पीएम नरेंद्र मोदी ने सियोल में गंवा दिया बड़ा मौका
नई दिल्ली। देश के लिए बड़ा अवसर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शांति के लिए सियोल पीस प्राइज मिला है। कोई अवसर व्यक्ति से जुड़कर बड़ा हो जाता है और किसी अवसर से जुड़कर व्यक्ति बड़ा हो जाता है। यह निर्भर करता है कि अवसर का इस्तेमाल व्यक्ति ने कितना किया या अवसर ने व्यक्ति को किस हिसाब से कबूल किया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक शानदार कोशिश की अवसर का इस्तमाल करने की। उन्होंने शांति पुरस्कार के साथ मिली राशि को नमामि गंगे परियोजना को देने की घोषणा की। यह गंगा के प्रति और स्वच्छता व पर्यावरण के प्रति नरेंद्र मोदी के नजरिए और समर्पण को दिखलाता है। इसका सम्मान किया जाना चाहिए। मगर, यह कहते हुए तनिक भी संकोच नहीं होता कि प्रधानमंत्री से अवसर को पहचानने में चूक हुई है। ये अवसर पर्यावरण के लिए सम्मानित होने का नहीं था।
…तो अवसर भी मोदी की मुरीद हो जाती
जरा सोचिए। अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुलवामा के शहीदों के परिजनों के फंड के लिए अपनी राशि दान कर दी होती, तो यह अवसर भी मोदी का मुरीद हो गया होता। वर्तमान ही नहीं भविष्य भी मोदी का इस्तकबाल करता, उनके फैसले की कद्र करता। शांति के लिए पुरस्कार लेते प्रधानमंत्री के देश में अशांति का बारूद फटा हो, 40 से ज्यादा जवान शहीद हुए हो और घटना के बीते एक हफ्ते ही हुए हों। तब भी ऐसे महतवपूर्ण मौके पर पुलवामा के शहीदों पर नमामि गंगे को वरीयता देने की भूल प्रधानमंत्री कैसे कर सकते हैं!
प्यार और मोहब्बत के दिन यानी 14 फरवरी जब देश वेलेन्टाइन मना रहा था और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जिम कॉर्बेट में वन्य प्राणियों के बीच इंसानी प्यार और मोहब्बत बांट रहे थे, उस दिन समूचे देश की शांति आत्मघाती हमले ने लूट ली। विरोधी दल प्रधानमंत्री से पूछ रहे हैं कि उन्होंने शूटिंग क्यों नहीं छोड़ी, प्रतिक्रिया देने में देरी क्यों की, राष्ट्रीय शोक क्यों नहीं घोषित किया वगैरह-वगैरह। इन सबके बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर इस मुद्दे की अनदेखी कर दी।
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पुलवामा पर यूएन के निन्दा प्रस्ताव को भी भुना सकते थे पीएम
भारत ही नहीं पूरी दुनिया पुलवामा के हमले की निन्दा कर रही है। संयुक्त राष्ट्र की ओर से निन्दा प्रस्ताव पारित हुए कुछ घंटे ही हुए हैं। जिस मुद्दे को दुनिया गम्भीरता से ले रही है, उस मुद्दे से सियोल पीस प्राइस इवेंट को जोड़ नहीं सके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। एक राजनेता के रूप में यह बड़ी विफलता है। दुनिया के स्तर पर जो कद नरेंद्र मोदी ने हासिल किया है और जिसका दावा उनकी पूरी पार्टी और सरकार करती है, उस हिसाब से यूएन से पारित प्रस्ताव भी एक बड़ा अवसर था जिसका इस्तेमाल इस मौके पर किया जाना चाहिए था। अगर शांति पुरस्कार और यूएन का प्रस्ताव पीएम जोड़ने में सफल रहते तो पुलवामा दुनिया का ध्यान खींचने के दृष्टिकोण से इन दोनों से बड़ा अवसर बन जाता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी के जन्मदिन के डेढ़ सौ साल होने से सियोल शांति पुरस्कार को जोड़ा है। निस्संदेह महात्मा गांधी से बड़ा शांति का प्रतीक दुनिया में कोई नहीं है, कबूतर भी नहीं। मगर, जब हम इस अवसर महात्मा गांधी को याद करते हैं तो उन प्रयासों की कद्र करते हैं जो इन पुरस्कारों के मोहताज नहीं होते। अगर उन्हीं महात्मा गांधी को इस अवसर इस रूप में याद किया जाता कि उस धरती पर जहां उन्होंने देश को आज़ाद कराने की लड़ाई बगैर हथियार के लड़ी और जीत हासिल की, अब आत्घाती बम फूटने लगे हैं तो गांधी और शांति दोनों की अहमियत बढ़ जाती। खुद उस पुरस्कार और पुरस्कार को लेने का अवसर भी बड़ा हो जाता।
शांति को व्यापक अर्थ देने की ज़रूरत
नरेंद्र मोदी ने दुनिया में आतंकवाद और कट्टरवाद को ख़त्म करने की अपील की। शांति इन तत्वों की अनुपस्थिति मात्र का नतीजा नहीं होती। हालांकि ये शांति के दुश्मन जरूर हैं और शांति के साथ इनका अस्तित्व मिटता चला जाता है। शांति विकासवादी होती है, समावेशी होती है, सहिष्णु होती है, सर्वधर्मव्यापी होती है। यह भेदभाव नहीं करती। जब ये बातें किसी भौगौलिक क्षेत्र में होंगी, राजनीतिक परिवेश में होंगी तो आतंकवाद और कट्टरवाद का प्रवेश जनजीवन में कैसे हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांति पुरस्कार के इस मौके पर शांति की सीमा को ही सीमित कर दिखाया।
पुलवामा की घटना, संयुक्त राष्ट्र का निन्दा प्रस्ताव और गांधीजी की शांति के लिए सोच अगर सियोल पीस प्राइज के इवेंट पर इकट्ठा हो पातीं, तो यह अवसर बहुत बड़ा हो जाता। जब अवसर बड़ा होता, तो इस अवसर को बड़ा बनाने वाले का कद भी स्वत: विशाल हो जाता है। अफसोस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह मौका गंवा दिया।
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