लोकतंत्र की गरिमा वापस नहीं लौटा पायेंगे मनमोहन के आंसू
इस बात पर चर्चा करने से पहले हम आपको ठीक दो दिन पीछे ले चलते हैं, जब रेल बजट पेश होते वक्त तेलंगाना क्षेत्र के सांसदों ने हंगामा किया। रेल मंत्री रेल बजट पढ़ भी नहीं पाये। हंगामे के बाद जब लोकसभा स्थगित हुई और मीडिया ने प्रधानमंत्री से सवाल किया तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा, "मेरा दिल रो रहा है।" सच पूछिए तो पीएम के इस रोते हुए दिल की आवाज़ कांग्रेस से निष्कासित सांसद एल राजगोपाल और टीडीपी सांसद एम वेणुगोपाल ने नहीं सुनी। शायद इसीलिये इन दोनों ने देश को शर्मसार कर देने वाली वारदात को अंजाम दिया।
इस वारदात का एक बड़ा कारण जो महसूस किया जाता है वो यह कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। भारत की शासन प्रणाली के अन्तर्गत कुछ ऐसी व्यवस्था है कि देश के राष्ट्रपति से अधिक शक्तिशाली स्थिति प्रधानमंत्री की दिखाई देती है। प्रधानमंत्री शब्द सुनते ही एक प्रभुत्वशाली, मजबूत, कुशल नेतृत्व क्षमता जो देश की व्यवस्थाओं को सुदृढ और नियंत्रित कर सकने का सामर्थय रखती हो ऐसी छवि मन में उभरती हैं और ऐसी छवि जनता के मन में बहुत सी उम्मीदें जगाती है।
क्या मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की कसौटी पर खरे उतरते हैं!
पर वर्तमान सिथति में जिसे देश प्रधानमंत्री के रूप में पहचानता है, जानता है क्या वो मनमोहन सिंह जनता के मन में उस छवि को उभारने में सफल हो पाए? यह बेहद निरासाजनक सत्य है कि आज हम जिस प्रधानमंत्री को जानते हैं उसकी छवि एक कमजोर, लाचार, मजबूर सत्ताधारी के रुप में दिखती है जो न तो देश की शासन व्यवस्था को नियन्त्रित कर पाए न आवाम को संतुष्ट कर पाए। शायद यही कारण है कि मनमोहन सिंह के लिए कभी एलके आडवाणी ने निसंकोच व्यंग्य किया कि देश को इससे पहले इतना कमजोर प्रधानमंत्री कभी नहीं मिला।
बु़धवार को जब अंतरिम रेल बजट संसद में पेश किया गया ठीक उसी समय सीमांध्र के सांसदों ने सोनिया गांधी के आन्ध्रप्रदेश के विभाजन के निर्णय को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरु कर दिया और हैरत की बात यह है कि सरकार के अपने कुछ केन्द्रिय मंत्रियों ने ही आन्ध्र प्रदेश के विभाजन के मुददे के विरोध में मोर्चा खोल दिया। और उसके दूसरे ही दिन पेपर स्प्रे व माइक तोड़ने की वारदात में भी वे सांसद शामिल थे, जो दो दिन पहले तक कांग्रेस में थे।
क्या इससे बुरा किसी सरकार के लिए और कुछ हो सकता है कि उसके अपने ही मंत्री उसके खिलाफ आवाज उठाए। यह स्थिति एक कमजोर नेतृत्व और सरकार के भीतर की वैचारिक विसंगति को ही प्रकट करता है। पर क्या कर रहें है प्रधानमंत्री अपने ही भीतर पनपी इन विसंगतियों को दूर करने के लिए।
आडवाणी को बोलना ही पड़ा
इन स्थितियों में भी प्रधानमंत्री जी बस इतना कह कर इस विरोध से पल्ला झाड़ लेते हैं कि उनका दिल खून के आंसु रो रहा है। एक तरफ आपके मंत्री संसद में हंगमा मचा रहें है दूसरी तरफ इस हंगामें को नियंत्रित करने की बजाए आप कह रहें हैं कि आपका दिल रो रहा है, वाह प्रधानमंत्री जी क्या खूब जिम्मेदारी निभाई आपने बतौर प्रधानमंत्री. क्या यह एक प्रभुत्वशाली और योग्य पीएम।
पर यह कोई नई बात नहीं है इससे पहले भी कांग्रेस के सांसदों के हंगामों की वजह से कई बार सदन बाधित हुआ है। पर क्या करे बेचारे प्रधानमंत्री जी उन्हें विपक्ष के साथ भोजन करने की व्यवस्था का भी तो ध्यान रखना था तो वो कैसे अपना सारा फोकस आन्ध्रा के मुददे पर दे सकते थे। तभी तो पीएम जी को व्यस्त देखकर कांग्रेस की तरफ से कमलनाथ जी को आगे बढ़ कर आडवाणी जी से पूछना पड़ा कि वो आंध्र प्रदेश के पूनर्गठन पर सशर्त या बिना शर्त समर्थन देगें? अन्त में आडवाणी को कहना ही पड़ा कि प्रधानमंत्री जी दिल तो देश का खून के आंसु रो रहा है कांग्रेस के इन निराले खेलों को देख कर।
यह कैसी कार्यप्रणाली है प्रधानमंत्री के दल की जो खुद आपस में ही अस्पष्ट, अव्यवस्थित है। एक दल के भीतर किसी विचार पर इतनी असहमती यही दर्शाती है कि उस विचार, पर उस दल ने आंतरिक रुप से एक सहमती हासिल करने के लिए कोई पूर्व चर्चा नहीं की, कहें तो यह एक आपसी वैचारिक मतभेद कुसल नेतृत्व के अभाव का परिणाम ही है।
कटुता की सिथति में तेलंगाना
आंध्राप्रदेश में मौजुदा हालात में जो कटुता की सिथति पैदा हो गई है क्या एक भी कोशिश की पीएम जी ने इन स्थितियों को सुधारने की दिशा में। इतना ही नहीं क्या अब प्रधानमंत्री जी को यह भी याद दिलाना पडे़गा कि कौन सा विधेयक राज्यसभा या लोकसभा में कब पेश किया जाना चाहिए। वो किस तैयारी के साथ एक धन विधेयक को राज्यसभा में पेश करने का सोच रहे थे जब कि वो बखूबी जानते होगें की धन विधेयक राज्यसभा में पेस नहीं किया जा सकता। कैसे देश ऐसे पीएम से विकास की उम्मीद कर सकती है समस्याओं के निदान की आशा कर सकती है जब वो खुद ही देस और जनता के प्रति कर्तव्यविमूढ नज़र आता हो।
इसी बीच आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री का इस्तीफा भी अटकलों में पड़ता दिखाई दे रहा है। पर उनका इस्तीफा देना भी कोई मतलब नहीं बनता क्योंकि आगे भी चल कर भी उन्हें इस्तीफा देना ही पड़ सकता है। बहरहाल जो भी इन सभी घटनाओं ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी को एक सफल और योग्य प्रधानमंत्री की कसौटी पर नाकाम साबित कर ही दिया है।