1000 साल पहले शरणार्थी बनकर भारत आए थे पारसी, इस तरह से देश में घुल-मिल गए
नई दिल्ली- भारत में आज यानि 17 अगस्त को पारसी नया साल मनाया जाता है, जिसे 'जमशेदी नवरोज' के नाम से भी जानते हैं। इसी दिन प्राचीन फारस के राजा शहंशाह जमशेद ने पारसी कैलेंडर की शुरुआत की थी। पारसियों (भारत के कई हिस्सों में ईरानी भी कहते हैं) का धर्म असल में ज़रथुस्ट्र पंथ कहलाता है, जो एक ईश्वरवाद का सबसे पुराना धर्म है। इस धर्म के संस्थापक पैगंबर ज़रथुस्त्र थे, जो करीब 3500 साल पहले प्राचीन ईरान में रहते थे। 7वीं सदी में इस्लाम धर्म के उदय होने से पहले तक ज़रथुस्ट्र साम्राज्य और धर्म कई शताब्दियों तक स्थापित रहा था। लेकिन, इस्लामी लड़ाकों के फारस (ईरान) पर हमले के साथ ही इस साम्राज्य और धर्म दोनों पर संकट की शुरुआत हो गई। उन्हें फारस से खदेड़ा जाने लगा, अपने मूल स्थान पर ही उन्हें अपनी जान सुरक्षित रख पाना असंभव हो गया।
फारस से क्यों निकलने को मजबूर हुए पारसी ?
फारस में पारसियों के लिए पहले की तरह अपना ज़रथुस्ट्र पंथ या जीवन जीने के लिए मजदायासना और अपनी जिंदगी दोनों को सुरक्षित रखना जरूरी था। लेकिन, वे इस्लामिक कट्टरपंथियों के हमले के शिकार होने लगे थे। इस्लाम के उदय के साथ फारस में पहले की तरह उनका रहना नामुमकिन हो गया था। मुसलमानों के पहले खलीफा अबु बकर ने अपने एक कमांडर खालिद इब्न वालिद को पारसियों के पास यह औफर देकर भेजा,'इस्लाम कबूल कर लो और सुरक्षित रहो। या जजिया चुकाओ और तुम और तुम्हारे लोग हमारे संरक्षण में आ जाओ, नहीं तो जो भी होगा उसके लिए तुम खुद दोषी होगे, और जहां तक मेरी बात है तो ऐसे लोगों को लाता हूं जो उसी तरह मौत चाहते हैं, जैसे तुम जिंदगी चाहते हो।' उम्मयद खलीफा के वर्चस्व के समय में अगले दो दशकों में ही हजारों पारसियों को काट दिया गया या फांसी दे दी गई। जब अरब कमांडर साद इब्न वकास ने फारस की राजधानी पर कब्जा किया तो सभी गैर-इस्लामी किताबें, पुस्तकालय जला डाले गए और फारस (ईरान) एक इस्लामिक राज्य बन गया और वहां शरिया कानून लागू हो गया।
गुजरात के हिंदू राजा ने शरण दिया था
आखिरकार हजारों पारसियों ने बिना कुछ तैयारियों के नावों में बैठकर समंदर के रास्ते भारत की ओर कूच करना शुरू कर दिया। वह फारस से चलकर सीधे गुजरात के एक तटीय शहर संजान पहुंचने लगे। पारसियों का पहला जत्था 17 नवंबर को संजान पहुंचा था, इसलिए उस तारीख को वे संजान दिवस मनाते हैं। उस समय के स्थानीय हिंदू राजा जादी राणा या जदेजा ने करीब 18,000 पारसियों को अपने राज्य में शरण दिया और उन्हें अपना धर्म और अपनी परंपरा के पालन की इजाजत दी। एक महाकाव्य किस्सा-इ-सांजन में पारसियों या ईरानियों के भारत में शरण लेने के बारे में विस्तार से उल्लेख है। अनुमान के मुताबिक पारसी 8वीं से 10वीं सदी के बीच भारत आए थे, जो हमेशा के लिए उनका नया घर और मातृभूमि बन गया। बाद में पारसी समुदाय के लोग देश के ही कई शहरों (भारत और पाकिस्तान) में बस गए। इनमें मुंबई, सूरत और कराची जैसे शहर प्रमुख हैं। इस वक्त दुनियाभर में पारसियों की कुल आबादी करीब 26 लाख है, जिनमें से काफी संख्या में खुशनसीब भारतीय नागरिक हैं।
भारत और भारतीयता को आत्मसात कर लिया
पारसियों की सबसे बड़ी खासियत है कि उन्होंने भारत और भारतीयता को आत्मसात कर लिया है। न तो उन्हें किसी का धर्म परिवर्तन कराकर अपने समुदाय में मिलाने की दिलचस्पी है और वे अपने धर्म और अपनी परंपरा को जीवित रहने के लिए आज भी उतने ही समर्पित हैं, जितने कि हजार वर्ष पहले ईरान छोड़ने के वक्त में थे। यही नहीं भारत की इतनी बड़ी आबादी में मामूली प्रतिनिधित्व होने के बावजूद इस समुदाय ने देश को आगे बढ़ाने के लिए जो योगदान दिया है, वह अत्यंत ही गौरव की बात है। इस वक्त देश में मात्र 70,000 पारसी रहते हैं, लेकिन, ये आर्थिक रूप से जितने संपन्न हैं, उतने ही शिक्षित भी हैं। इस समुदाय के लोग देश के अग्रणी उद्यमी हैं,बड़े कानूनविद् हैं, सैन्य बलों में भी इनकी मौजूदगी और गहरी छाप पड़ी है।
देश के गौरव
देश में पारसी समुदाय के अनेकों लोगों ने देश का गौरव बढ़ाने में बड़ा योगदान दिया है। इनमे पहला नाम जमशेदजी टाटा का लिया जा सकता है, जिन्हें आधुनिक भारतीय उद्योगों का पितामह कहा जाता है। उन्होंने ही टाटा ग्रुप की नींव रखी थी। जेआरडी टाटा या जहांगीर रतनजी दादाभॉय टाटा, देश के पहले पाटलट थे, जिन्हें हवाई जहाज उड़ाने का लाइसेंस मिला था। इन्होंने ही 1932 में देश के पहले एयरलाइंस टाटा एयरलाइंस की स्थापना की थी, जो कि 1946 में एयर इंडिया बना। फिल्ड मार्शल सैम मानेकशॉ- 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत के सबसे प्रमुख चेहरे रहे, जब भारत ने बांग्लादेश को मुक्त करवाया था। ये देश के पहले मिलिट्री ऑफिसर बने जिन्हें फिल्ड मार्शल का दर्जा मिला। उद्योगपतियों में टाटा घराने से ही एक और नाम रतन नवल टाटा का आता है। इसी तरह विज्ञान की दुनिया में होमी जहांगीर भाभा का नाम आता है, जिनकी कोशिशों से देश में परमाणु कार्यक्रमों की शुरुआत हुई। भारतीय सेना में योगदान देने वाले एक और पारसी समुदाय के जांबाज अर्देशिर बुरजोर्जी तारापोरे का नाम भी शामिल है, जिनके पूना हॉर्स रेजिमेंट ने 1965 के युद्ध में अपने रण कौशल का परिचय देते हुए सियालकोट सेक्टर में पाकिस्तानी सेना के करीब 60 टैंकों को नष्ट कर दिया था। इस अदम्य वीरता के बीच उन्हें शहादत मिली। यह फेहरिस्त काफी लंबी है और सबने देश का गौरव बढ़ाने में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दिया है।
इसे भी पढ़ें- चीन: शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के मस्जिद को बना दिया गया पब्लिक टॉयलेट