांकेतिक काम था और संदेश साफ़ था कि देश में लोकतांत्रिक सरकार ही सुप्रीम सत्ता रहेगी.
एक बार जनरल करियप्पा ने सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना की तो नेहरू उन्हें पत्र लिखकर और बुलाकर नागरिक सरकार के कामों में दख़ल न देने की हिदायत दी थी.
दरअसल भारत में लोकतंत्र की जो नींव रखी गई, सेना भी उसका हिस्सा बन गई. बाद में चुनाव आयोग, रिज़र्व बैंक जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं खड़ी हो गईं, इसने लोकतंत्र की नींव को काफ़ी मज़बूत किया.
इसके बाद पाकिस्तान की तरह के तख़्तापलट के ख़तरे लगभग समाप्त से हो गए. पाकिस्तान में तो 1958 में ही तख़्तापलट हो गया. उसी दौरान अफ़्रीकी और दक्षिणी अमरीकी देशों में तख़्तापलट हुए.
भारतीय लोकतंत्र जब अपने पैर जमा रहा था, उस नाज़ुक दौर का ख़तरा ख़त्म हो गया. इसमें भारतीय फ़ौज का अराजनीतिक प्रकृति और जनरल करियप्पा की बड़ी भूमिका रही.
बाद के समय में जनरल सैम मानेक शॉ के साथ एक विवाद जुड़ा. दिल्ली में उस दौरान कोई प्रदर्शन चल रहा था और सैम मानेक शॉ ने सेना की एक ब्रिगेड की दिल्ली में तैनात की थी, ताकि किसी अप्रिय घटना से निपटा जा सके. हालांकि उन्होंने आलोचना करने वालों को जवाब देते हुए कहा था कि घबराने की कोई बात नहीं ये कोई तख़्तापलट की कोशिश नहीं है.
देश में सेना की सात कमान है और ये संभव नहीं है कि एक जनरल एक साथ सातों कमान को आदेश दे. तब जबकि इनके कमांडर सेनाध्यक्ष से महज एक या दो साल पीछे होते हैं. किसी आदेश को इतनी आसानी से वे नहीं मान सकते जो अनुशासन से संबंधित हो.
बाद के समय में हम देखते हैं कि तत्कालीन जनरल वीके सिंह जोकि सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में आकर मौजूदा सरकार में मंत्री बन गए हैं, उन्होंने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार को चुनौती दी थी, लेकिन वो भी कोर्ट में.
कब होता है तख़्तापलट?
हालांकि एक अंग्रेज़ी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस ने कुछ आर्मी टुकड़ियों के दिल्ली की ओर मार्च की ख़बर प्रकाशित की थी, लेकिन उसमें भी किसी तख़्तापलट जैसा कुछ नहीं था.
भले ही ये दावा किया गया हो कि सरकार में उस समय हड़कंप मच गया था और टुकड़ियों को तुरंत वापस जाने के आदेश दिए गए थे.
असल में सेना को तख़्तापलट का तब मौका मिलता है जब देश में बहुत अस्थिरता हो, राजनीतिक विभाजन चरम पर हो और लोकतांत्रिक संस्थाएं कमज़ोर हों या भेदभाव या अराजकता की स्थिति हो.
भारत में ऐसी स्थिति कभी पैदा ही नहीं हुई. यहां तक कि इमरजेंसी के दौरान भी सेना राजनीति से अलग रही और कुछ लोग इस बात के लिए उसकी आलोचना भी करते हैं कि तीनों सेनाध्यक्षों को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलकर इमरजेंसी के बारे में बात करनी चाहिए थी.
फिर भी सेना राजनीति से दूर रही. क्योंकि की नींव में अनुशासन का ऐसा सिद्धांत मौजूद है जो उसे एकजुट रखता है और साथ ही नागरिक प्रशासन में हस्तक्षेप से दूर रखता है.
(बीबीसी संवाददाता संदीप राय से बातचीत के आधार पर.)